श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राम नामु जो जनु जपै अनदिनु सद जागै ॥ तंतु मंतु नह जोहई तितु चाखु न लागै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। सद = सदा। जागै = (विकारों की ओर से) सचेत रहते हैं। तंतु मंतु = जादू टूणा। जोहई = जोहै, देख सकता, असर कर सकता। तितु = उस (मनुष्य) पर। चाखु = चक्षु, बुरी नज़र।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता रहता है, वह हर वक्त सदा (विकारों से) सचेत रहता है। कोई जादू-टूणा उस पर असर नहीं कर सकता, कोई बुरी नजर उसको नहीं लग सकती।1। रहाउ।

काम क्रोध मद मान मोह बिनसे अनरागै ॥ आनंद मगन रसि राम रंगि नानक सरनागै ॥२॥४॥६८॥

पद्अर्थ: मद मान = अहंकार की मस्ती। मद = मस्ती। अन रागै = अन्य के मोह प्यार में। मगन = मस्त। रसि = रस में, स्वाद में। रंगि = प्रेम में।2।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के रस में टिका रहता है, प्रभु के प्रेम में मस्त रहता है, प्रभु की शरण पड़ा रहता है, वह सदा आत्मिक आनंद में मस्त रहता है। (उसके अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार की मस्ती, मोह और-और पदार्थों के चस्के सब नाश हो जाते हैं।2।4।68।

बिलावलु महला ५ ॥ जीअ जुगति वसि प्रभू कै जो कहै सु करना ॥ भए प्रसंन गोपाल राइ भउ किछु नही करना ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ जुगति = जीवों का जिंदगी गुजारने का ढंग। वसि = वश में। कै वसि = के बस में। कहै = कहता है, प्रेरित करता है। गोपाल राइ = जगत का मालिक पातशाह। भउ = डर।1।

अर्थ: हे भाई! हम जीवों की जीवन-जु्रगति परमात्मा के वश में है, जो कुछ करने के लिए वह हमें प्रेरित करता है वही हम कर सकते हैं। जिस मनुष्य पर जगत-पालक पातशाह दयावान होता है, उसे किसी से डरने की आवश्यक्ता नहीं रह जाती।1।

दूखु न लागै कदे तुधु पारब्रहमु चितारे ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई गुरसिख पिआरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चितारे = चिक्त में बसाए रख। जम कंकरु = जम का सेवक, जम दूत। आवई = आए, आता। गुर सिख = हे गुरु के सिख! पिआरे = हे प्यारे!।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे गुरसिख! परमात्मा को अपने चिक्त में बसाए रख। तुझे कभी भी कोई दुख छू नहीं सकेगा, (दुख तो कहीं रहे) जमदूत (भी) तेरे नजदीक नहीं आएगा।1। रहाउ।

करण कारण समरथु है तिसु बिनु नही होरु ॥ नानक प्रभ सरणागती साचा मनि जोरु ॥२॥५॥६९॥

पद्अर्थ: करण = जगत। कारण = मूल। करण कारण समरथु = जगत की रचना करने के ताकत रखने वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। मनि = मन में। जोरु = ताकत, बल, आसरा।2।

अर्थ: हे नानक! प्रभु ही जगत की रचना करने की ताकत वाला है, उसके बिना कोई और (इस प्रकार की सामर्थ्य वाला) नहीं है। हम जीव उस प्रभु की शरण में ही रह सकते हैं, (हमारे) मन में उसी का ही सदा कायम रहने वाला आसरा है।2।5।69।

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु आपना नाठा दुख ठाउ ॥ बिस्राम पाए मिलि साधसंगि ता ते बहुड़ि न धाउ ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। नाठा = भाग गया। दुख ठाउ = दुखों की जगह। बिस्राम = विश्राम, ठिकाना। मिलि = मिल के। साध संगि = गुरु की संगति में। ता ते = उस (साधु-संगत) से। बाहुड़ि = दोबारा। न धाउ = मैं नहीं दौड़ता।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के मैंने प्रभु के चरणों में निवास हासिल कर लिया है (इस वास्ते) उस (साधु-संगत) से कभी परे नहीं भागता। (गुरु की संगति की इनायत से) मैं अपने प्रभु का हर वक्त स्मरण करके (ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ कि मेरे अंदर से) दुखों का ठिकाना ही दूर हो गया है।1।

बलिहारी गुर आपने चरनन्ह बलि जाउ ॥ अनद सूख मंगल बने पेखत गुन गाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बलिहारी = कुर्बान। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। पेखत = दर्शन करके। गाउ = मैं गाता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, मैं (अपने गुरु के) चरणों से सदके जाता हूँ। गुरु के दर्शन करके मैं प्रभु की महिमा के गीत गाता हूँ, और मेरे अंदर सारे आनंद, सारे सुख सारे चाव-हिल्लोरे बने रहते हैं।1। रहाउ।

कथा कीरतनु राग नाद धुनि इहु बनिओ सुआउ ॥ नानक प्रभ सुप्रसंन भए बांछत फल पाउ ॥२॥६॥७०॥

पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, सुर, लगन। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य। सुप्रसन्न = बहुत खुश। पाउ = पाऊँ, मैं पा रहा हूँ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की कृपा से) प्रभु की कथा-कहानियाँ, कीर्तन, महिमा की लगन - यही मेरी जिंदगी का निशाना बन गए हैं। (गुरु की मेहर से) प्रभु जी (मेरे पर) बहुत खुश हो गए हैं, मैं अब मन-माँगा फल प्राप्त कर रहा हूँ।2।6।70।

बिलावलु महला ५ ॥ दास तेरे की बेनती रिद करि परगासु ॥ तुम्हरी क्रिपा ते पारब्रहम दोखन को नासु ॥१॥

पद्अर्थ: रिद = हृदय में। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। ते = से, साथ। पारब्रहम = हे परमात्मा! दोख = ऐब, विकार। दोखन को = विचारों का।1।

अर्थ: हे पारब्रहम! (मैं तेरा दास हूँ) तेरे दास की (तेरे दर पर) आरजू है कि मेरे हृदय में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश कर (ता कि) तेरी कृपा से (मेरे अंदर से) विकारों का नाश हो जाए।1।

चरन कमल का आसरा प्रभ पुरख गुणतासु ॥ कीरतन नामु सिमरत रहउ जब लगु घटि सासु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! पुरख = हे सर्व व्यापक! गुणतासु = गुणों का बर्तन। रहउ = रहूँ। सिमरत रहउ = मैं स्मरण करता रहूँ। घटि = (मेरे) शरीर में। सासु = सांस।1। रहाउ।

अर्थ: हे सर्व-व्यापक प्रभु! तू (ही) सारे गुणों का खजाना है। मुझे (तेरे) ही सुंदर चरणों का आसरा है। (मुझ पर मेहर कर) जब तक (मेरे) शरीर में सांस (चल रही है), मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ, तेरी महिमा करता रहूँ।1। रहाउ।

मात पिता बंधप तूहै तू सरब निवासु ॥ नानक प्रभ सरणागती जा को निरमल जासु ॥२॥७॥७१॥

पद्अर्थ: मात = माता। बंधप = रिश्तेदार। सरब = सारे जीवों में। जा को = जिस (प्रभु) का। जासु = जस, महिमा। निरमलु = पवित्र।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है, तू ही मेरा साक-संबंधी है, तू सारे ही जीवों में बसता है। हे नानक! जिस प्रभु की महिमा (जीवन) पवित्र कर देती है, उसकी शरण पड़े रहना चाहिए।2।7।71।

बिलावलु महला ५ ॥ सरब सिधि हरि गाईऐ सभि भला मनावहि ॥ साधु साधु मुख ते कहहि सुणि दास मिलावहि ॥१॥

पद्अर्थ: सरब सिधि हरि = सारी ही सिद्धियों का मालिक परमात्मा। गाईऐ = (अगर) महिमा करते रहें। सभि = सारे लोक। भला मनावहि = भला मांगते हैं। साधु = भले मनुष्य, गुरमुख। ते = से। कहहि = कहते हैं। सुण = सुन के। मिलावहि = मिलते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! सारी सिद्धियों के मालिक प्रभु की महिमा करते रहना चाहिए, (जो मनुष्य महिमा करता है) सारे लोग (उसकी) सुख मांगते हैं। मुँह से (सभी लोग उसे) गुरमुखि गुरमुखि कहते हैं, (उसके वचन) सुन के सेवक भाव से उसके चरणों में लगते हैं।1।

सूख सहज कलिआण रस पूरै गुरि कीन्ह ॥ जीअ सगल दइआल भए हरि हरि नामु चीन्ह ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। रस = स्वाद। पूरै गुरि = पूरे गुरु ने। जीअ लगन = सारे जीवों पर। दइआल = दयावान। चीन्ह = चीन्ह, (जो मनुष्य) पहचानता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता के सुख आनंद रस बख्श दिए, वह मनुष्य सदा परमात्मा के साथ सांझ डाले रखता है और (परमात्मा को सर्व-व्यापक जानता हुआ) सारे जीवों पर दयावान रहता है।1। रहाउ।

पूरि रहिओ सरबत्र महि प्रभ गुणी गहीर ॥ नानक भगत आनंद मै पेखि प्रभ की धीर ॥२॥८॥७२॥

पद्अर्थ: पूरि रहिओ = भरपूर है, मौजूद है। सरबत्र महि = सबमें। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, अथाह। आनंद मै = आनंद मय, आनंद भरपूर। पेखि = देख के। धीर = आसरा।2।

अर्थ: हे नानक! (प्रभु की महिमा करने वाले) भक्त-जन प्रभु का आसरा देख के सदा आनंद-भरपूर रहते हैं, (उन्हें) निश्चय होता है कि सारे गुणों का मालिक अथाह प्रभु सारे जीवों में बसता है।2।8।72।

बिलावलु महला ५ ॥ अरदासि सुणी दातारि प्रभि होए किरपाल ॥ राखि लीआ अपना सेवको मुखि निंदक छारु ॥१॥

पद्अर्थ: दातारि = दातार ने। प्रभि = प्रभु ने। राखि लीआ = रक्षा की। मुखि = मुँह पर। छारु = राख।1।

अर्थ: हे मित्र! जिस सेवक की अरदास प्रभु ने सुन ली, जिस सेवक पर प्रभु जी दयावान हो गए, अपने उस सेवक की प्रभ ने (सदा) रक्षा की है, उस सेवक के दुखदाई-निंदक के मुँह पर राख ही पड़ी है (निंदक हमेशा धिक्कारा ही गया है)।1।

तुझहि न जोहै को मीत जन तूं गुर का दास ॥ पारब्रहमि तू राखिआ दे अपने हाथ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तुझहि = तुझे। जोहै = देख सकता, बुरी निगाह से देख सकता है। को = कोई भी। मीत = हे मित्र! पारब्रहमि = पारब्रहम ने। तू = तुझे। दे = दे के।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्र! हे सज्जन! (अगर) तू गुरु का सेवक (बना रहे, तो विश्वास रख कि) परमात्मा ने अपना हाथ दे के तेरी रक्षा करनी है।1। रहाउ।

जीअन का दाता एकु है बीआ नही होरु ॥ नानक की बेनंतीआ मै तेरा जोरु ॥२॥९॥७३॥

पद्अर्थ: बीआ = दूसरा। मै = मुझे। जोरु = ताण, सहारा।2।

अर्थ: हे मित्र! सारे जीवों को दातें देने वाला सिर्फ परमात्मा ही है, उसके बिना कोई और दूसरा (दातें देने के काबिल) नहीं है (उस प्रभु की शरण पड़ा रह)। नानक की (भी प्रभु-दर पर ही सदा) अरदास है: (हे प्रभु!) मुझे तेरा ही आसरा है।2।9।73।

बिलावलु महला ५ ॥ मीत हमारे साजना राखे गोविंद ॥ निंदक मिरतक होइ गए तुम्ह होहु निचिंद ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मीत हमारे साजना = हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! राख = रक्षा करता है। गोबिंद = सृष्टि की पालना करने वाला। मिरतक = आत्मिक तौर पर मुर्दे। निचिंद = बेफिक्र।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! हे मेरे सज्जनो! (यकीन रखो कि) परमात्मा (अपने सेवकों की जरूर) रक्षा करता है। (सेवक की) निंदा करने वाले (खुद ही) आत्मिक मौत मर जाते हैं। (इस वास्ते तुम परमात्मा का आसरा-सहारा लिए रखो, और निंदकों की तरफ से) बेफिक्र रहो।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh