श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूख सहज अरु घनो अनंदा गुर ते पाइओ नामु हरी ॥ ऐसो हरि रसु बरनि न साकउ गुरि पूरै मेरी उलटि धरी ॥१॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घनो = घणो, बहुत। ते = से। ऐसो = ऐसे। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। गुरि = पूरे गुरु ने। मेरी = मेरी रुचि। उलटि धरी = (माया की ओर से) पलटा दी।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु से मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त हासिल कर लिया (जिसकी इनायत से) आत्मिक अडोलता का सुख और आनंद (मेरे अंदर उत्पन्न हो गया)। हरि-नाम का स्वाद मुझे ऐसा आया कि मैं वह बयान नहीं कर सकता। गुरु ने मेरी रुचि माया की तरफ से पलट दी।1।

पेखिओ मोहनु सभ कै संगे ऊन न काहू सगल भरी ॥ पूरन पूरि रहिओ किरपा निधि कहु नानक मेरी पूरी परी ॥२॥७॥९३॥

पद्अर्थ: पेखिआ = मैंने देख लिया। मोहनु = सुंदर प्रभु (देखें मूल पंना 248। वहाँ भी प्रभु का ही जिकर है, बाबा मोहन जी का नहीं)। कै संगे = के साथ। ऊन = कमी, ऊणा, खाली। सगल = सारी सृष्टि। किरपा निधि = कृपा के खजाने प्रभु। नानक = हे नानक! पूरी परी = मेरी मेहनत सफल हो गई।2।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की कृपा से) सुंदर प्रभु को मैंने सबमें बसता देख लिया है, कोई भी जगह उस प्रभु से वंचित नहीं दिखती, सारी ही सृष्टि प्रभु की जीवन-लहर से भरपूर दिखाई दे रही है। कृपा के खजाने परमात्मा हर जगह पूर्ण तौर पर व्यापक दिख रहे हैं। हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु की मेहर से) मेरी मेहनत सफल हो गई है।2।7।93।

बिलावलु महला ५ ॥ मन किआ कहता हउ किआ कहता ॥ जान प्रबीन ठाकुर प्रभ मेरे तिसु आगै किआ कहता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे (मेरे) मन! हउ = जीव। जान = जाननहार। प्रबीन = समझदार। तिसु आगै = उस (प्रभु) के सामने।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! तू क्या कह रहा है? हे जीव! तू क्या कहता है? मेरे ठाकुर प्रभु जी तो सब जीवों के दिलों की जानने वाले और समझने वाले हैं। हे जीव! उसके आगे कोई (ठगी-फरेब की) बात नहीं कही जा सकती।1। रहाउ।

अनबोले कउ तुही पछानहि जो जीअन महि होता ॥ रे मन काइ कहा लउ डहकहि जउ पेखत ही संगि सुनता ॥१॥

पद्अर्थ: अनबोले = ना बोले हुए बोल को। जीअन = दिलों में। काइ = क्यों? कहा लउ = कब तक? डहकहि = तू ठगी करेगा। जउ = जब। संगि = साथ।1।

अर्थ: हे प्रभु! जो हम जीवों के दिलों में होता है, उसको बताए बिना तू खुद ही (पहले ही) पहचान लेता है। हे मन! तू क्यों ठगी करता है? कब तक ठगी किए जाएगा? परमात्मा तो तेरे साथ (बसता हुआ तेरे कर्म) देख रहा है, और, सुन भी रहा है।1।

ऐसो जानि भए मनि आनद आन न बीओ करता ॥ कहु नानक गुर भए दइआरा हरि रंगु न कबहू लहता ॥२॥८॥९४॥

पद्अर्थ: जानि = जान के। मनि = मन में। आन = अन्य, कई और। बीओ = दूसरा। दइआरा = दयावान।2।

अर्थ: हे भाई! यह जान के कि, परमात्मा के बिना और दूसरा कुछ भी करने के योग्य नहीं, (जानने वाले के) मन में हिलौरे पैदा हो जाते हैं। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर गुरु मेहरवान होता है (उसके दिल में से) परमात्मा का प्रेम-रंग कभी नहीं उतरता।2।8।94।

बिलावलु महला ५ ॥ निंदकु ऐसे ही झरि परीऐ ॥ इह नीसानी सुनहु तुम भाई जिउ कालर भीति गिरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: झरि = झड़ के, गिर के। परीऐ = नीचे गिर पड़ता है, आत्मिक मौत के गढे में जा पड़ता है। भाई = हे भाई! नीसानी = लक्षण। कालर भीति = कल्लर की दीवार।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सुन, कल्लर की दीवार (किर किर के) गिर जाती है, यही निशानी निंदक के जीवन की है। निंदक भी इसी तरह आत्मिक उच्चता से गिर जाता है (निंदा उसके आत्मिक जीवन को, मानो, कल्लर लगा हुआ है)।1। रहाउ।

जउ देखै छिद्रु तउ निंदकु उमाहै भलो देखि दुख भरीऐ ॥ आठ पहर चितवै नही पहुचै बुरा चितवत चितवत मरीऐ ॥१॥

पद्अर्थ: जउ = जब। छिद्रु = नुक्स। तउ = तब। उमाहै = खुश होता है। भलो = (किसी की) भलाई। चितवै = (किसी के नुकसान करने की) सोच सोचता रहता है। नही पहुचै = (बुराई करने तक) पहुँच नहीं सकता। मरीऐ = आत्मिक मौत मर जाता है।1।

अर्थ: हे भाई! जब (कोई) निंदक (किसी मनुष्य में कोई) खामी देखता है तब वह खुश होता है, पर किसी के गुण देख के निंदक दुखी होता है। आठों पहर (हर वक्त) निंदक किसी के साथ बुराई करने की सोचें सोचता रहता है, बुराई कर सकने तक पहुँच तो सकता नहीं, बुराई की बिउंत सोचते-सोचते ही आत्मिक मौत मर जाता है।1।

निंदकु प्रभू भुलाइआ कालु नेरै आइआ हरि जन सिउ बादु उठरीऐ ॥ नानक का राखा आपि प्रभु सुआमी किआ मानस बपुरे करीऐ ॥२॥९॥९५॥

पद्अर्थ: कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिउ = साथ। बादु = झगड़ा। बपुरे = बिचारे।2।

अर्थ: हे भाई! निंदक को ज्यों-ज्यों प्रभु (निंदा वाले) गलत रास्ते पर डालता है, त्यों त्यों निंदक की मुकम्मल आत्मिक मौत नजदीक आती जाती है, वह निंदक संत जनों से वैर लिए रहता है। पर, हे नानक! संतजनों का रखवाला मालिक-प्रभु खुद ही है। बिचारे जीव उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।2।9।95।

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसे काहे भूलि परे ॥ करहि करावहि मूकरि पावहि पेखत सुनत सदा संगि हरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसे = इस तरह। काहे = क्यों? भूलि परे = (जीव) भूले पड़े हैं, गलत राह पर पड़े हुए हैं। करहि करावहि = (जीव सब कुछ) करते कराते हैं। पेखत = देखता। संगि = साथ।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! पता नहीं जीव) क्यों इस तरह गलत राह पर पड़े रहते हैं। (जीव सारे बुरे कर्म) करते कराते भी हैं, (फिर) मुकर भी जाते हैं (कि हमने नहीं किए)। पर परमात्मा सदा सब जीवों के साथ बसता (सबकी करतूतें) देखता-सुनता है।1। रहाउ।

काच बिहाझन कंचन छाडन बैरी संगि हेतु साजन तिआगि खरे ॥ होवनु कउरा अनहोवनु मीठा बिखिआ महि लपटाइ जरे ॥१॥

पद्अर्थ: काच = काँच। बिहाझन = खरीदना, व्यापार करना। कंचन = सोना। हेतु = प्यार। खरे साजन = सच्चे मित्र। होवनु = जो सदा कायम है, परमात्मा। कउरा = कौड़ा। अनहोवन = जो सदा रहने वाला नहीं, जगत। बिखिआ = माया। जरे = जलते हैं, खिझते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! काँच का व्यापार करना, सोना छोड़ देना, सच्चे मित्र त्याग के वैरी से प्यार- (ये हैं जीवों की करतूतें)। परमात्मा (का नाम) कड़वा लगना, माया का मोह मीठा लगना (-यह है जीवों का नित्य का स्वभाव। माया के मोह में फंस के सदा खिजते रहते हैं)।1।

अंध कूप महि परिओ परानी भरम गुबार मोह बंधि परे ॥ कहु नानक प्रभ होत दइआरा गुरु भेटै काढै बाह फरे ॥२॥१०॥९६॥

पद्अर्थ: अंध कूप महि = अंधे कूएं में। भरमु = भटकना। गुबार = अंधेरा। बंधि = बंधन में। दइआरा = दइआल। भेटै = मिलता है। फरे = पकड़े।2।

अर्थ: हे भाई! जीव (सदा) मोह के अंधे (अंधेरे) कूएं में पड़े रहते हैं, (जीवों को सदा) भटकना लगी रहती है, मोह के अंधेरे जकड़ में फसे रहते हैं (पता नहीं ये क्यों इस तरह गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं)। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर प्रभु दयावान होता है, उसे गुरु मिल जाता है (और, उस गुरु की) बाँह पकड़ के (उसको अंधेरे कूएं में से) निकाल लेता है।2।10।96।

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन रसना हरि चीन्हा ॥ भए अनंदा मिटे अंदेसे सरब सूख मो कउ गुरि दीन्हा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरि चीना = हरि चीन्हा, प्रभु से सांझ डाल ली। रसना = जीभ। मो कउ = मुझे। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! मेरे) गुरु ने मुझे सारे (ही) सुख दे दिए हैं, मेरे फिक्र-अंदेशे मिट गए हैं, मेरे अंदर आनंद ही आनंद बन गया है (क्योंकि गुरु की कृपा से) मेरे मन मेरे तन मेरी जीभ ने परमात्मा के साथ सांझ डाल ली है।1। रहाउ।

इआनप ते सभ भई सिआनप प्रभु मेरा दाना बीना ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ काहू न करते कछु खीना ॥१॥

पद्अर्थ: इआनप = बेसमझी। ते = से। दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला। देइ = दे के। कउ = को। खीना = नुकसान।1।

अर्थ: हे भाई! बेसमझी की जगह मेरे अंदर अब समझदारी पैदा हो गई है (क्योंकि गुरु की कृपा से मुझे विश्वास हो गया है कि) परमात्मा (सब दिलों की) जानने वाला है (सबके किए काम) देखने वाला है। (मुझे निश्चय हो गया है कि) परमात्मा अपने सेवकों को आप हाथ दे के बचा लेता है, कोई भी मनुष्य (सेवक का) कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

बलि जावउ दरसन साधू कै जिह प्रसादि हरि नामु लीना ॥ कहु नानक ठाकुर भारोसै कहू न मानिओ मनि छीना ॥२॥११॥९७॥

पद्अर्थ: जावउ = जाऊँ। बलि जावउ = मैं सदके जाता हूँ। साधू = गुरु। जिह प्रसादि = जिस (गुरु) की कृपा से। मनि = मन में। छीना = एक छिन भर भी। कहु = किसी और को।

अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के दर्शनों से सदके जाता हूँ, क्योंकि उस गुरु की कृपा से (ही) मैं परमात्मा का नाम जप सका हूँ। हे नानक! कह: (अब) परमात्मा के भरोसे पर किसी और (के आसरे) को एक पल के लिए भी अपने मन में नहीं मानता।2।11।97।

बिलावलु महला ५ ॥ गुरि पूरै मेरी राखि लई ॥ अम्रित नामु रिदे महि दीनो जनम जनम की मैलु गई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदे महि = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! विकारों से मुकाबले में) पूरे गुरु ने मेरी इज्जत रख ली है। गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हरि-नाम मेरे हृदय में बसा दिया है, (उस नाम की इनायत से) अनेक जन्मों के किए कर्मों की मैल मेरे मन में से दूर हो गई है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh