श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सगल मनोरथ प्रभि कीए भेटे गुरदेव ॥ जै जै कारु जगत महि सफल जा की सेव ॥१॥

पद्अर्थ: सगल = सारे। प्रभि = प्रभु ने। भेटे = मिल गए। जै जैकारु = शोभा ही शोभा। जा की सेव = जिस (प्रभु) की सेवा भक्ति। सफल = फल देने वाली।1।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! जिस प्रभु की सेवा-भक्ति उद्देश्य पूरे करती है, उस प्रभु ने (सदा ही उस सेवक के) सारे उद्देश्य पूरे किए हैं जिसको (भाग्यों से) गुरु मिल गया, (उसके निरे उद्देश्य ही पूरे नहीं होते) सारे जगत में उसकी शोभा होती है।1।

ऊच अपार अगनत हरि सभि जीअ जिसु हाथि ॥ नानक प्रभ सरणागती जत कत मेरै साथि ॥२॥१०॥७४॥

पद्अर्थ: अपार = बेअंत, अ+पार। अगनत = (अ+गनत) जिसके गुण गिने नहीं जा सकते। सभि = सारे। जीअ = जीव। जिसु हाथि = जिस (प्रभु) के हाथ में। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। मेरै साथि = मेरे साथ।2।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे नानक! जो प्रभु! (सबसे) ऊँचा है, बेअंत है, जिसके गुण गिने नहीं जा सकते, सारे ही जीव जिसके वश में हैं। (तू उस) प्रभु की शरण पड़ा रह (और, विश्वास रख कि) वह प्रभु हर जगह मेरे अंग-संग है।2।10।74।

बिलावलु महला ५ ॥ गुरु पूरा आराधिआ होए किरपाल ॥ मारगु संति बताइआ तूटे जम जाल ॥१॥

पद्अर्थ: आराधिआ = मन में याद रखा। किरपाल = दयावान (कृपा+आलय)। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। संति = गुरु ने, संत ने। जम जाल = जम की फाहियां।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु को हृदय में बसाए रखता है, जिस पर गुरु दयावान होता है, जिस मनुष्य को गुरु ने (सही जीवन का) रास्ता बता दिया, उसकी जम वाली सारी जंजीरें टूट जाती हैं (उसके वह मानसिक बंधन टूट जाते हैं, जो आत्मिक मौत लाने के लिए जिम्मेवार हैं)।1।

दूख भूख संसा मिटिआ गावत प्रभ नाम ॥ सहज सूख आनंद रस पूरन सभि काम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संसा = संशय, सहम। सहज = आत्मिक अडोलता। सभि = सारे। काम = कर्म।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए सारे दुख, सारी भूखें, सारे सहम मिट जाते हैं। (नाम की इनायत से) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद स्वाद (प्राप्त हो जाते हैं)। सारी आवश्यक्ताएं पूरी हो जाती हैं।1। रहाउ।

जलनि बुझी सीतल भए राखे प्रभि आप ॥ नानक प्रभ सरणागती जा का वड परताप ॥२॥११॥७५॥

पद्अर्थ: जलनि = जलन। प्रभि = प्रभु ने। जा का = जिस (प्रभु) का।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम स्मरण किया) प्रभु ने खुद (उसकी जम जाल से) रक्षा की (उसके अंदर से विकारों की) जलन मिट गई, उसका मन शीतल हो गया। हे नानक! जिस प्रभु में इतनी बड़ी ताकत है तू भी उसकी शरण पड़ा रह।2।11।75।

बिलावलु महला ५ ॥ धरति सुहावी सफल थानु पूरन भए काम ॥ भउ नाठा भ्रमु मिटि गइआ रविआ नित राम ॥१॥

पद्अर्थ: धरति = (कर्म बीज बीजने वाली) शरीर धरती। सुहावी = सुंदर। सफल = कामयाब। थानु = हृदय स्थल। काम = (सारे) काम। भ्रमु = भ्रम, भटकना। रविआ = स्मरण किया।1।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधसंगति में टिक के) प्रभु का नाम स्मरण करता है, (उसके मन में से हरेक किस्म का) डर दूर हो जाता है, भटकना मिट जाती है, उसका शरीर सुंदर हो जाता है (उसकी ज्ञान-इंद्रिय सदाचारी हो जाती हैं), उसका हृदय-स्थल जीवन का लक्ष्य पूरा करने वाला बन जाता है, उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।1।

साध जना कै संगि बसत सुख सहज बिस्राम ॥ साई घड़ी सुलखणी सिमरत हरि नाम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कै संगि = के साथ, की संगति में। बसत = बसते हुए। सहज = आत्मिक अडोलता। बिस्राम = शांति। साई = वही (स्त्रीलिंग)। सुलखणी = अच्छे लक्षणों वाली, भाग्यशाली।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरमुखों के संगति में टिके रहने से आत्मिक अडोलता का आनंद प्राप्त होता है, (मन को) शांति मिलती है। (हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वही घड़ी भाग्यशाली होती है (जब मनुष्य गुरमुखों की संगति में रह के) परमात्मा का नाम स्मरण करता है।1। रहाउ।

प्रगट भए संसार महि फिरते पहनाम ॥ नानक तिसु सरणागती घट घट सभ जान ॥२॥१२॥७६॥

पद्अर्थ: प्रगट = प्रसिद्ध, नामवर। महि = में। पहनाम = (फारसी = पिनहां) छुपे हुए, जिन्हें कोई जानता-बूझता नहीं था। तिसु = उस (परमात्मा) की। घट घट जान = हरेक के दिल की जानने वाला।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को पहले कोई जानता-पहचानता नहीं था (साधु-संगत में टिक के नाम-जपने की इनायत से) वे जगत में मशहूर हो जाते हैं। हे नानक! (साधु-संगत का आसरा ले के) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए जो हरेक जीव के दिल की हरेक बात जानने वाला है।2।12।76।

बिलावलु महला ५ ॥ रोगु मिटाइआ आपि प्रभि उपजिआ सुखु सांति ॥ वड परतापु अचरज रूपु हरि कीन्ही दाति ॥१॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। उपजिआ = पैदा हुआ। वड परतापु = बड़े प्रताप वाला। अचरज रूपु = आश्चर्य स्वरूप वाला।1।

अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा बड़े प्रताप वाला है, आश्चर्य स्वरूप वाला है, उसी ने ही (मेरे पर) बख्शिश की है। प्रभु ने खुद ही (मेरे प्यारे का) रोग दूर किया है, (उसकी मेहर से) सुख मिला है शांति मिली है।1।

गुरि गोविंदि क्रिपा करी राखिआ मेरा भाई ॥ हम तिस की सरणागती जो सदा सहाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। गोबिंद = गोबिंद ने। भाई = प्यारा। सहाई = सहायता करने वाला।1। रहाउ।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मैंने तो उस परमात्मा का ही आसरा लिया हुआ है, जो सदा सहायता करने वाला है। (देखो, उसकी मेहर कि) गुरु ने परमात्मा ने (ही मेरे ऊपर) कृपा की है, मेरे प्यारे को (हाथ दे के) बचा लिया है।1। रहाउ।

बिरथी कदे न होवई जन की अरदासि ॥ नानक जोरु गोविंद का पूरन गुणतासि ॥२॥१३॥७७॥

पद्अर्थ: बिरथी = व्यर्थ, फल हीन। होवई = होती है। जन = सेवक। जोरु = बल, आसरा। गुण तासि = गुणों का खजाना।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! प्रभु के दर के ही सेवक बने रहो) सेवक की आरजू कभी खाली नहीं जाती (प्रभु जरूर सहायता करता है, और, रोग आदि से खुद ही बचाता है)। वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, सारे गुणों से भरपूर है। मुझे तो उस परमात्मा का ही आसरा है।2।13।77।

बिलावलु महला ५ ॥ मरि मरि जनमे जिन बिसरिआ जीवन का दाता ॥ पारब्रहमु जनि सेविआ अनदिनु रंगि राता ॥१॥

पद्अर्थ: मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। जिन = जिनको। जीवन = जिंदगी। जनि = जन ने, सेवक ने। सेविआ = स्मरण किया। अनदिनु = हर रोज। रंगि = प्रेम में।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को जिंदगी देने वाला परमात्मा भूल जाता है, वह आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। पर प्रभु के सेवक ने प्रभु को हर वक्त स्मरण किया है, (प्रभु का सेवक प्रभु के) प्रेम-रंग में रंगा रहता है।1।

सांति सहजु आनदु घना पूरन भई आस ॥ सुखु पाइआ हरि साधसंगि सिमरत गुणतास ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। घना = बहुत। साध संगि = साधु-संगत में। गुणतास = गुणों का खजाना।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! सेवक ने) गुणों के खजाने हरि (का नाम) साधु-संगत में स्मरण करते हुए (सदा) आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। (सेवक के हृदय में) शांति, आत्मिक अडोलता और बहुत आनंद बना रहता है। (सेवक की) हरेक कामना पूरी हो जाती है।1। रहाउ।

सुणि सुआमी अरदासि जन तुम्ह अंतरजामी ॥ थान थनंतरि रवि रहे नानक के सुआमी ॥२॥१४॥७८॥

पद्अर्थ: सुणि = सुनी। सुआमी = हे स्वामी! अरदासि जन = (अपने) सेवक की अरदास। अंतरजामी = दिलों की जानने वाला। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। रवि रहे = तुम मौजूद हो।2।

अर्थ: हे सवामी! नानक के मालिक! तू हर जगह में बसता है, तू हरेक के दिल की जानने वाला है, तू (अपने) सेवक की अरदास (सदा) सुनता है।2।14।78।

बिलावलु महला ५ ॥ ताती वाउ न लगई पारब्रहम सरणाई ॥ चउगिरद हमारै राम कार दुखु लगै न भाई ॥१॥

पद्अर्थ: ताती = गरम। ताती वाउ = गर्म हवा, सेक। लगई = लगे, लगता। चउगिरद = चौगिर्दा, चारों तरफ। रामकार = राम के नाम की लकीर।

(नोट: बनवास के समय रावण सीता को छलने आया। सीता जी की प्रेरणा से श्री रामचंद्र हिरन को पकड़ने गए, लक्ष्मण को सीता जी के पास छोड़ गए। जंगल में से इस तरह की आवाज आई जैसे श्री रामचंद्र जी को किसी बिपता ने आ के ग्रस लिया है। सीता जी के कहने पर लक्ष्मण सीता जी के चारों तरफ राम-कार खींच के श्री रामचंद्र जी की तलाश में चले गए। पर सीता जी को हिदायत कर गए कि इस लकीर से बाहर नहीं निकलना। रावण का दाव तब ही लगा, जब सीता जी उससे बाहर निकल आए)।

भाई = हे भाई!।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की शरण पड़ने से (व्याधियों का) सेक नहीं लगता। हे भाई! हम जीवों के चारों तरफ परमात्मा का नाम (मानो) एक लकीर है (जिसकी इनायत से) कोई दुख छू नहीं सकता।1।

सतिगुरु पूरा भेटिआ जिनि बणत बणाई ॥ राम नामु अउखधु दीआ एका लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भेटिआ = मिल गया। जिनि = जिस (गुरु) ने। बणत = (व्याधियों को दूर करने की) बिउंत। अउखधु = दवा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (परमात्मा का नाम-दवा दे के जीवों के रोग दूर करने की) बिउंत बना रखी है, वह पूरा गुरु (जिस मनुष्य को) मिल जाता है और परमात्मा का नाम दवाई देता है, वह मनुष्य सदा परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।

राखि लीए तिनि रखनहारि सभ बिआधि मिटाई ॥ कहु नानक किरपा भई प्रभ भए सहाई ॥२॥१५॥७९॥

पद्अर्थ: तिनि = उसने। रखनहारि = रखने की समर्थता वाले ने। बिआधि = रोग। सहाई = मददगार।2।

अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को गुरु मिल गया उसको) उस रखवाले प्रभु ने बचा लिया, (उसके अंदर से) हरेक रोग दूर कर दिया, उस मनुष्य पर प्रभु की कृपा हो गई, प्रभु उस मनुष्य का मददगार बन गया।2।15।79।

बिलावलु महला ५ ॥ अपणे बालक आपि रखिअनु पारब्रहम गुरदेव ॥ सुख सांति सहज आनद भए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रखिअनु = रखे हैं उस (प्रभु) ने। गुरदेव = सबसे बड़ा देवता। सहज = आत्मिक अडोलता। सेव = नाम-जपने की मेहनत।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा देवता (है, हम जीव उसके बच्चे हैं) अपने बच्चों की वह सदा ही स्वयं रक्षा करता आया है। (जो मनुष्य उसकी शरण पड़ते हैं, उनके अंदर) शांति, आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद पैदा होते हैं, उनकी सेवा-नाम-जपने की मेहनत सफल हो जाती है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh