श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 813 करणहारु जो करि रहिआ साई वडिआई ॥ गुरि पूरै उपदेसिआ सुखु खसम रजाई ॥३॥ पद्अर्थ: करणहारु = सब कुछ कर सकने वाला। साई = वही। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। रजाई = रज़ा में (रहने से)।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (सही जीवन की) शिक्षा दी (उसे विश्वास हो गया कि) मालिक-प्रभु की रज़ा में रहने से ही सुख मिलता है, सब कुछ करने में समर्थ प्रभु जो कुछ कर रहा है वही जीवों की भलाई के लिए है।3। चिंत अंदेसा गणत तजि जनि हुकमु पछाता ॥ नह बिनसै नह छोडि जाइ नानक रंगि राता ॥४॥१८॥४८॥ पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। जनि = दास ने। रंगि = रंग में, प्यार में।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा के दास ने (दुनिया वाले) चिन्ता-फिक्र-झोरे छोड़ के सदा परमात्मा के आदेश को (ही अपने भले के लिए) पहचाना है। प्रभु का दास सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगा रहता है (उसको यकीन है कि) प्रभु कभी मरता नहीं, और ना ही अपने सेवक का कभी साथ छोड़ता है।4।18।48। बिलावलु महला ५ ॥ महा तपति ते भई सांति परसत पाप नाठे ॥ अंध कूप महि गलत थे काढे दे हाथे ॥१॥ पद्अर्थ: तपति = (विकारों की) तपश। सांति = शांति, शीतलता। परसत = छूते हुए। अंध कूप = अंधेरा कूआँ। दे = दे के।1। अर्थ: हे भाई! (उन संत जनों के पैर) परसने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, मन में विकारों की भारी तपश से शांति बनी रहती है। जो मनुष्य (विकारों-पापों के) घोर अंधेरे कूएं में गल-सड़ रहे होते हैं, उनको (वे संत-जन अपना) हाथ दे के (उस कूएं में से) निकाल लेते हैं।1। ओइ हमारे साजना हम उन की रेन ॥ जिन भेटत होवत सुखी जीअ दानु देन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओइ = वह (संत जन)। साजना = सज्जन, मित्र। रेन = चरण धूल। भेटत = मिलने से। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। देन = देते हैं।1। रहाउ। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिनको मिलने से (मेरा मन) आनंद से भर जाता है, जो (मुझे) आत्मिक जीवन की दाति देते हैं, वह (संतजन ही) मेरे (असल) मित्र हैं, मैं उनके चरणों की धूल (की चाहत रखता) हूँ।1। रहाउ। परा पूरबला लीखिआ मिलिआ अब आइ ॥ बसत संगि हरि साध कै पूरन आसाइ ॥२॥ पद्अर्थ: परा पूरबला = बहुत जन्मों का। अब = अब जब हरि साधु मिल गया है। संगि = साथ। हरि साध कै संगि = प्रभु के भक्त के साथ। आसाइ = आशाएं।2। अर्थ: हे भाई! इस मानव जन्म में (जब किसी मनुष्य को कोई संतजन मिल जाता है, तब) बड़े पूर्बले जन्मों से उसके माथे पर लेख उघड़ पड़ते हैं। प्रभु के सेवक-जन की संगति में बसते हुए (उस मनुष्य की) सारी आशाएं पूरी हो जाती है।2। भै बिनसे तिहु लोक के पाए सुख थान ॥ दइआ करी समरथ गुरि बसिआ मनि नाम ॥३॥ पद्अर्थ: भै = सारे डर। तिहु लोक के = तीनों भवनों के, सारे जगत के। सुख थान = सुख देने वाली जगह, साधु-संगत। गुरि = गुरु ने। समरथ = सब कुछ कर सकने वाला। मनि = मन में।3। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! सब कुछ कर सकने वाले गुरु ने जिस मनुष्य पर दया की, उसके मन में प्रभु का नाम बस पड़ता है, सारे जगत को डराने वाले (उसके) सारे डर नाश हो जाते हैं (क्योंकि गुरु की कृपा से) उसको सुखों का ठिकाना (साधु-संगत) मिल जाता है।3। नानक की तू टेक प्रभ तेरा आधार ॥ करण कारण समरथ प्रभ हरि अगम अपार ॥४॥१९॥४९॥ पद्अर्थ: टेक = ओट, सहारा। प्रभ = हे प्रभु! आधार = आसरा। करण कारण = जगत का कारण, जगत का मूल। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत।4। अर्थ: हे जगत के मूल प्रभु! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे बेअंत हरि! नानक की तू ही ओट है, नानक का तू ही आसरा है (मुझे नानक को भी गुरु मिला, संत जन मिला)।4।19।49। बिलावलु महला ५ ॥ सोई मलीनु दीनु हीनु जिसु प्रभु बिसराना ॥ करनैहारु न बूझई आपु गनै बिगाना ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वही मनुष्य। मलीन = मैला, गंदा। दीनु = कंगाल। हीनु = नीच। आपु = अपने आप को। गनै = समझता है। बिगाना = बे ज्ञाना, मूर्ख।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है, वही मनुष्य गंदा है, कंगाल है, नीच है। वह मूर्ख मनुष्य अपने आप को (कोई बड़ी हस्ती) समझता रहता है, सब कुछ करने के समर्थ प्रभु को कुछ समझता नहीं।1। दूखु तदे जदि वीसरै सुखु प्रभ चिति आए ॥ संतन कै आनंदु एहु नित हरि गुण गाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तदे = तब ही। जदि = जब। चिति = चिक्त में। प्रभ चिति आए = प्रभु चिक्त आने से। गाए = गाता है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य को) तब ही दुख होता है जब इसे परमात्मा भूल जाता है। परमात्मा के मन में बसने से (हमेशा) सुख प्रतीत होता है। प्रभु का सेवक सदा प्रभु के गुण गाता रहता है। सेवक के हृदय में ये आनंद टिका रहता है।1। रहाउ। ऊचे ते नीचा करै नीच खिन महि थापै ॥ कीमति कही न जाईऐ ठाकुर परतापै ॥२॥ पद्अर्थ: ते = से। खिन महि = तुरंत। थापै = गद्दी पर बैठा देता है, इज्जत वाला बना देता है। ठाकुर परतापै = ठाकुर के प्रताप की।2। अर्थ: (पर, हे भाई! याद रख) परमात्मा ऊँचे (घमण्डी, अकड़वाले) से नीचा बना देता है, और नीचों को एक पल में इज्जत वाले बना देता है। उस परमात्मा के प्रताप का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2। पेखत लीला रंग रूप चलनै दिनु आइआ ॥ सुपने का सुपना भइआ संगि चलिआ कमाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: लीला = खेल तमाशे। सुपने का सुपना भइआ = जो चीज़ थी ही सपना, वह आखिर में सपना ही बन गई। संगि = साथ। कमाइआ = किए हुए कर्म।3। अर्थ: (हे भाई! दुनिया के) खेल-तमाशे (दुनिया के) रंग-रूप देखते-देखते (ही मनुष्य के दुनिया से) चलने के दिन आ पहुँचते हैं। इन रंग-तमाशों से तो साथ खत्म ही होना था, वह साथ खत्म हो जाता है, मनुष्य के साथ तो किए हुए कर्म ही जाते हैं।3। करण कारण समरथ प्रभ तेरी सरणाई ॥ हरि दिनसु रैणि नानकु जपै सद सद बलि जाई ॥४॥२०॥५०॥ पद्अर्थ: करण कारण = हे जगत के रचनहार! करण = जगत। दिनसु रैणि = दिन रात। नानकु जपै = नानक जपता है (शब्द ‘नानकु’ और ‘नानक’ में फर्क है)। सद सद = सदा ही। बलि जाई = सदके जाता है।4। अर्थ: हे जगत के रचनहार प्रभु! हे सारी ताकतों के मालिक प्रभु! (तेरा दास नानक) तेरी शरण आया है। हे हरि! नानक दिन-रात (तेरा ही नाम) जपता है, तुझसे ही सदा-सदा सदके जाता है।4।20।50। बिलावलु महला ५ ॥ जलु ढोवउ इह सीस करि कर पग पखलावउ ॥ बारि जाउ लख बेरीआ दरसु पेखि जीवावउ ॥१॥ पद्अर्थ: ढोवउ = मैं ढोऊँ। इह सीस करि = इस सीस से। कर = हाथों से (कर्ण कारक, बहुवचन)। पग = (बहुवचन) दोनों पैरों से। पखलावउ = मैं धोऊँ। बारि जाउ = मैं कुर्बान जाऊँ। बेरीआ = बारी। पेखि = देख के। जीवावउ = (मैं अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करूँ।1। अर्थ: (हे भाई! मेरी यह तमन्ना है कि गुरु के घर में) मैं अपने सिर पर पानी ढोया करूँ, और अपने हाथों से (संत जनों के) पैर धोया करूँ। मैं लाखों बार (गुरु से) सदके जाऊँ और (गुरु की संगति के) दर्शन करके (अपने अंदर) आत्मिक जीवन पैदा करता रहूँ।1। करउ मनोरथ मनै माहि अपने प्रभ ते पावउ ॥ देउ सूहनी साध कै बीजनु ढोलावउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करउ = करूँ। मनोरथ = जरूरत, मांग। ते = से। पावउ = पाऊँ। देउ = मैं दूँ। सूहनी = झाड़ू। साध कै = गुरु के घर में। बीजनु = पंखा। ढोलावउ = (पंखा) झलूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! मेरी सदा यही आरजू है कि) मैं जो भी माँग अपने मन में करूँ, वह माँग मैं अपने परमात्मा से प्राप्त कर लूँ, मैं गुरु के घर में (साधु-संगत में) झाड़ू दिया करूँ और पंखा झला करूँ।1। रहाउ। अम्रित गुण संत बोलते सुणि मनहि पीलावउ ॥ उआ रस महि सांति त्रिपति होइ बिखै जलनि बुझावउ ॥२॥ पद्अर्थ: अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले हरि गुण। सुणि = सुन के। मनहि = मन को। पीवावउ = पिलाऊँ। साति = शांति। त्रिपति = तृप्ति। बिखै जलनि = विषयों की जलन। बुझावउ = बुझाऊँ।2। अर्थ: (हे भाई! मेरी ये अरदास है कि साधु-संगत में) संत जन परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले जो गुण उचारते हैं, उनको सुन के मैं अपने मन को (नाम अमृत) पिलाया करूँ, (नाम अमृत के) उस स्वाद में (मेरे अंदर) शांति और (तृष्णा से) तृप्ति पैदा हो, (नाम-अमृत की सहायता से) मैं (अपने अंदर से) विषियों की जलन बुझाता रहूँ।2। जब भगति करहि संत मंडली तिन्ह मिलि हरि गावउ ॥ करउ नमसकार भगत जन धूरि मुखि लावउ ॥३॥ पद्अर्थ: करहि = करते हैं। संत मंडली = सत्संगी। मिलि = मिल के। गावउ = गाऊँ। मुखि = मुँह पर। लावउ = लगाऊँ।3। अर्थ: (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) जब संत जन साधु-संगत में बैठ के परमात्मा की भक्ति करते हैं, उनके साथ मिल के मैं भी परमात्मा के गुण गान करूँ, मैं संतजनों के आगे सिर झुकाया करूँ, और उनके चरणों की धूल (अपने) माथे पर लगाया करूँ।3। ऊठत बैठत जपउ नामु इहु करमु कमावउ ॥ नानक की प्रभ बेनती हरि सरनि समावउ ॥४॥२१॥५१॥ पद्अर्थ: जपउ = जपूँ। करमु = कर्म। कमावउ = मैं करूँ। प्रभ = हे प्रभु! समावउ = मैं लीन रहूँ।4। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर पर) नानक की यही विनती है कि उठते-बैठते (हर वक्त) मैं (तेरा) नाम जपा करूँ, मैं इस काम को (ही श्रेष्ठ जान के नित्य) करा करूँ, और, हे हरि! मैं तेरे ही चरणों में लीन रहूँ4।21।51। बिलावलु महला ५ ॥ इहु सागरु सोई तरै जो हरि गुण गाए ॥ साधसंगति कै संगि वसै वडभागी पाए ॥१॥ पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। सोई = वही मनुष्य। कै संगि = के साथ। वसै = बसता है। वडभागी = बड़े भाग्यों वाला मनुष्य।1। अर्थ: (हे भाई! ये जगत, मानो, एक समुंदर है जिसमें विकारों का पानी भरा पड़ा है) इस समुंदर में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है, जो साधु-संगत के साथ मेल-जोल रखता है। (पर यह दाति) कोई भाग्यशाली मनुष्य ही प्राप्त करता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |