श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 817 तोटि न आवै कदे मूलि पूरन भंडार ॥ चरन कमल मनि तनि बसे प्रभ अगम अपार ॥२॥ पद्अर्थ: तोटि = कमी। न मूलि = बिल्कुल नहीं। पूरन = भरे हुए। भंडार = खजाने। मनि = मन में। तनि = तन में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत।2। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत एक ऐसा स्थान है जहाँ बख्शिशों के) भण्डारे भरे रहते हैं, (वहाँ इस बख्शिशों की) कभी भी कमी नहीं आती। (जो भी मनुष्य साधु-संगत में निवास रखता है, उसके) मन में (उसके) हृदय में अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु के सुंदर चरण टिके रहते हैं।2। बसत कमावत सभि सुखी किछु ऊन न दीसै ॥ संत प्रसादि भेटे प्रभू पूरन जगदीसै ॥३॥ पद्अर्थ: बसत = (साधसंगति में, कर्तार के शहर में) बसते हुए। सभि = सारे। ऊन = कमी, घाटा। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। भेटे = मिल जाते हैं। जगदीसै = जगत का मालिक।3। अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य साधु-संगत में) निवास रखते हैं और नाम-जपने की कमाई करते हैं, वे सारे सुखी रहते हैं, उन्हें किसी बात की कोई कमी नहीं दिखती। गुरु की कृपा से उनको जगत के मालिक पूर्ण प्रभु जी मिल जाते हैं।3। जै जै कारु सभै करहि सचु थानु सुहाइआ ॥ जपि नानक नामु निधान सुख पूरा गुरु पाइआ ॥४॥३३॥६३॥ पद्अर्थ: जै जैकारु = शोभा गुणगान, बड़ाई। करहि = करते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सुहाइआ = सुंदर। जपि = जप के। निधान सुख = सुखों के खजाने।4। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में टिकते हैं) सारे लोक (उनकी) शोभा-बड़ाई करते हैं। साधु-संगत एक ऐसा सुंदर स्थान है जो सदा कायम रहने वाला है। हे नानक! (साधु-संगत की इनायत से) सारे सुखों के खजाने हरि-नाम को जप के पूरे गुरु का (सदा के लिए) मिलाप हासिल कर लेते हैं।4।33।63। बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ होईऐ आरोग ॥ रामचंद की लसटिका जिनि मारिआ रोगु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आराधीऐ = आराधना करनी चाहिए। होईऐ = हुआ जाता है। आरोग = आरोग्य, रोग रहित। लसटीका = लाठी, छड़ी, राज दण्ड। जिनि = जिस (हरि की आराधना) ने। मारिआ = समाप्त कर दिया।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, (नाम-जपने की इनायत से विकार आदि) रोगों से रहित हुआ जाता है। ये नाम-जपना ही श्री रामचंद्र जी की छड़ी है (जिस छड़ी के भय से कोई दुष्ट सिर नहीं उठा सकता था)। इस (स्मरण) ने (हरेक स्मरण करने वाले के अंदर से हरेक) रोग दूर कर दिया है।1। रहाउ। गुरु पूरा हरि जापीऐ नित कीचै भोगु ॥ साधसंगति कै वारणै मिलिआ संजोगु ॥१॥ पद्अर्थ: जापीऐ = जपना चाहिए। नित = सदा। कीचै = कर सकते हैं। भोगु = आत्मिक आनंद। कै वारणै = से सदके। संजोग = मिलाप के अवसर।1। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ना चाहिए और प्रभु का नाम जपना चाहिए। (इस तरह) सदा आत्मिक आनंद भोग सकते हैं। गुरु की संगति से कुर्बान जाना चाहिए (साधु-संगत की कृपा से) परमात्मा के मिलाप के अवसर बनते हैं।1। जिसु सिमरत सुखु पाईऐ बिनसै बिओगु ॥ नानक प्रभ सरणागती करण कारण जोगु ॥२॥३४॥६४॥ पद्अर्थ: पाईऐ = पा लेते हैं। बिओगु = वियोग, विछोड़ा। सरणागती = शरण पड़ना चाहिए। जोगु = योग्य, समर्थ। करण कारण जोगु = जगत की रचना करने के समर्थ।2। अर्थ: हे नानक! उस प्रभु की शरण पड़े रहना चाहिए, जो जगत की रचना करने के समर्थ है, जिसका स्मरण करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है और प्रभु से विछोड़ा दूर हो जाता है।2।34।64। नोट: ये ऊपर दिए हुए शबदों का संग्रह 34 शबदों का है। इसमें पहले 33 चौपदे (चार पदों वाले शब्द) हैं, आखिरी शब्द दो पदों वाला है। रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अवरि उपाव सभि तिआगिआ दारू नामु लइआ ॥ ताप पाप सभि मिटे रोग सीतल मनु भइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अवरि = और सारे। उपाव = प्रयत्न। सभि = सारे। दारू = दवा। सीतल = शांति। भइआ = भया, हो गया।1। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने सिर्फ गुरु का पल्ला पकड़ा है, अन्य सारे हीले-वसीले छोड़ दिए हैं और परमात्मा का नाम (की ही) दवा बरती है, उसके सारे दुख-कष्ट, सारे पाप, सारे रोग मिट गए हैं; उसका मन (विकारों की तपश से बच के) ठंडा-ठार हुआ है।1। गुरु पूरा आराधिआ सगला दुखु गइआ ॥ राखनहारै राखिआ अपनी करि मइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आराधिआ = हृदय में बसाया। सगला = सारा। राखनहारै = रक्षा कर सकने वाले प्रभु ने। करि = कर के। मइआ = दया।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को अपने दिल में बसाए रखता है, उसका सारा दुख-कष्ट दूर हो जाता है, (क्योंकि) रक्षा करने के समर्थ परमात्मा ने (उस पर) कृपा करके (दुख-कष्टों से सदा) उसकी रक्षा की है।1। रहाउ। बाह पकड़ि प्रभि काढिआ कीना अपनइआ ॥ सिमरि सिमरि मन तन सुखी नानक निरभइआ ॥२॥१॥६५॥ नोट: दुपदे = दो पदों व दो बंदों वाले शब्द। पद्अर्थ: पकड़ि = पकड़ के। प्रभि = प्रभु ने। अपनइआ = अपना। सिमरि = स्मरण करके। निरभइआ = निर्भय।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु को अपने हृदय में बसाया है) प्रभु ने (उसकी) बाँह पकड़ के उसको अपना बना लिया है। हे नानक! प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के उसका मन उसका हृदय आनंद-भरपूर हो गया है, और उसको (ताप-पाप रोग आदि का) कोई डर नहीं रह जाता।2।1।65। बिलावलु महला ५ ॥ करु धरि मसतकि थापिआ नामु दीनो दानि ॥ सफल सेवा पारब्रहम की ता की नही हानि ॥१॥ पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। धारि = धार के। मसतकि = माथे पर। थापिआ = थापी देनी, आर्शिवाद देना, हल्लाशेरी देनी। दानि = दान के तौर पर। ता की = उस (सेवा) की। हानि = नुकसान।1। अर्थ: हे भाई! (प्रभु अपने भक्तजनों के) माथे पर (अपना) हाथ रख के उनको आर्शिवाद देता है और बख्शिश के तौर पर (उनको अपना) नाम देता है। हे भाई! परमात्मा की की हुई सेवा-भक्ति जीवन का लक्ष्य पूरा करती है, ये की हुई सेवा-भक्ती व्यर्थ नहीं जाती।1। आपे ही प्रभु राखता भगतन की आनि ॥ जो जो चितवहि साध जन सो लेता मानि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आपे = खुद ही। आनि = सत्कार, इज्जत। चितवहि = मन में धारते हैं। लेता मानि = मान लेता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने भक्तों की इज्जत परमात्मा खुद ही बचाता है। परमात्मा के भक्त जो कुछ अपने मन में धारते हैं, परमात्मा वही कुछ मान लेता है।1। रहाउ। सरणि परे चरणारबिंद जन प्रभ के प्रान ॥ सहजि सुभाइ नानक मिले जोती जोति समान ॥२॥२॥६६॥ पद्अर्थ: चरणारबिंद = (चरण+अरबिंद। अरबिंद = कमल का फूल) कमल जैसे सुंदर चरण। प्रान = जिंद (जैसे प्यारे)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। समान = लीन हो जाती है। जोती = परमात्मा।2। अर्थ: हे भाई! जो संतजन प्रभु के सुंदर चरण-कमलों का आसरा लेते हैं, वे प्रभु को प्राणों के समान प्यारे हो जाते हैं। हे नानक! वह संत जन आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम में टिक के प्रभु के साथ मिल जाते हैं। उनकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है।2।2।66। नोट: दो बंदों वाले शबदों के इस नए संग्रह का ये दूसरा शब्द है। बिलावलु महला ५ ॥ चरण कमल का आसरा दीनो प्रभि आपि ॥ प्रभ सरणागति जन परे ता का सद परतापु ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। ता का = (प्रभु) का।1। अर्थ: हे भाई! (जिस सेवकों को साधु-संगत में) प्रभु ने खुद अपने सुंदर चरण-कमलों का आसरा दिया है, वह सेवक उसका सदा कायम रहने वाला प्रताप देख के उसकी शरण पड़े रहते हैं।1। राखनहार अपार प्रभ ता की निरमल सेव ॥ राम राज रामदास पुरि कीन्हे गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राखनहार = रक्षा करने की समर्थता वाला। ता की सेव = उस (प्रभु) की सेवा-भक्ति। निरमल = पवित्र। रामदास पुरि = राम के दासों के शहर में, सत्संगियों के टिकने वाली जगह में, साधु-संगत में। राम राज = रूहानी राज।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु ने साधु-संगत में रूहानी राज कायम कर दिया है। प्रभु बेअंत और रक्षा करने में समर्थ है, (साधु-संगत में टिक के की हुई) उसकी सेवा-भक्ति (जीवन को) पवित्र (बना देती है)।1। रहाउ। सदा सदा हरि धिआईऐ किछु बिघनु न लागै ॥ नानक नामु सलाहीऐ भइ दुसमन भागै ॥२॥३॥६७॥ पद्अर्थ: सालाहीऐ = सराहना करनी चाहिए। भाइ = भय, (नाम से) डर से।2। अर्थ: हे नानक! (साधु-संगत में टिक के) सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए (इस तरह जीवन के रास्ते में) कोई रुकावट नहीं पड़ती। परमात्मा के नाम की बड़ाई करनी चाहिए (प्रभु के) डर के कारण (कामादिक) सारे वैरी भाग जाते हैं।2।3।67। बिलावलु महला ५ ॥ मनि तनि प्रभु आराधीऐ मिलि साध समागै ॥ उचरत गुन गोपाल जसु दूर ते जमु भागै ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आराधीऐ = आराधना चाहिए। मिलि = मिल के। साध समागै = साध समागम में, साधु-संगत में। उचरत = उचरते हुए। जसु = यश, महिमा। ते = से।1। अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में मिल के मन से हृदय से परमात्मा के नाम की आराधना करते रहना चाहिए। जगत के रक्षक प्रभु के गुण और यश उचारने से जम (भी) दूर से ही भाग जाता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |