श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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निवरे दूत दुसट बैराई गुर पूरे का जपिआ जापु ॥ कहा करै कोई बेचारा प्रभ मेरे का बड परतापु ॥१॥

पद्अर्थ: निवरे = दूर हो गए हैं। दूत = (कामादिक) दुश्मन। बैराई = वैरी। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। परतापु = ताकत।1।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु का बताया हुआ हरि-नाम का जाप जब से मैंने जपना शुरू किया है, (कामादिक) सारे वैरी दुर्जन भाग गए हैं। मेरे प्रभु की बड़ी ताकत है, अब (इनमें से) कोई भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ चरन कमल रखु मन माही ॥ ता की सरनि परिओ नानक दासु जा ते ऊपरि को नाही ॥२॥१२॥९८॥

पद्अर्थ: रखु = टेक, आसरा। माही = में। ता की = उस (प्रभु) की। जा ते ऊपरि = जिससे बड़ा।2।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की किरपा से परमात्मा के सोहणे चरण) मेरे मन में आसरा बन गए हैं, उसका नाम (हर वक्त) स्मरण कर-कर के मैंने आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। हे भाई! (प्रभु का) दास नानक उस (प्रभु) की शरण पड़ गया है जिससे बड़ा और कोई नहीं।2।12।98।

बिलावलु महला ५ ॥ सदा सदा जपीऐ प्रभ नाम ॥ जरा मरा कछु दूखु न बिआपै आगै दरगह पूरन काम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपीऐ = जपना चाहिए। जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकते। आगै = आगे, परलोक में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने की इनायत से ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जिसको) बुढ़ापा, मौत अथवा दुख कुछ भी छू नहीं सकते। आगे भी परमात्मा की हजूरी में भी सफलता ही मिलती है।1। रहाउ।

आपु तिआगि परीऐ नित सरनी गुर ते पाईऐ एहु निधानु ॥ जनम मरण की कटीऐ फासी साची दरगह का नीसानु ॥१॥

पद्अर्थ: आपु = स्वैभाव। परीऐ = पड़ना चाहिए। ते = से। निधानु = खजाना। कटीऐ = काट सकते हैं। नीसानु = राहदारी, परवाना।1।

अर्थ: (पर, हे भाई!) ये (नाम-) खजाना गुरु से (ही) मिलता है, स्वैभाव त्याग के सदा (गुरु की) शरण पड़ना चाहिए। ये नाम सदा-स्थिर प्रभु की हजूरी में पहुँचने के लिए परवाना है, (नाम की सहायता से) जनम-मरन की फाँसी (भी) काटी जाती है।1।

जो तुम्ह करहु सोई भल मानउ मन ते छूटै सगल गुमानु ॥ कहु नानक ता की सरणाई जा का कीआ सगल जहानु ॥२॥१३॥९९॥

पद्अर्थ: मानउ = मानूँ, मानता हूँ। मन ते = मन से। छूटै = खत्म हो जाता है। गुमानु = अहंकार। ता की = उस (प्रभु) की। सगल = सारा।2।

अर्थ: (हे भाई! अगर मुझे तेरा नाम मिल जाए, तो) जो कुछ तू करता है, वह मैं भला समझने लग जाऊँगा, (तेरे नाम की इनायत से) मन से सारा अहंकार समाप्त हो जाता है। हे नानक! कह (-हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए, जिसका पैदा किया हुआ सारा जहान है।2।13।99।

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन अंतरि प्रभु आही ॥ हरि गुन गावत परउपकार नित तिसु रसना का मोलु किछु नाही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन तन अंतरि = मन अंतर तन अंतर। आही = है, बसता है। गावत = गाते हुए। रसना = जीभ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में तन में (हृदय में) (सदा) प्रभु बसता है, प्रभु के गुण गाते हुए, दूसरे की भलाई की बातें हमेशा करते हुए, उस मनुष्य की जीभ अमल्य हो जाती है।1। रहाउ।

कुल समूह उधरे खिन भीतरि जनम जनम की मलु लाही ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना अनद सेती बिखिआ बनु गाही ॥१॥

पद्अर्थ: कुल समूह = सारी कुलें। उधरे = (संसार समुंदर से) बच निकलती हैं, उद्धार हो जाता है। भीतरि = में। सिमरि = स्मरण करके। सेती = साथ। बिखिआ = माया। बनु = जंगल। गाही = नाप ली, थाह पा ली, गाह ली।1।

अर्थ: हे भाई! अपने मालिक प्रभु का नाम सदा स्मरण करके (स्मरण करने वाले संत-भक्त) माया (के संसार-) जंगल से बड़े ही मजे पार लांघ जाते हैं, वे अपनी जन्मों-जन्मों के किए कर्मों की मैल उतार लेते हैं, उनकी सारी कुलें भी छिन में (संसार-जंगल में से) बच के निकल जाती हैं।1।

चरन प्रभू के बोहिथु पाए भव सागरु पारि पराही ॥ संत सेवक भगत हरि ता के नानक मनु लागा है ताही ॥२॥१४॥१००॥

पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भव सागरु = संसार समुंदर। पराही = पड़े, पड़ जाते हैं, पार हो जाते हैं। ता के = उस (प्रभु) के। ताही = उस (प्रभु) में ही।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों का जहाज़ प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! वही मनुष्य उस प्रभु के संत हैं, भक्त हैं, सेवक हैं। उनका मन उस प्रभु में ही सदा टिका रहता है।2।14।100।

बिलावलु महला ५ ॥ धीरउ देखि तुम्हारे रंगा ॥ तुही सुआमी अंतरजामी तूही वसहि साध कै संगा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धीरउ = मेरे मन को धैर्य आ जाता है। देखि = देख के। रंगा = करिश्मे। सुआमी = मालिक। अंतरजामी = दिलों की जानने वाले। वसहि = बसता है। कै संगा = के साथ।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे चोज-तमाशे देख-देख के मुझे (भी) हौसला बन रहा है (कि तू मेरी भी सहायता करेगा)। तू ही (हमारा) मालिक है, तू ही हमारे दिलों की जानने वाला है, तू ही (हरेक) साधु-जन के साथ बसता है।1। रहाउ।

खिन महि थापि निवाजे ठाकुर नीच कीट ते करहि राजंगा ॥१॥

पद्अर्थ: थापि = स्थापित करके, शाबाशी दे के। निवाजे = आदर सम्मान वाले बना दिए। ठाकुर = हे ठाकुर! कीट ते = कीड़े से। करहि = तू कर देता है। राजंगा = राजा।1।

अर्थ: हे मालिक! तू नीच कीड़ों (जैसे नाचीज़ बंदों) को राजा बना देता है। तू एक छिन में ही (नीच लोगों को) थापणा दे के आदर-सम्मान वाले बना देता है।1।

कबहू न बिसरै हीए मोरे ते नानक दास इही दानु मंगा ॥२॥१५॥१०१॥

पद्अर्थ: कब हू = कभी भी। हीए ते = हृदय से। मंगा = मैं माँगता हूँ।2।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर, तेरा नाम) मेरे हृदय में से कभी ना भूले। (तेरे दर से) मैं ख़ैर माँगता हूँ।2।15।101।

बिलावलु महला ५ ॥ अचुत पूजा जोग गोपाल ॥ मनु तनु अरपि रखउ हरि आगै सरब जीआ का है प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अचुत = अविनाशी, कभी नाश ना होने वाला। पूजा जोग = पूजा के काबिल। गोपाल = धरती का रखवाला। अरपि = भेटा करके। रखउ = मैं रखूँ। प्रतिपाल = पालना करने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! धरती का रखवाला और अबिनाशी प्रभु ही पूजा का हकदार है। मैं अपना मन और अपना तन भेटा करके उस प्रभु के आगे (ही) रखता हूँ। वह प्रभु सारे जीवों को पालने वाला है।1। रहाउ।

सरनि सम्रथ अकथ सुखदाता किरपा सिंधु बडो दइआल ॥ कंठि लाइ राखै अपने कउ तिस नो लगै न ताती बाल ॥१॥

पद्अर्थ: सरनि सम्रथ = शरण आए की सहायता करने योग्य। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। सिंधु = समुंदर। कंठि = गले से। कउ = को। ताती बाल = गर्म हवा, सेक।1।

नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! प्रभु शरण पड़े जीव की रक्षा करने के समर्थ है, उसके स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता, वह सारे सुखों को देने वाला है, कृपा का समुंदर है, बड़ा ही दयालु है। वह प्रभु अपने (सेवक) को अपने गले से लगा के रखता है, (फिर) उस (सेवक) को कोई दुख-कष्ट रक्ती भर भी छू नहीं सकता।1।

दामोदर दइआल सुआमी सरबसु संत जना धन माल ॥ नानक जाचिक दरसु प्रभ मागै संत जना की मिलै रवाल ॥२॥१६॥१०२॥

पद्अर्थ: दामोदर = (दामन उदर) परमात्मा। सरबसु = (सर्वस्व = सारा धन पदार्थ) सब कुछ। जाचिक = भिखारी। प्रभ = हे प्रभु! रवाल = चरण धूल।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा दया का घर है, सबका मालिक है, संतजनों के वास्ते वही धन माल है और सब कुछ है। उस प्रभु (के दर) का भिखारी नानक उसके दर्शन की खैर माँगता है (और अरजोई करता है कि उसके) संत जनों के चरणों की धूल मिल जाएं2।16।102।

बिलावलु महला ५ ॥ सिमरत नामु कोटि जतन भए ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए जमदूतन कउ त्रास अहे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जतन = (तीर्थ, कर्मकांड आदि) उद्यम। साध संगि = गुरु की संगति में। मिलि = मिल के। कउ = को। त्रास = डर। अहे = हो जाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण करने से (तीर्थ, कर्मकांड आदि) करोड़ों ही उद्यम (मानों अपने आप) हो जाते हैं। (जिस मनुष्य ने) गुरु की संगति में मिल के प्रभु के गुण गाने शुरू कर दिए, जमदूतों को (उसके नजदीक जाने से) डर आने लग पड़ा।1। रहाउ।

जेते पुनहचरन से कीन्हे मनि तनि प्रभ के चरण गहे ॥ आवण जाणु भरमु भउ नाठा जनम जनम के किलविख दहे ॥१॥

पद्अर्थ: जेते = जितने ही, सारे ही। पुनह चरन = प्रायश्चित वाले कर्म, पापों की निर्विति के लिए किए हुए कर्म। से = (बहुवचन) वह। मनि = मन में। तनि = हृदय में। गहे = पकड़े। नाठा = भाग गया। किलविख = पाप। दहे = दहन हो गया, जल गया।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु के चरण अपने मन में अपने दिल में बसा लिए, उसने (पिछले कर्मों के संस्कारों को मिटाने के लिए, मानो) सारे ही प्रायश्चित कर्म कर लिए। उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया, उसका हरेक भ्रम डर दूर हो गया, उसके अनेक जन्मों के किए पाप जल गए।1।

निरभउ होइ भजहु जगदीसै एहु पदारथु वडभागि लहे ॥ करि किरपा पूरन प्रभ दाते निरमल जसु नानक दास कहे ॥२॥१७॥१०३॥

पद्अर्थ: जगदीसै = जगत के ईश (मालिक) को। वड भागि = बड़ी किस्मत से। लहे = पाता है। प्रभ = हे प्रभु! दाते = हे दातार! निरमल = पवित्र करने वाला। जसु = यश, महिमा।2।

अर्थ: (इसलिए, हे भाई!) निडर हो के (कर्मकांड का भ्रम उतार के) जगत के मालिक प्रभु का नाम जपा करो। ये नाम-पदार्थ बड़ी किस्मत से मिलता है। हे सर्व-व्यापक दातार प्रभु! मेहर कर, ता कि तेरा दास नानक पवित्र करने वाली तेरी महिमा करता रहे।2।17।103।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh