श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नीचु अनाथु अजानु मै निरगुनु गुणहीनु ॥ नानक कउ किरपा भई दासु अपना कीनु ॥४॥२५॥५५॥

पद्अर्थ: अजानु = अंजान। नानक कउ = नानक को, नानक पर। कीनु = बना लिया।4।

अर्थ: हे भाई! मैं नीच था, अनाथ था, अंजान था, मेरे अंदर कोई गुण नहीं थे, मैं गुणों से वंचित था (पर, गुरु की शरण पड़ने के कारण, मुझ) नानक पर परमात्मा की मेहर हुई, परमात्मा ने मुझे अपना सेवक बना लिया।4।25।55।

बिलावलु महला ५ ॥ हरि भगता का आसरा अन नाही ठाउ ॥ ताणु दीबाणु परवार धनु प्रभ तेरा नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: अन = अन्य। ठाउ = स्थान। ताण = बल। दीबाणु = आसरा। प्रभ = हे प्रभु!।1।

अर्थ: हे हरि! (तूने अपने भक्तों की रक्षा की है, क्योंकि) तेरे भक्तों को तेरा ही आसरा रहता है, (उनकी सहायता के लिए) और कोई जगह नहीं सूझती। हे प्रभु! तेरा नाम ही (तेरे भक्तों के वास्ते) ताण है, सहारा है, परिवार है, धन है।1।

करि किरपा प्रभि आपणी अपने दास रखि लीए ॥ निंदक निंदा करि पचे जमकालि ग्रसीए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। रखि लीए = रक्षा की। पचे = (प्लुष) जलते रहे। जम कालि = जम काल ने, आत्मिक मौत ने। ग्रसिए = ग्रस लिए, हड़प कर लिए।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने मेहर करके अपने सेवकों की सदा ही स्वयं रक्षा की है। निंदक (सेवकों की) निंदा कर करके (सदा) जलते-भुजते रहे, उन्हें (बल्कि) आत्मिक मौत ने हड़प किए रखा।1। रहाउ।

संता एकु धिआवना दूसर को नाहि ॥ एकसु आगै बेनती रविआ स्रब थाइ ॥२॥

पद्अर्थ: को = कोई। रविआ = व्यापक। स्रब = सर्व, सारे। थाइ = जगह में।2।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु अपने संत जनों की सदा रक्षा करता है, क्योंकि) संतजन सदा एक प्रभु का ही ध्यान धरते हैं, किसी और का नहीं। जो प्रभु सब जगहों में व्यापक है, संत जन सिर्फ उसके दर पर ही अरजोई करते हैं।2।

कथा पुरातन इउ सुणी भगतन की बानी ॥ सगल दुसट खंड खंड कीए जन लीए मानी ॥३॥

पद्अर्थ: भगतन की बानी = भक्तों के वचनों के द्वारा, भक्तों की ज़बानी। सगल = सारे। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े। लीए मानी = मान लिए, आदर दिया।3।

अर्थ: हे भाई! भक्तजनों की अपनी वाणी के द्वारा ही पुराने समय से ही इस प्रकार कथा सुनी जा रही है, कि परमात्मा ने (हर समय) अपने सेवकों का आदर किया, और (उनके) सारे वैरियों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।3।

सति बचन नानकु कहै परगट सभ माहि ॥ प्रभ के सेवक सरणि प्रभ तिन कउ भउ नाहि ॥४॥२६॥५६॥

पद्अर्थ: सति = अटल। परगट = प्रत्यक्ष तौर पर।4।

अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: ये वचन सारी सृष्टि में ही प्रत्यक्ष तौर पर अटल हैं कि प्रभु के सेवक प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, (इस वास्ते) उनको कोई डर छू नहीं सकता।4।26।56।

बिलावलु महला ५ ॥ बंधन काटै सो प्रभू जा कै कल हाथ ॥ अवर करम नही छूटीऐ राखहु हरि नाथ ॥१॥

पद्अर्थ: काटै = काटता है। जा कै हाथ = जिसके हाथों में। अवर करम = और कामों में। नाथ = हे नाथ!।1।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के हाथों में (हरेक) ताकत है वह प्रभु (शरण पड़े मनुष्य के माया के सारे) बंधन काट देता है। (हे भाई! प्रभु की शरण पड़े बिना) अन्य कामों के करने से (इन बंधनों से) खलासी नहीं मिल सकती (बस! हर वक्त यह अरदास करो-) हे हरि! हे नाथ! हमारी रक्षा कर।1।

तउ सरणागति माधवे पूरन दइआल ॥ छूटि जाइ संसार ते राखै गोपाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तउ = तेरी। सरणागति = सरण+आगति, शरण आने वाला। माधवे = (मा = माया, लक्ष्मी। धव = पति) हे माधवे! हे माया के पति! हे प्रभु! दइआल = हे दया के घर! संसार ते = संसार से, संसार के मोह से। राखै = रक्षा करता है। गोपाल = सृष्टि का मालिक प्रभु।1। रहाउ।

अर्थ: हे माया के पति प्रभु! हे (सारे गुणों से) भरपूर प्रभु! हे दया के श्रोत प्रभु! (मैं) तेरी शरण आया (हूँ, मेरी संसार के मोह से रक्षा कर)। (हे भाई!) सृष्टि के पालक प्रभु (जिस मनुष्य की) रक्षा करता है, वह मनुष्य संसार के मोह से बच जाता है।1। रहाउ।

आसा भरम बिकार मोह इन महि लोभाना ॥ झूठु समग्री मनि वसी पारब्रहमु न जाना ॥२॥

पद्अर्थ: इन महि = इन्ह महि, इन में। झूठु = नाशवान, जिसके साथ सदा नहीं रह सकता। मनि = मन में। न जाना = नहीं पहचाना, सांझ नहीं डाली।2।

अर्थ: (हे भाई! दुर्भाग्यशाली जीव) दुनियावी आशाएं-वहिम-विकार-माया का मोह -इनमें ही फसा रहता है। जो माया, के साथ आखिर तक साथ नहीं निभना, वही इसके मन में टिकी रहती है, (कभी भी यह) परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता।2।

परम जोति पूरन पुरख सभि जीअ तुम्हारे ॥ जिउ तू राखहि तिउ रहा प्रभ अगम अपारे ॥३॥

पद्अर्थ: जोति = प्रकाश का श्रोत। पुरख = हे सर्व व्यापक! सभि = सारे। जीअ = जीव। रहा = रहूँ, मैं रहता हूँ, मैं रह सकता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)!।3।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे सबसे ऊँचे प्रकाश के श्रोत! हे सब गुणों से भरपूर प्रभु! हे सर्व-व्यापक प्रभु! (हम) सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं। हे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु! जैसे तू ही हमें रखता है, मैं उसी तरह ही रह सकता हूँ (माया के बंधनो से तू ही मुझे बचा सकता है)।3।

करण कारण समरथ प्रभ देहि अपना नाउ ॥ नानक तरीऐ साधसंगि हरि हरि गुण गाउ ॥४॥२७॥५७॥

पद्अर्थ: करण = जगत। करण कारण = हे जगत के रचनहार! तरीऐ = पार लांघ सकती है। साध संगि = गुरु की संगति में। गुण गाउ = गुण गाया कर।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे जगत के रचनहार प्रभु! हे सब कुछ कर सकने वाले प्रभु! (मुझे) अपना नाम बख्श। (हे भाई!) साधु-संगत में टिक के सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर, (इसी तरह ही संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।4।27।57।

बिलावलु महला ५ ॥ कवनु कवनु नही पतरिआ तुम्हरी परतीति ॥ महा मोहनी मोहिआ नरक की रीति ॥१॥

पद्अर्थ: पतरिआ = (प्रतारय = to deceive, to cheat। पतारना = बदनाम करना) धोखा खा गया, बदनाम हुआ। परतीति = ऐतबार। महा = बहुत बड़ी। मोहिआ = ठग लिया। रीति = मर्यादा, रास्ता।1।

अर्थ: हे मन! तेरा ऐतबार कर-करके किस-किस ने धोखा नहीं खाया? तू बहुत बड़ी मोहने वाली माया के मोह में फसा रहता है (और, यह) रास्ता (सीधा) नर्कों का है।1।

मन खुटहर तेरा नही बिसासु तू महा उदमादा ॥ खर का पैखरु तउ छुटै जउ ऊपरि लादा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन खुटहर = हे खोटे मन! बिसासु = ऐतबार। उदमादा = उन्माद में, मस्त हुआ। खर = गधा। पैखरु = पिछाड़ी, वह रस्सी जो गधे के पिछले पैरों के साथ बाँध कर खूँटे के साथ बँधी होती है। तउ छुटै = तब खुलता है। जउ = जब।1। रहाउ।

अर्थ: हे खोटे मन! तेरा ऐतबार नहीं किया जा सकता, (क्योंकि) तू (माया के नशे में) बहुत मस्त रहता है। (जैसे) गधे की पिछाड़ी तब खोली जाती है, जब उसे ऊपर से लाद लिया जाता है (वैसे ही) तुझे भी खरमस्ती करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए।1। रहाउ।

जप तप संजम तुम्ह खंडे जम के दुख डांड ॥ सिमरहि नाही जोनि दुख निरलजे भांड ॥२॥

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को रोक के रखने का यत्न। खंडे = नाश कर दिए, तोड़ दिए। डांड = दण्ड। सिमरि नाही = तू याद नहीं करता, तुझे भूल गए हैं। निरजल = बेशर्म। भांड = हे भांड!।2।

अर्थ: हे मन! तू जप-तप-संजम (आदि भले कामों के नियम) तोड़ देता है, (इस करके) जमराज के दुख और दण्ड सहता है। हे बेशर्म भांड! तू जनम-मरण के चक्कर के दुख याद नहीं करता।2।

हरि संगि सहाई महा मीतु तिस सिउ तेरा भेदु ॥ बीधा पंच बटवारई उपजिओ महा खेदु ॥३॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = सहायक, मददगार। सिउ = साथ, से। भेदु = अलग, दूरी, असमानता। बीधा = भेद डाला। बटवारई = बटवारियों ने, लुटेरों ने। पंच = कामादिक पाँच। खेदु = दुख-कष्ट।3।

अर्थ: हे मन! परमात्मा (ही सदा) तेरे साथ है, तेरा मददगार है तेरा मित्र है, उससे तेरी दूरी बनी हुई है। तुझे (कामादिक) पाँच लुटेरों ने अपने वश में कर रखा है (जिसके कारण तेरे अंदर) बड़ा दुख-कष्ट बना रहता है।3।

नानक तिन संतन सरणागती जिन मनु वसि कीना ॥ तनु धनु सरबसु आपणा प्रभि जन कउ दीन्हा ॥४॥२८॥५८॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! वसि = वश में। कीना = किया हुआ है। सरबसु = (सर्वस्व। सर्व = सारा। स्व = धन) सब कुछ। प्रभि = प्रभु ने। कउ = को। दीना = दीन्हा, दिया।4।

अर्थ: हे नानक! जिस संत जनों ने (अपना) मन (अपने) वश में कर लिया है, जिस जनों को प्रभु ने (यह दाति) दी है, उनकी शरण पड़ना चाहिए। अपना तन, अपना धन, सब कुछ उन संत जनों के सदके करना चाहिए।4।28।58।

बिलावलु महला ५ ॥ उदमु करत आनदु भइआ सिमरत सुख सारु ॥ जपि जपि नामु गोबिंद का पूरन बीचारु ॥१॥

पद्अर्थ: सुख सारु = सुखों का तत्व, सबसे श्रेष्ठ सुख। जपि = जप के।1।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम जपने का) उद्यम करते हुए (मन में) सरूर पैदा हो है, नाम स्मरण करते हुए सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। परमात्मा का नाम बारंबार जप-जप के सब गुणों से भरपूर परमात्मा के गुणों का विचार (मन में टिका रहता है)।1।

चरन कमल गुर के जपत हरि जपि हउ जीवा ॥ पारब्रहमु आराधते मुखि अम्रितु पीवा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। हउ = मैं। जीवा = मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। जपते = स्मरण करते हुए। मुखि = मुँह से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीवा = पीऊँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु के सुंदर चरणों का ध्यान धर के, परमात्मा की आराधना करते हुए, परमात्मा का नाम जप-जप के, (ज्यों-ज्यों) मैं मुँह से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता हूँ, (त्यों-त्यों) मुझे आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।1। रहाउ।

जीअ जंत सभि सुखि बसे सभ कै मनि लोच ॥ परउपकारु नित चितवते नाही कछु पोच ॥२॥

पद्अर्थ: जीअ = जीव। सभि = सारे। सुखि = सुख में। कै मनि = के मन में। पर उपकारु = दूसरों की भलाई का काम। पोच = पाप।2।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की आराधना करते हुए) सारे जीव-जंतु आत्मिक आनंद में लीन रहते हैं, (जपने वाले) सबके मनों में (स्मरण करने की) तमन्ना पैदा हुई रहती है। (जो-जो मनुष्य नाम जपते हैं, वे) सदा दूसरों की भलाई करने का काम सोचते रहते हैं, कोई पाप-विकार उन पर अपना असर नहीं डाल सकता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh