श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 822 पंच दूत मूड परि ठाढे केस गहे फेरावत हे ॥ द्रिसटि न आवहि अंध अगिआनी सोइ रहिओ मद मावत हे ॥३॥ पद्अर्थ: पंच दूत = (कामादिक) पाँच वैरी। मूड परि = सिर पर। ठाढे = खड़े हैं। गहे = पकड़े, पकड़ के। केस गहे = केसों को पकड़ के। फेरावत = घुमाते हैं। द्रिसटि न आवहि = दिखते नहीं। अंध = अंधा। मद = नशा। मावत = मस्त।3। अर्थ: हे अंधे-अज्ञानी! कामादिक पाँचों वैरी तेरे सिर पर खड़े हुए तुझे ज़लील कर रहे हैं, पर तुझे वे दिखाई नहीं देते, तू विकारों के नशे में मस्त हो के आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हुआ पड़ा है।3। जालु पसारि चोग बिसथारी पंखी जिउ फाहावत हे ॥ कहु नानक बंधन काटन कउ मै सतिगुरु पुरखु धिआवत हे ॥४॥२॥८८॥ पद्अर्थ: पसारि = फैला के। बिसथारी = फैला दी, बिखेर दी। पंखी = पक्षी। कउ = वास्ते।4। अर्थ: हे भाई! जैसे किसी पंछी को पकड़ने के लिए जाल बिखरा के उसके ऊपर दाने बिखेरे जाते हैं, वैसे ही तू (भी दुनिया के पदार्थों की चोग के चक्कर में) फंस रहा है। हे नानक! कह: (हे भाई!) माया के बंधनो को काटने के लिए मैं तो गुरु महापुरुख को अपने हृदय में बसा रहा हूँ।4।2।88। नोट: चउपदे समाप्त हुए। आगे दुपदे आरम्भ होते हैं। बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि नामु अपार अमोली ॥ प्रान पिआरो मनहि अधारो चीति चितवउ जैसे पान त्मबोली ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अमोली = अमोलक, अमूल्य, जो किसी भी मूल्य में नहीं मिल सकता। प्रान पिआरो = जीवात्मा का प्यारा। मनहि अधारो = मन का आसरा। चीति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितवती हूँ। तंबोली = पान बेचने वाली।1। रहाउ। अर्थ: (हे सहेली!) बेअंत हरि का नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। वह हरि का नाम मेरी जिंद का प्यारा बन गया है, मेरे मन का सहारा बन गया है। जैसे कोई पान बेचने वाली (अपने) पानों का ख्याल रखती है, वैसे ही मैं हरि-नाम को अपने चिक्त में चितारती रहती हूँ।1। रहाउ। सहजि समाइओ गुरहि बताइओ रंगि रंगी मेरे तन की चोली ॥ प्रिअ मुखि लागो जउ वडभागो सुहागु हमारो कतहु न डोली ॥१॥ पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरहि = गुरु ने। रंगि = प्रेम में। प्रिअ मुखि लागो = प्यारे के मुँह लगी, प्यारे का दर्शन हुआ। जउ = जब। कतहु = कहीं भी। डोली = डोलता है।1। अर्थ: (हे सखी!) जब गुरु ने मुझे (भेद) बता दिया, तो मैं आत्मिक अडोलता में लीन हो गई, अब मेरी शरीर चोली प्रभु के प्रेम रंग में रंगी गई है। जब से (गुरु की कृपा से) मेरे अहो भाग्य जाग उठे हैं तब से मुझे प्यारे के दर्शन हो रहे हैं। अब मेरा ये सोहाग (मेरे सिर से) दूर नहीं होएगा।1। रूप न धूप न गंध न दीपा ओति पोति अंग अंग संगि मउली ॥ कहु नानक प्रिअ रवी सुहागनि अति नीकी मेरी बनी खटोली ॥२॥३॥८९॥ पद्अर्थ: गंध = सुगंधियां। दीपा = दीया। ओति पोति = ताने पेटे की तरह मिल गई। संगि = साथ। मउली = खिल उठी। प्रिअ = प्यारे ने। रवी = मेल का आनंद दिया। अति नीकी = बहुत सुंदर। खटोली = छोटी सी खाट, हृदय सेज।2। अर्थ: (हे सखी!) ना कोई सुंदर पदार्थ, ना कोई धूप, ना सुगंधियाँ, ना दीए (-कोई भी ऐसे पदार्थ मैंने अपने पति देव के आगे भेटा नहीं किए। गुरु की कृपा से ही) मेरा स्वै प्रभु-पति के साथ एक-मेक हो गया है, उसके साथ मिल के मेरा मन खिल उठा है। हे नानक! कह: (हे सहेली!) प्यारे प्रभु ने मुझे सुहागिन बना के अपने साथ मिला लिया है, अब मेरी हृदय-सेज बहुत ही सुंदर बन गई है।2।3।89। बिलावलु महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद मई ॥ जब ते भेटे साध दइआरा तब ते दुरमति दूरि भई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गोबिंद मई = गोबिंद+मय, गोबिंद का रूप। जब ते = जब से। भेटे = मिले हैं। साध = गुरु। दइआरा = दयालु। दुरमति = खोटी मति।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब से (किसी मनुष्य को) दया का श्रोत गुरु मिल जाता है, तब से (उसके अंदर से) खोटी मति दूर हो जाती है, सदा गोबिंद का नाम स्मरण कर-कर के वह गोबिंद का ही रूप हो जाता है।1। रहाउ। पूरन पूरि रहिओ स्मपूरन सीतल सांति दइआल दई ॥ काम क्रोध त्रिसना अहंकारा तन ते होए सगल खई ॥१॥ पद्अर्थ: पूरि रहिओ = व्यापक है, हर जगह मौजूद है। सीतल = ठंड देने वाला। दई = दय, प्यारा। तन ते = शरीर से। खई = नाश हो गए।1। अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है तब उसे निश्चय हो जाता है कि) दया और शांति का पुँज सारे गुणों से भरपूर प्यारा प्रभु हर जगह व्यापक है। (नाम-जपने की इनायत से) उसके शरीर में से काम-क्रोध-तृष्णा-अहंकार आदि सारे विकार नाश हो जाते हैं।1। सतु संतोखु दइआ धरमु सुचि संतन ते इहु मंतु लई ॥ कहु नानक जिनि मनहु पछानिआ तिन कउ सगली सोझ पई ॥२॥४॥९०॥ पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। सुचि = आत्मिक पवित्रता। संतन ते = संत जनों से। मंतु = उपदेश। जिनि = जिस जिस ने। मनहु = मन से। पछानिआ = सांझ डाली। सगली = सारी।2। अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह) सेवा, संतोख, दया, धर्म, पवित्र जीवन (अपने अंदर पैदा करने का) यह उपदेश संतजनों से ग्रहण करता है। हे नानक! कह: जिस जिस मनुष्य ने अपने मन के द्वारा (गुरु के साथ) सांझ बनाई, उन्हें (ऊँचे आत्मिक जीवन की) सारी समझ आ गई।2।4।90। बिलावलु महला ५ ॥ किआ हम जीअ जंत बेचारे बरनि न साकह एक रोमाई ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा बेअंत ठाकुर तेरी गति नही पाई ॥१॥ पद्अर्थ: बरनि न साकह = हम बयान नहीं कर सकते। साकह = सकते। रोमाई = रोम जितना भी। महेस = शिव। सिध = सिद्ध योगी। मुनि = समाधियां लगाए बैठे ऋषि जन। ठाकुर = हे ठाकुर! गति = हालत। तेरी गति नही पाई = तू कैसा है इस बात की समझ नहीं आ सकी।1। नोट: ‘साकह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरुष, बहुवचन। अर्थ: हे मेरे मालिक! (हम जीव तेरे पैदा किए हुए हैं) हम बिचारे जीवों की कोई बिसात ही नहीं कि तेरी बाबत एक रोम जितना भी कुछ कह सकें। (हम साधारण जीव तो किसी गिनती में ही नहीं) ब्रहमा, शिव, सिद्ध, मुनी, इन्द्र (आदि जैसे) बेअंत ये समझ नहीं सके कि तू कैसा है।1। किआ कथीऐ किछु कथनु न जाई ॥ जह जह देखा तह रहिआ समाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ कथीऐ = क्या बताएं? जह जह = जहाँ जहॉ। मैं देखता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा कैसा है? - ये बात) क्या बताएं? बताई नहीं जा सकती। मैं तो जिधर देखता हूँ, उधर परमात्मा ही सब जगह मौजूद है।1। रहाउ। जह महा भइआन दूख जम सुनीऐ तह मेरे प्रभ तूहै सहाई ॥ सरनि परिओ हरि चरन गहे प्रभ गुरि नानक कउ बूझ बुझाई ॥२॥५॥९१॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ। भइआन = भयानक। दूख जम = जमों के दुख। तह = वहाँ। प्रभ = हे प्रभु! गहे = पकड़े। गुरि = गुरु ने। कउ = को। बूझ बुझाई = समझ दी है।2। अर्थ: हे मेरे प्रभु! जहाँ ये सुना जाता है कि जमों के बड़े ही भयानक दुख मिलते हैं, वहीं तू ही (बचाने के लिए) मददगार है; गुरु ने (मुझे) नानक को यह समझ दी है। तभी मैं नानक तेरी शरण आ पड़ा हूँ, तेरे चरण पकड़ लिए हैं।2।5।91। बिलावलु महला ५ ॥ अगम रूप अबिनासी करता पतित पवित इक निमख जपाईऐ ॥ अचरजु सुनिओ परापति भेटुले संत चरन चरन मनु लाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगम रूप = अगम्य (पहुँच से परे) हस्ती वाला। पतित पवित = विकारियों को पवित्र करने वाला। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। इक निमख = एक-एक पल, हर वक्त। जपाईऐ = जपना चाहिए। परापति = मिलाप। भेटुले = मिलने पर। चरन = चरणों में।1। अर्थ: हे भाई! विकारियों को पवित्र करने वाले, अगम्य (पहुँच से परे) हस्ती वाले नाश-रहित कर्तार को हर पल जपते रहना चाहिए। ये सुनते हैं कि वह आश्चर्य है आश्चर्य है, (उससे) मिलाप हो जाता है अगर संतजनों के चरणों से मिलाप प्राप्त हो जाए। (तो संतजनों के) चरणों में मन जोड़ना चाहिए।1। कितु बिधीऐ कितु संजमि पाईऐ ॥ कहु सुरजन कितु जुगती धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कितु बिधीऐ = किसी बिधि से? कितु संजमि = किस संजम से? कितु = (शब्द ‘किसु’ का कर्ण कारक) किसके द्वारा? संजम = संयम। सुरजन = हे भले पुरुख! कहु = बताओ। कितु जुगती = किस तरीके से?।1। रहाउ। अर्थ: हे भले पुरुष! (मुझे) बताओ कि परमात्मा को किस तरीके से स्मरणा चाहिए। किस बिधि से, किस संजम से वह मिल सकता है?।1। रहाउ जो मानुखु मानुख की सेवा ओहु तिस की लई लई फुनि जाईऐ ॥ नानक सरनि सरणि सुख सागर मोहि टेक तेरो इक नाईऐ ॥२॥६॥९२॥ पद्अर्थ: तिस की = उस की (की हुई सेवा)। लई लई जाईऐ = लिए ही जाता है, सदा याद रखता है। सुख सागर = सुखों का समुंदर। मोहि = मुझे। इक नाईऐ = एक नाम की, सिर्फ नाम की। फुनि = दोबारा, बार बार।2। नोट: ‘जो मानुखु मानुख की’ में से शब्द ‘मानुखु’ और ‘मानुख’ का व्याकर्णिक फर्क याद रखने योग्य है। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जो मनुष्य किसी और मनुष्य की (कोई) सेवा करता है वह उसकी की हुई सेवा को सदा ही बार-बार याद करता रहता है; पर हे प्रभु! तू सुखों का समुंदर है (तू अनेक ही सुख बख्शता है इस वास्ते) मैं सदा तेरी ही शरण तेरी ही शरण पड़ा रहूँगा, मुझे सिर्फ तेरे नाम का ही सहारा है।2।6।92। बिलावलु महला ५ ॥ संत सरणि संत टहल करी ॥ धंधु बंधु अरु सगल जंजारो अवर काज ते छूटि परी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संत सरणि = गुरु की शरण। करी = (जब) मैंने की। धंधु = धंधा। बंधु = बंधन। अरु = और। जंजारो = जंजाल। काज ते = कामों से। छूटि परी = (मेरी तवज्जो) छूट गई।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब मैं गुरु की शरण आ पड़ा, जब मैं गुरु की सेवा करने लग पड़ा, (मेरे अंदर से) धंधा, बंधन और सारा जंजाल (समाप्त हो गए), मेरी रुचि और-और काम से मुक्त हो गई।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |