श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धंनु सु थानु बसंत धंनु जह जपीऐ नामु ॥ कथा कीरतनु हरि अति घना सुख सहज बिस्रामु ॥३॥

पद्अर्थ: धंनु = धन्य, भाग्यशाली। बसंत = बसने वाले। जह = जहाँ। जपीऐ = जपा जाता है। अति घना = बहुत ज्यादा। सहज बिस्रामु = आत्मिक अडोलता का ठिकाना।3।

अर्थ: हे भाई! जिस जगह पर परमात्मा का नाम जपा जाता है, वह जगह भाग्यशाली हो जाती है, वहाँ बसने वाले भी भाग्यशाली बन जाते हैं (क्योंकि जिस जगह) परमात्मा की कथा-वार्ता, प्रभु की महिमा बहुत होती रहे, वह जगह आत्मिक आनंद का, आत्मिक अडोलता का ठिकाना (श्रोत) बन जाता है।3।

मन ते कदे न वीसरै अनाथ को नाथ ॥ नानक प्रभ सरणागती जा कै सभु किछु हाथ ॥४॥२९॥५९॥

पद्अर्थ: ते = से। को = का। अनाथ को नाथ = निखसमों का खसम। जा कै हाथ = जिसके वश में।4।

अर्थ: (इस वास्ते) हे नानक! (कह: हे भाई!) वह अनाथों का नाथ प्रभु कभी मन से भूलना नहीं चाहिए, उस प्रभु की शरण सदा पड़े रहना चाहिए, जिसके हाथ में सब कुछ है।4।29।59।

बिलावलु महला ५ ॥ जिनि तू बंधि करि छोडिआ फुनि सुख महि पाइआ ॥ सदा सिमरि चरणारबिंद सीतल होताइआ ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तू = तुझे। बंधि करि छोडिआ = बाँध के रखा हुआ था (माँ के पेट में)। फुनि = फिर (माँ के पेट में से निकाल के)। चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरविंद = कमल का फूल) कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। शीतल = शांत चिक्त। होताइआ = हो जाते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे (पहले माँ के पेट में) बाँध के रखा हुआ था, फिर (माँ के पेट में से निकाल के जगत में ला के जगत के) सुखों में ला फसाया है, उसके सुंदर चरण सदा स्मरण करता रह। (इस तरह सदा) शांत-चिक्त रह सकते हैं।1।

जीवतिआ अथवा मुइआ किछु कामि न आवै ॥ जिनि एहु रचनु रचाइआ कोऊ तिस सिउ रंगु लावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अथवा = और। जीवतिआ = जीते जी, इस लोक में। मुइआ = मरणोंपरांत, परलोक में। कामि = काम। तिस कोऊ = कोई विरला। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! जो माया) इस लोक में और परलोक में कहीं भी साथ नहीं निभाती (जीव सदा ही उसके साथ मोह डाले रखता है)। जिस परमात्मा ने ये सारा जगत पैदा किया है, उसके साथ कोई विरला मनुष्य ही प्यार बनाता है।1। रहाउ।

रे प्राणी उसन सीत करता करै घाम ते काढै ॥ कीरी ते हसती करै टूटा ले गाढै ॥२॥

पद्अर्थ: उसन = गरमी। सीत = ठंडक। करता = कर्तार। घाम ते = तपश से। कीरी = कीड़ी। ते = से। हस्ती = हाथी। ले = ले कर (अपने चरणों के साथ लगा कर)।2।

अर्थ: हे भाई! (विकारों की) गर्मी और (नाम की) ठंडक परमात्मा स्वयं ही बनाता है, वह (खुद ही विकारों की) तपश में से निकालता है। वह प्रभु कीड़ी (नाचीज जीव से) हाथी (विशालकाय आदर सम्मान वाला) बना देता है, (अपने चरणों से) टूटे हुए जीव को वह खुद ही (बाँह से) पकड़ कर (अपने चरणों से) बाँध लेता है (उसीकी शरण पड़ा रह)।2।

अंडज जेरज सेतज उतभुजा प्रभ की इह किरति ॥ किरत कमावन सरब फल रवीऐ हरि निरति ॥३॥

पद्अर्थ: अंडज = अण्डे से पैदा हुए जीव, (पंछी आदि)। जेरज = जिउर से पैदा हुए (मनुष्य और पशू)। सेतज = (सैत = पसीना) पसीने से पैदा हुए (जूआँ आदि)। उतभुजा = पानी की मदद से धरती में से पैदा हुए (बनस्पति)। किरति = रचना। निरति = (नि+रति। रति = प्यार, मोह) निर्मोही हो के।3।

अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) अंडे से पैदा हुए जीव, जिओर से पैदा हुए जीव, पसीने से पैदा हुए जीव, सारी बनस्पति - ये सारी परमात्मा की ही पैदा की हुई रचना है। उस परमात्मा का नाम (इस रचना से) निर्मोह रह के स्मरणा चाहिए- ये कमाई करने से (जीवन के) सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं।3।

हम ते कछू न होवना सरणि प्रभ साध ॥ मोह मगन कूप अंध ते नानक गुर काढ ॥४॥३०॥६०॥

पद्अर्थ: हम ते = हम (जीवों) से। प्रभ = हे प्रभु! सरणि साध = गुरु की शरण (रख)। मगन = डूबे हुए। कूप = कूआँ। अंध = अंधा। गुर = हे गुरु!।4।

अर्थ: हे प्रभु! हम जीवों से तो कुछ भी नहीं हो सकता (हमें) गुरु की शरण डाले रख। हे नानक! (अरदास किया कर-) हे गुरु! हम जीव माया के मोह में डूबे रहते हैं, (हमें मोह के इस) अंधेरे कूएं में से निकाल ले।4।3।60।

बिलावलु महला ५ ॥ खोजत खोजत मै फिरा खोजउ बन थान ॥ अछल अछेद अभेद प्रभ ऐसे भगवान ॥१॥

पद्अर्थ: फिरा = फिरूँ, मैं फिरता हूँ। खोजउ = खोजूँ। थान = (अनेक) जगहें। अछेद = जिसका नाश ना हो सके, अ+छेद।1।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु को) ढूँढता-ढूँढता मैं (हर तरफ़) फिरता रहता हूँ, मैं कई जंगल, अनेक जगहों में खोजता फिरता हूँ (पर मुझे प्रभु कहीं भी नहीं मिलता। मैंने सुना है कि वह) भगवान प्रभु जी ऐसे हैं कि उनको माया छल नहीं सकती, वे नाश-रहित हैं, और उनका भेद नहीं पाया जा सकता।1।

कब देखउ प्रभु आपना आतम कै रंगि ॥ जागन ते सुपना भला बसीऐ प्रभ संगि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कब = कब? देखउ = देखूँ। कै रंगि = के रंग में। बसीऐ = अगर बस सकें।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! मुझे हर वक्त ये तमन्ना रहती है कि) अपनी जीवात्मा के चाव से कब मैं अपने (प्यारे) प्रभु को देख सकूँगा। (यदि रात को सोए हुए सपने में भी) प्रभु के साथ बस सकें, तो इस जागते रहने से बेहतर (सोए हुए का वह) सपना भला है।1। रहाउ।

बरन आस्रम सासत्र सुनउ दरसन की पिआस ॥ रूपु न रेख न पंच तत ठाकुर अबिनास ॥२॥

पद्अर्थ: बरन = चार वर्ण (ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। आस्रम = चार आश्रम (ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास)। सुनउ = सुनूँ।2।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन करने के लिए) मैं चारों वर्णों और चारों आश्रमों के कर्म करता हूँ, शास्त्रों (के उपदेश भी) सुनता हूँ (पर, दर्शन नहीं होते) दर्शनों की लालसा बनी ही रहती है। (हे भाई!) उस अविनाशी ठाकुर प्रभु का ना कोई रूप, चिन्ह-चक्र है और ना ही वह (जीवों की तरह) पाँच तत्वों का ही बना हुआ है।2।

ओहु सरूपु संतन कहहि विरले जोगीसुर ॥ करि किरपा जा कउ मिले धनि धनि ते ईसुर ॥३॥

पद्अर्थ: कहहि = कहते हैं, बताते हैं। जोगीसुर = (जोगी+ईसुर) जोगी राज। करि = कर के। जा कउ = जिस को। ते = वह (बहुवचन)। ईसुर = बड़े मनुष्य।3।

अर्थ: (हे भाई!) कृपा करके प्रभु स्वयं ही जिनको मिलता है, वह महान जोगी हैं वह बहुत भाग्यवान हैं। वे विरले जोगीराज ही वे संत जन ही (उस प्रभु का) वह स्वरूप बयान करते हैं (कि उसका कोई रूप-रेख नहीं है)।3।

सो अंतरि सो बाहरे बिनसे तह भरमा ॥ नानक तिसु प्रभु भेटिआ जा के पूरन करमा ॥४॥३१॥६१॥

पद्अर्थ: अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। बाहरे = बाहरि, सब से अलग। तह = वहाँ, उसमें (टिकने से)। भेटिआ = मिला। तिसु = उस (मनुष्य) को। करमा = भाग्य।4।

अर्थ: (हे भाई! विरले संतजन ही बताते हैं कि) वह प्रभु सब जीवों के अंदर बसता है, और वह सबसे अलग भी है, उस प्रभु के चरणों में जुड़ने से सारे भ्रम-वहिम नाश हो जाते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग उठते हैं उसको वह प्रभु (स्वयं ही) मिल जाता है।4।31।61।

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जंत सुप्रसंन भए देखि प्रभ परताप ॥ करजु उतारिआ सतिगुरू करि आहरु आप ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ जंत = (वह) सारे जीव। सुप्रसंन = बहुत प्रसन्न, निहाल। देखि = देख के। परताप = प्रताप, बड़ाई। करजु = कर्जा, विकारों का भार। करि = कर के। आहरु = उद्यम।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु ने स्वयं उद्यम करके (जिस-जिस जीव को गुरु-शब्द की दाति दे के उनके सिर पर पिछले जन्मों के किए हुए) विकारों का कर्जा (भार) उतार दिया, वे सारे जीव परमात्मा की साक्षात महानता देख के निहाल हो जाते हैं।1।

खात खरचत निबहत रहै गुर सबदु अखूट ॥ पूरन भई समगरी कबहू नही तूट ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: खात = खाते हुए। खरचत = बाँटते हुए। निबहत रहै = निर्वाह होता है, उम्र बीतती रहती है। अखूट = कभी ना खत्म होने वाली। समगरी = (कोई स्वादिष्ट पकवान बनाने के लिए आवश्यक) रसद, सामग्री। पूरन भई = जरूरत के मुताबिक पूरी हो जाती है। तूट = तोटि, कमी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द (आत्मिक जीवन के प्रफुल्लित होने के लिए एक ऐसा भोजन है जो) कभी समाप्त नहीं होता। (जिस मनुष्य की उम्र यह भोजन खुद) खाते हुए (और, और लोगों को) बाँटते हुए गुजरती है, उसके पास (इस) सामग्री के भण्डार भरे रहते हैं, (इस सामग्री में) कभी भी कमी नहीं आती।1। रहाउ।

साधसंगि आराधना हरि निधि आपार ॥ धरम अरथ अरु काम मोख देते नही बार ॥२॥

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। निधि = खजाना। आपार = बेअंत। अरु = और। बार = समय।2।

अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई!) गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, ये एक ऐसा खजाना है जो कभी समाप्त नहीं होता। (दुनिया में) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (ये चार ही प्रसिद्ध अमूल्य पदार्थ माने गए हैं। जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, परमात्मा उसको ये पदार्थ) देते हुए समय नहीं लगाता।2।

भगत अराधहि एक रंगि गोबिंद गुपाल ॥ राम नाम धनु संचिआ जा का नही सुमारु ॥३॥

पद्अर्थ: अराधहि = स्मरण करते हैं। रंगि = प्रेम में। संचिआर = संचित कर लिया, इकट्ठा कर लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = शुमार, अंदाजा।3।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद गोपाल के भक्त एक-रस प्रेम-रंग में टिक के उसका नाम स्मरण करते हैं। वह मनुष्य परमात्मा के नाम का धन (इतना) इकट्ठा करते रहते हैं कि उसका अंदाजा नहीं लग सकता।3।

सरनि परे प्रभ तेरीआ प्रभ की वडिआई ॥ नानक अंतु न पाईऐ बेअंत गुसाई ॥४॥३२॥६२॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गुसाई = धरती का पति।4।

अर्थ: हे प्रभु! (तेरे भक्त तेरी कृपा से) तेरी शरण पड़े रहते हैं। (हे भाई! प्रभु के भक्त) प्रभु की महिमा ही करते रहते हैं। हे नानक! जगत के पति प्रभु के गुण बेअंत हैं, उनका अंत नहीं पाया जा सकता।4।32।62।

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि पूरन प्रभू कारज भए रासि ॥ करतार पुरि करता वसै संतन कै पासि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। पूरन = सारे गुणों से भरपूर। कारज = (सारे) काम। भए रासि = सफल हो जाते हैं। करतार पुरि = कर्तार के शहर में, उस स्थान में जहाँ कर्तार सदा बसता है, साधसंगति में। करता = परमात्मा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में परमात्मा (स्वयं) बसता है, अपने संतजनों के अंग संग बसता है। (साधु-संगत में) सारे गुणों से भरपूर प्रभु (का नाम) स्मरण कर-कर के (मनुष्य के) सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

बिघनु न कोऊ लागता गुर पहि अरदासि ॥ रखवाला गोबिंद राइ भगतन की रासि ॥१॥

पद्अर्थ: बिघनु = रुकावट। कोऊ = कोई भी। पहि = पास। राइ = राजा। रासि = राशि।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु पातशाह अपने संत जनों का (हमेशा) स्वयं रखवाला है, प्रभु (का नाम) संत जनों की राशि-पूंजी है। (जो भी मनुष्य साधु-संगत में आ के) गुरु के दर पर अरदास करते रहते हैं, (उनकी जिंदगी के रास्ते में) कोई रुकावट पैदा नहीं होती।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh