श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 820 भगत जना की बेनती सुणी प्रभि आपि ॥ रोग मिटाइ जीवालिअनु जा का वड परतापु ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जीवालिअनु = उसने जीवित किए हैं, उसने आत्मिक जीवन दिया है।1। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का (सबसे) बड़ा तेज-प्रताप है उस ने अपने भक्तों की आरजू (सदा) सुनी है (उनके अंदर से) रोग मिटा के उनको आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है।1। दोख हमारे बखसिअनु अपणी कल धारी ॥ मन बांछत फल दितिअनु नानक बलिहारी ॥२॥१६॥८०॥ पद्अर्थ: दोख = ऐब, विकार। बखसिअनु = उसने बख्शे हैं। कल = कला, क्षमता। धारी = टिकाई है। मन बांछत = मन मांगे। दितिअनु = दिए हैं उस प्रभु ने।2। अर्थ: हे भाई! उस प्रभु-पिता ने हम बच्चों के ऐब सदा माफ कर दिए हैं, और हमारे अंदर अपने नाम की ताकत भरी है। हे नानक! प्रभु पिता ने हम बच्चों को सदा मन-मांगे फल दिए हैं, उस प्रभु से सदा सदके जाना चाहिए।2।16।80। रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मोहन स्रवनी इह न सुनाए ॥ साकत गीत नाद धुनि गावत बोलत बोल अजाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहन = हे जीवों के मन को मोह लेने वाले! हे सुंदर! स्रवनी = श्रवणी, (मेरे) कानों में। न सुनाए = ना सुनाए। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग। धुनि = सुर। अजाए = व्यर्थ।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (जो गंदे) गीतों नादों धुनियों के बोल बोलते हैं और गाते हैं वह (आत्मिक जीवन के लिए) व्यर्थ हैं। हे मेरे मोहन! ऐसे बोल मेरे कानों में ना पड़ें।1। रहाउ। सेवत सेवि सेवि साध सेवउ सदा करउ किरताए ॥ अभै दानु पावउ पुरख दाते मिलि संगति हरि गुण गाए ॥१॥ पद्अर्थ: सेवि सेवि = सदा सेवा करके। साध सेवउ = मैं गुरु की सेवा करता रहूँ। किरताए = कार्य, काम काज। अभै = निर्भयता। पावउ = पाऊँ। पुरख = हे सर्व व्यापक! मिलि = मिल के। गाए = गा के।1। अर्थ: हे सर्व-व्यापक दातार! हे हरि! (मेहर कर) गुरु की संगति में मिल के, तेरे गुण गा के मैं (तेरे दर से) निर्भयता की दाति प्राप्त करूँ। मैं सदा ही हर वक्त गुरु की शरण पड़ा रहूँ, मैं सदा यही काम करता रहूँ।1। रसना अगह अगह गुन राती नैन दरस रंगु लाए ॥ होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन मोहि चरण रिदै वसाए ॥२॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ। अगह = अगम्य (पहुँच से परे)। राती = रति रहे, रंगी रहे। नैन = आँखें। दरस रंगु = दर्शन का आनंद। लाए = लगा के। दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख नाश करने वाले! मोहि रिदै = मेरे हृदय में। वसाए = बसाए रख।2। अर्थ: हे दीनों के दुख दूर करने वाले! (मुझ पर) दयावान हो, अपने चरण मेरे हृदय में बसाए रख, मेरी आँखें तेरे दर्शन कर-करके मेरी जीभ तुझ अगम्य (पहुँच से परे) के गुणों में रति रहे।2। सभहू तलै तलै सभ ऊपरि एह द्रिसटि द्रिसटाए ॥ अभिमानु खोइ खोइ खोइ खोई हउ मो कउ सतिगुर मंत्रु द्रिड़ाए ॥३॥ पद्अर्थ: तलै = नीचे। द्रिसटि = दृष्टि, निगाह। द्रिसटाए = दिखाए। खोई = दूर कर के। खोइ खोइ खोई हउ = मैं बिल्कुल दूर कर दूँ। मो कउ = मुझे। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ाए = दृढ़ कर, पक्का कर।3। अर्थ: हे मोहन! मेरी निगाह में ऐसी ज्योति पैदा कर कि मैं अपने आप को सबसे नीच समझूँ और सबको अपने से ऊँचा जानूँ। हे मोहन! मेरे दिल में गुरु का उपदेश पक्का कर दे, ता कि मैं सदा के लिए अपने अंदर से अहंकार दूर कर दूँ।3। अतुलु अतुलु अतुलु नह तुलीऐ भगति वछलु किरपाए ॥ जो जो सरणि परिओ गुर नानक अभै दानु सुख पाए ॥४॥१॥८१॥ पद्अर्थ: भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। सरणि गुर = गुरु की शरण। पाए = पाया जाता है।4। अर्थ: हे मोहन! तू अतुल है, तू अतुल है, तू अतुल है, (तेरे बड़प्पन को) तोला नहीं जा सकता, तू भक्ति को प्यार करने वाला है, तू सबके ऊपर कृपा करता है। हे नानक! (मोहन-प्रभु की कृपा से) जो जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह निर्भयता की दाति हासिल कर लेता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है।4।1।81। नोट: इस संग्रह का शीर्षक है ‘चउपदे दुपदे’। पर इस में सिर्फ पहला शब्द ही चार बंदों वाला है। बिलावलु महला ५ ॥ प्रभ जी तू मेरे प्रान अधारै ॥ नमसकार डंडउति बंदना अनिक बार जाउ बारै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रान अधारै = जिंद का आसरा। डंडउति बंदना = डंडे की तरह सीधा लंबे पड़कर नमस्कार (दण्डवत)। बार = बारी। बारै = वारने, सदके।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तू (ही) मेरी जिंद का सहारा है। हे प्रभु! मैं तेरे ही आगे नमस्कार करता हूँ, दण्डवत् करके नमस्कार करता हूँ। मैं अनेक बार तुझसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ। ऊठत बैठत सोवत जागत इहु मनु तुझहि चितारै ॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुझ ही आगै सारै ॥१॥ पद्अर्थ: तुझहि = तुझे ही। चितारै = याद करता है। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। सारै = संभालता है, पेश करता है।1। अर्थ: हे प्रभु! उठते, बैठते, सोते, जागते (हर वक्त) मेरा ये मन तुझे ही याद करता रहता है। मेरा ये मन अपना सुख अपना दुख अपनी हरेक पीड़ा तेरे ही आगे रखता है।1। तू मेरी ओट बल बुधि धनु तुम ही तुमहि मेरै परवारै ॥ जो तुम करहु सोई भल हमरै पेखि नानक सुख चरनारै ॥२॥२॥८२॥ पद्अर्थ: ओट = आसरा। बल = ताण। तुमहि = तुम ही, तू ही। मेरै = मेरे लिए। परवारै = परिवार। भल = भला। हमारै = हमारे लिए। पेखि चरनारै = (तेरे) चरणों के दर्शन करके।2। अर्थ: हे प्रभु! तू ही मेरा सहारा है, तू ही मेरा माण है, तू ही मेरा ताण (बल) है, तू ही मेरी बुद्धि है, तू ही मेरी समृद्धि (धन) है, और तू ही मेरे वास्ते मेरा परिवार है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जो कुछ तू करता है मेरे वास्ते वही भलाई है। तेरे चरणों के दर्शन करके मुझे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।2।2।82। नोट: नए संग्रह का ये दूसरा शब्द है। इस राग में महला ५ के अब तक 82 शब्द आ चुके हैं। बिलावलु महला ५ ॥ सुनीअत प्रभ तउ सगल उधारन ॥ मोह मगन पतित संगि प्रानी ऐसे मनहि बिसारन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुनीअत = सुनी जाती है। प्रभ = हे प्रभु! तउ = तेरी (वजह से)। सगल = सारे जीवों को। उधारन = (विकारों से) बचाने वाला। मगन = डूबे हुए। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। संगि प्रानी = प्राणियों से। ऐसे = इस तरह, बेपरवाही से। मनहि = मन से।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरी बाबत सुना जाता है कि तू सारे जीवों को विकारों से बचाने वाला है, (तू उनको भी बचा लेता है, जो) मोह में डूबे हुए विकारों में गिरे हुए प्राणियों के साथ उठना-बैठना रखते हैं और बड़ी बेपरवाही से तुझे मन से भुलाए रखते हैं।1। रहाउ। संचि बिखिआ ले ग्राहजु कीनी अम्रितु मन ते डारन ॥ काम क्रोध लोभ रतु निंदा सतु संतोखु बिदारन ॥१॥ पद्अर्थ: संचि = संचित करके। बिखिआ = माया। ग्राहजु = ग्राह्य, ग्रहण करने योग्य। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से। डारन = फेंक दिया। रतु = रता हुआ, मस्त। सतु = दान। बिदारन = चीर फाड़ दिया, चीर डाला।1। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे पैदा किए हुए जीव) माया इकट्ठी करके ही इसको ग्रहण करने योग्य बनाते हैं, पर आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-जल अपने मन से परे फेंक देते हैं। (ऐसे) जीव काम-क्रोध-लोभ-निंदा (आदि विकारों) में मस्त रहते हैं और सेवा-संतोख आदि गुण को कतरा-कतरा कर रहे हैं (हे प्रभु! मेहर कर, इनको विकारों से बचा ले)।1। इन ते काढि लेहु मेरे सुआमी हारि परे तुम्ह सारन ॥ नानक की बेनंती प्रभ पहि साधसंगि रंक तारन ॥२॥३॥८३॥ पद्अर्थ: इनते = इनसे। सुआमी = हे नानक! हारि = हार के, थक के। सारन = शरण। पहि = पास। संगि = संगति में। रंक = कंगाल, आत्मिक जीवन से वंचित।2। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! इन विकारों से हमें बचा ले (हमारी इनके आगे पेश नहीं जाती) हार के तेरी शरण आ पड़े हैं। हे प्रभु! (तेरे दर के सेवक) नानक की (तेरे आगे) आरजू है कि आत्मिक जीवन से बिल्कुल वंचित लोगों को भी साधु-संगत में ला के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।2।3।83। बिलावलु महला ५ ॥ संतन कै सुनीअत प्रभ की बात ॥ कथा कीरतनु आनंद मंगल धुनि पूरि रही दिनसु अरु राति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संतन कै = संतों के घर में, संतों की संगति में, साधु-संगत में। बात = कथा वारता। सुनीअत = सुनी जाती है। धुनि = तुकांत। पूरि रही = भरी रहती है। दिनसु = दिन। अरु = और।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! साधु संगत में प्रभु की महिमा की कथा-वार्ता (सदा) सुनी जाती है। वहाँ दिन-रात हर वक्त प्रभु की कथा-कहानियाँ होती हैं, कीर्तन होता है, आत्मिक आनंद हिल्लौरे पैदा करने वाली धुनि सदा चली रहती है।1। रहाउ। करि किरपा अपने प्रभि कीने नाम अपुने की कीनी दाति ॥ आठ पहर गुन गावत प्रभ के काम क्रोध इसु तन ते जात ॥१॥ पद्अर्थ: करि = करके। प्रभि = प्रभु ने। तन ते = शरीर से। जात = दूर हो जाते हैं।1। अर्थ: हे भाई! संतजनों को प्रभु ने मेहर करके अपने सेवक बना लिया होता है, उनको अपने नाम की दाति बख्शी होती है। आठों पहर प्रभु के गुण गाते-गाते (उनके) इस शरीर में से काम-क्रोध (आदि विकार) दूर हो जाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |