श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 821 त्रिपति अघाए पेखि प्रभ दरसनु अम्रित हरि रसु भोजनु खात ॥ चरन सरन नानक प्रभ तेरी करि किरपा संतसंगि मिलात ॥२॥४॥८४॥ पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति। अघाए = तृप्त हो गए। पेखि = देख के। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। प्रभ = हे प्रभु! संगि = संगत में।2। अर्थ: हे भाई! संत जन प्रभु के दर्शन करके (माया की तृष्ण की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं, संत जन सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरि-नाम का स्वादिष्ट भोजन खाते हैं। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे चरणों की शरण में आते हैं, तू कृपा करके उनको संत जनों की संगति में मिला देता है।2।4।84। बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए अपने जन आप ॥ करि किरपा हरि हरि नामु दीनो बिनसि गए सभ सोग संताप ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राखि लीए = (सदा) रक्षा की है। जन = सेवक। करि = कर के। दीनो = दिया है। सोग = चिन्ता, ग़म। संताप = दुख-कष्ट।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने सदा अपने सेवकों की रक्षा की है। मेहर करके (अपने सेवकों को) अपने नाम की दाति देता आया है (जिनको नाम की दाति बख्शता है उनकी) सारी चिन्ता-फिक्रें व दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं।1। रहाउ। गुण गोविंद गावहु सभि हरि जन राग रतन रसना आलाप ॥ कोटि जनम की त्रिसना निवरी राम रसाइणि आतम ध्राप ॥१॥ पद्अर्थ: गुण गोविंद = गोविंद के गुण। सभि = सारे (मिल के)। हरि जन = हे संत जनो! रतन राग = सुंदर रागों के द्वारा। रसना = जीभ (से)। आलाप = उचारण करो। कोटि = करोड़ों। निवरी = दूर हो जाती है। रसाइणि = रसायन से। रसाइण = रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। आतम = जीवात्मा, जिंद। ध्राप = तृप्त हो जाती है।1। अर्थ: हे संत जनो! सारे (मिल के) प्रभु के गुण गाते रहा करो, जीभ से सुंदर रागों में उसके गुणों का उच्चारण करते रहा करो। (जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उच्चारण करते हैं, उनकी) करोड़ों जन्मों की (माया की) तृष्णा दूर हो जाती है, सब रसों से श्रेष्ठ राम-रस की इनायत से उनका मन तृप्त हो जाता है।1। चरण गहे सरणि सुखदाते गुर कै बचनि जपे हरि जाप ॥ सागर तरे भरम भै बिनसे कहु नानक ठाकुर परताप ॥२॥५॥८५॥ पद्अर्थ: गहे = पकड़े। कै बचनि = के वचनों से। सागर = (संसार-) समुंदर। तरे = पार लांघ गए। भै = सारे डर। ठाकुर परताप = मालिक प्रभु की बड़ाई।2। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सुखों के दाता प्रभु के चरण पकड़ के रखते हैं, सुखदाते प्रभु की शरण पड़े रहते हैं, गुरु के उपदेश के द्वारा प्रभु के नाम का जाप जपते रहते हैं, वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! कह: यह सारी महानता मालिक प्रभु की ही है।2।5।85। बिलावलु महला ५ ॥ तापु लाहिआ गुर सिरजनहारि ॥ सतिगुर अपने कउ बलि जाई जिनि पैज रखी सारै संसारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लाहिआ = उतारा। सिरजनहारि = विधाता ने, कर्तार ने। कउ = को, से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। पैज = सत्कार, इजजत। संसारि = संसार में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु ने कर्तार ने (खुद बालक हरिगोबिंद का) ताप उतारा है। मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ, जिसने सारे संसार में (मेरी) इज्जत रख ली है (नहीं तो, भ्रमित लोग तो, सीतला देवी आदि की पूजा के लिए खूब प्रेरणा करते रहे)।1। रहाउ। करु मसतकि धारि बालिकु रखि लीनो ॥ प्रभि अम्रित नामु महा रसु दीनो ॥१॥ पद्अर्थ: करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। रखि लीन = (ताप से) बचा लिया है। प्रभि = प्रभु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। महा रस = बहुत ही स्वादिष्ट। दीनो = दीन्हो।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु ने अपना हाथ (बालक के) सिर पर रख कर बालक को (ताप से) बचा लिया (सिर्फ ताप से ही नहीं बचाया, ईश्वर को छोड़ के किसी और की पूजा से बचा के) प्रभु ने आत्मिक जीवन देने वाला और सबसे श्रेष्ठ रस वाला अपना नाम भी दिया है।1। दास की लाज रखै मिहरवानु ॥ गुरु नानकु बोलै दरगह परवानु ॥२॥६॥८६॥ पद्अर्थ: लाज = इज्जत। रखै = रखता है। परवानु = स्वीकार।2। अर्थ: (हे भाई! याद रख) गुरु नानक (वही कुछ) कहता है (जो परमात्मा की) दरगाह में स्वीकार है (और, गुरु नानक कहता है कि) मेहरवान प्रभु अपने सेवक की इज्जत (अवश्य) रखता है (सो, हे भाई! दुख-कष्ट के वक्त घबरा के और-और के आसरे ना ढूँढते फिरो)।2।6।86। रागु बिलावलु महला ५ चउपदे दुपदे घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर सबदि उजारो दीपा ॥ बिनसिओ अंधकार तिह मंदरि रतन कोठड़ी खुल्ही अनूपा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। सबदि दीपा = शब्द दीपक के द्वारा। उजारो = उजाला, आत्मिक जीवन की सूझ। अंधकार = घोर अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा। तिह मंदरि = उस मन मन्दिर में। अनूपा = बहुत सुंदर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मन-मन्द्रिर में गुरु के शब्द-दीप से (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उस मन-मन्दिर में आत्मिक गुण-रत्नों की बहुत ही सुंदर कोठरी खुल जाती है (जिसकी इनायत से नीच जीवन वाले) अंधकार का वहाँ से नाश हो जाता है।1। रहाउ। बिसमन बिसम भए जउ पेखिओ कहनु न जाइ वडिआई ॥ मगन भए ऊहा संगि माते ओति पोति लपटाई ॥१॥ पद्अर्थ: बिसमन बिसम = हैरान से हैरान, बहुत हैरानी। जउ = जब। कहनु न जाइ = बयान नहीं हो सकती। मगन = डुबकी लगा ली। संगी = साथ। माते = मस्त। ओति = उनने में। पोति = पोत में, परोने में। ओति पोति = ताने पेटे की तरह मिले हुए।1। अर्थ: (गुरु शब्द-दीपक की रौशनी में) जब (अंदर बस रहे) प्रभु के दर्शन होते हैं तब मेर-तेर वाली सारी सुधें भूल जाती हैं, पर उस अवस्था की महानता बयान नहीं की जा सकती। जैसे ताने-पेटे के उने हुए धागे आपस में मिले होते हैं, वैसे ही उस प्रभु में ही तवज्जो लग जाती है, उस प्रभु के चरणों में ही मस्त हो जाते हैं, उसके चरणों से ही चिपके रहते हैं।1। आल जाल नही कछू जंजारा अह्मबुधि नही भोरा ॥ ऊचन ऊचा बीचु न खीचा हउ तेरा तूं मोरा ॥२॥ पद्अर्थ: आल जाल = घर (के मोह) के जाल। जंजारा = झमेले। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। भोरा = थोड़ा सा भी। ऊचन ऊचा = बहुत ऊँचा। बीचु = पर्दा, दूरी, अंतर। खीचा = खिचा हुआ, ताना हुआ। हउ = मैं। मोरा = मेरा।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु के शब्द-दीपक से जब मन-मन्दिर में प्रकाश होता है, तब उस अवस्था में) गृहस्थ के मोह के जाल और झमेले महिसूस ही नहीं होते, अंदर कहीं रक्ती भर भी ‘मैं मैं’ करने वाली बुद्धि नहीं रह जाती। तब मन-मन्दिर में वह महान ऊँचा परमात्मा ही बसता दिखाई देता है, उससे कोई पर्दा नहीं रह जाता। (उस वक्त उसे यही कहते हैं: हे प्रभु!) मैं तेरा (दास) हूँ, तू मेरा (मालिक) है।2। एकंकारु एकु पासारा एकै अपर अपारा ॥ एकु बिसथीरनु एकु स्मपूरनु एकै प्रान अधारा ॥३॥ पद्अर्थ: एकंकारु = एक सर्व व्यापक परमात्मा। अपर = परे से परे। अपारा = बेअंत। बिसथीरनु = विस्तार, खिलारा, प्रकाश। संपूरनु = हर जगह व्यापक। अधारा = आसरा।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु के शब्द-दीपक से जब मन-मन्दिर में आत्मिक जीवन का प्रकाश होता है, तब बाहर जगत में भी) एक ही सर्व-व्यापक बेअंत परमात्मा स्वयं ही स्वयं पसरा हुआ दिखाई देता है। वह स्वयं ही बिखरा हुआ (उसका विस्तार) और व्यापक प्रतीत होता है, वही जीवों की जिंदगी का आसरा दिखता है।3। निरमल निरमल सूचा सूचो सूचा सूचो सूचा ॥ अंत न अंता सदा बेअंता कहु नानक ऊचो ऊचा ॥४॥१॥८७॥ पद्अर्थ: निरमल निरमल = महान पवित्र। सूचा...सूचा = महान स्वच्छ।4। अर्थ: हे नानक! कह: (जब मन-मन्दिर में गुर-शब्द-दीपक का प्रकाश होता है तब ये स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा महान पवित्र है, महान स्वच्छ है, उसका कभी अंत नहीं पड़ सकता, वह सदा ही बेअंत है, और ऊँचों से ऊँचा है (उस जैसा ऊँचा और कोई नहीं)।4।1।87। नोट: इस संग्रह में 30 शब्द हैं। शीर्षक बताता है कि ये चौपदे और दुपदे मिले हुए हैं। इनमें से पहले 2 चौपदे हैं (चार बंदों वाले शब्द), बाकी के 28 दुपदे (दो बंदों वाले शब्द) हैं। अगला शब्द चउपदे है। इसके आगे दुपदे आरम्भ हो जाएंगे। बिलावलु महला ५ ॥ बिनु हरि कामि न आवत हे ॥ जा सिउ राचि माचि तुम्ह लागे ओह मोहनी मोहावत हे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कामि = काम में। सिउ = जिस (माया) से। राचि माचि = रच मिच के। मोहनी = मन को मोहने वाली माया। मोहावत = ठग रही है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज तेरे आत्मिक जीवन के) काम नहीं आ सकती। जिस मन-मोहनी माया के साथ तू रचा-मिचा रहता है, वह तो तुझे ठग रही है।1। रहाउ। कनिक कामिनी सेज सोहनी छोडि खिनै महि जावत हे ॥ उरझि रहिओ इंद्री रस प्रेरिओ बिखै ठगउरी खावत हे ॥१॥ पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री। छोडि = छोड़ के। खिनै महि = छिन में ही। उरझि रहिओ = उलझा रहता है, फसा रहता है। इंद्री रस = काम-वासना के स्वाद। बिखै ठगउरी = विषियों की ठग-बूटी। ठगउरी = वह बूटी जो ठग लोग राहगीरों को खिला के बेहोश कर लेते हैं।1। अर्थ: हे भाई! सोना (धन-पदार्थ), स्त्री की सुंदर सेज- ये तो एक छिन में छोड़ के मनुष्य यहाँ से चल पड़ता है। काम-वासना के स्वादों से प्रेरित हुआ तू काम-वासना में फंसा पड़ा है, और विषौ-विकारों की ठग-बूटी खा रहा है (जिसके कारण तू आत्मिक जीवन की ओर से बेहोश पड़ा है)।1। त्रिण को मंदरु साजि सवारिओ पावकु तलै जरावत हे ॥ ऐसे गड़ महि ऐठि हठीलो फूलि फूलि किआ पावत हे ॥२॥ पद्अर्थ: त्रिण को = तीलों का। मंदरु = घर। साजि = बना के। पावकु = आग। तलै = नीचे। गढ़ = शरीर किला। ऐठि = ऐंठन, अकड़ से। हठीलो = हठी, जिद्दी। फूलि फूलि = फूल फूल के।2। अर्थ: हे भाई! तीलियों का घर बना-सँवार के तू उसके नीचे आग जला रहा है (इस शरीर में कामादिक विकारों के शोले भड़का के आत्मिक जीवन को राख किए जा रहा है। विकारों में जल रहे) इस शरीर-किले में अकड़ के जिद्दी हुआ बैठा तू गुमान कर-कर के हासिल तो कुछ भी नहीं कर रहा।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |