श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 825 बिलावलु महला ५ ॥ सुलही ते नाराइण राखु ॥ सुलही का हाथु कही न पहुचै सुलही होइ मूआ नापाकु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से। नाराइण = हे प्रभु! राखु = बचा ले। कही = कहीं भी। नापाकु = अपवित्र, मलीन बुद्धि।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु मुझ सेवक की तो तेरे पास ही अरजोई थी कि) हे प्रभु! (हमें) सूलही (खान) से बचा ले, और सूलही का (जुल्म भरा) हाथ (हम पर) कहीं भी ना पहुँच सके। (हे भाई! प्रभु ने स्वयं मेहर की है) सूलही (खान) मलीन बुद्धि हो के मरा है।1। रहाउ। काढि कुठारु खसमि सिरु काटिआ खिन महि होइ गइआ है खाकु ॥ मंदा चितवत चितवत पचिआ जिनि रचिआ तिनि दीना धाकु ॥१॥ पद्अर्थ: काढि = निकाल के। कुठारु = (मौत रूप) कुहाड़ा। खसमि = मालिक (-प्रभु) ने। खाकु = मिट्टी, राख। पचिआ = जल के मर गया है। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिनि = उस (प्रभु) ने। धाकु = धक्का।1। अर्थ: हे भाई! पति प्रभु ने (मौत रूपी) कुहाड़ा निकाल के (सूलही का) सिर कलम कर दिया है, (जिसके कारण वह) एक पल में ही राख की ढेरी हो गया है। औरों का नुकसान करना सोचते सोचते (सूलही खुद) जल मरा है। जिस प्रभु ने उसको पैदा किया था, उसने (ही उसको परलोक की ओर) धकेल दिया है।1। पुत्र मीत धनु किछू न रहिओ सु छोडि गइआ सभ भाई साकु ॥ कहु नानक तिसु प्रभ बलिहारी जिनि जन का कीनो पूरन वाकु ॥२॥१८॥१०४॥ पद्अर्थ: न रहिओसु = उस (सुलही) का नहीं रहा। छोडि = छोड़ के। कहु = कह। बलिहारी = कुर्बान। जिनि = जिस (प्रभु) ने। जन का वाकु = सेवक की अरदास।2। अर्थ: हे भाई! सारे संबंधी (कुटंब) छोड़ के (सूलही इस दुनिया से) चला गया है। उसके लिए तो ना कोई पुत्र रह गया, ना कोई मित्र रह गया, ना धन रह गया, उसकी बाबत तो कुछ भी ना रहा। हे नानक! कह: मैं उस प्रभु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने अपने सेवक की अरदास सुनी है (और, सेवक को सूलही से बचाया है)।2।18।104। भाव: कोई भी बिपता आती दिखाई दे, परमात्मा के दर पर ही अरजोई करनी फबती है। बिलावलु महला ५ ॥ पूरे गुर की पूरी सेव ॥ आपे आपि वरतै सुआमी कारजु रासि कीआ गुरदेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पूरी = सफल। सेव = सेवा भक्ति, शरण, ओट। आपे = आप। वरतै = हर जगह मौजूद है। रासि कीआ = सफल कर दिया है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु का आसरा (जिंदगी को) कामयाब (बना देता है)। (शरण आए सिख का) हरेक काम गुरु ने (सदा) सफल किया है। (गुरु की कृपा से ये विश्वास बन जाता है कि) मालिक-प्रभु हर जगह खुद ही खुद मौजूद है।1। रहाउ। आदि मधि प्रभु अंति सुआमी अपना थाटु बनाइओ आपि ॥ अपने सेवक की आपे राखै प्रभ मेरे को वड परतापु ॥१॥ पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = (जगत रचना के) बीच, अब। अंति = आखिर में भी। थाटु = जगत रचना। परतापु = ताकत।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु ये श्रद्धा पैदा करता है कि) जिस प्रभु ने अपना ये जगत-खेल बनाया है वह मालिक प्रभु (इस खेल के) आरम्भ में, अब और आखिर में सदा कायम रहने वाला है। (गुरु से ये निश्चय मिलता है कि) उस परमात्मा की बड़ी ताकत है, अपने सेवक की वह स्वयं ही इज्जत (सदा) रखता आया हैं1। पारब्रहम परमेसुर सतिगुर वसि कीन्हे जिनि सगले जंत ॥ चरन कमल नानक सरणाई राम नाम जपि निरमल मंत ॥२॥१९॥१०५॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। सगले = सारे। नानक = हे नानक! जपि = जप के। निरमल = पवित्र आचरण वाला। मंत = मंत्र।2। अर्थ: हे नानक! जिस पारब्रहम परमेश्वर ने सारे जीव-जंतु अपने वश में रखे हुए हैं, उसके सुंदर चरणों की शरण पड़े रहना चाहिए, गुरु की शरण पड़े रहना चाहिए। (गुरु की शरण पड़ के) प्रभु का नाम-मंत्र जपने से पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।2।19।105। बिलावलु महला ५ ॥ ताप पाप ते राखे आप ॥ सीतल भए गुर चरनी लागे राम नाम हिरदे महि जाप ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ताप ते = दुख-कष्टों से। राखे = बचाता है। सीतल = शांत। महि = में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगते हैं और परमात्मा का नाम हृदय में जपते हैं, उनके हृदय ठंडे-ठार हो जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उनको सारे दुख-कष्टों व विकारों से बचा लेता है।1। रहाउ। करि किरपा हसत प्रभि दीने जगत उधार नव खंड प्रताप ॥ दुख बिनसे सुख अनद प्रवेसा त्रिसन बुझी मन तन सचु ध्राप ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। हसत = हाथ। प्रभि = प्रभु ने। जगत उधार = सारे जगत को पार उतारने वाला। नवखंड = नौ खण्डों में, सारे संसार में। प्रताप = तेज। सचु = सदा स्थिर हरि नाम। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) प्रभु ने सदा मेहर कर के अपने हाथ (उनके सिर पर) रखे हैं। वह प्रभु सारे जगत को पार लंघाने वाला है, उसका तेज सारे संसार में चमक रहा है। (स्मरण करने वाले मनुष्यों के) सारे दुख नाश हो जाते हैं, उनके हृदय में सुख-आनंद आ बसते हैं, सदा स्थिर हरि-नाम जप के उनकी तृष्णा मिट जाती है, उनका मन तृप्त हो जाता है, उनका शरीर (इन्द्रियाँ) संतुष्ट हो जाते हैं।1। अनाथ को नाथु सरणि समरथा सगल स्रिसटि को माई बापु ॥ भगति वछल भै भंजन सुआमी गुण गावत नानक आलाप ॥२॥२०॥१०६॥ पद्अर्थ: को = का। नाथु = पति। सरणि समरथा = शरण पड़े की सहायता के समर्थ। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला है। भै भंजन = सारे डर नाश करने वाला। आलाप = उच्चारण कर।2। अर्थ: हे नानक! परमात्मा निखस्मों का खसम है, शरण आए हुओं की सहायता करने योग्य है, सारी सृष्टि का माता-पिता है। वह मालिक-प्रभु भक्ति को प्यार करने वाला है, सारे डर दूर करने वाला है, उसके गुण गा-गा के उसका नाम जपा कर।2।20।106। बिलावलु महला ५ ॥ जिस ते उपजिआ तिसहि पछानु ॥ पारब्रहमु परमेसरु धिआइआ कुसल खेम होए कलिआन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिस ते = जिस (परमात्मा) से। ते = से। तिसहि = तिसु ही, उसको ही। पछाण = पहचान, सांझ डाल। कुसल खेम = सुख सांद।1। रहाउ। नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा से तू पैदा हुआ है, उसके साथ ही (सदा) सांझ डाले रख। जिस मनुष्य ने उस पारब्रहम परमेश्वर का नाम स्मरण किया है उसके अंदर शांति सुख व आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ। गुरु पूरा भेटिओ बड भागी अंतरजामी सुघड़ु सुजानु ॥ हाथ देइ राखे करि अपने बड समरथु निमाणिआ को मानु ॥१॥ पद्अर्थ: भेटिओ = मिला। बडभागी = जिस बड़े भाग्य वाले को। सुघड़ु = सुघड़, सोहना। सुजान = समझदार। देइ = दे के।1। अर्थ: हे भाई! जिस भाग्यशाली लोगों को पूरा गुरु मिल जाता है, उन्हें हाथ दे के अपने बना के वह परमात्मा (सब प्रकार के डरों-भ्रमों से) बचाए रखता है, जो हरेक के दिल की जानने वाला है, सोहणा है, समझदार है, जो बड़ी ताकत का मालिक है और जो निमाणों को आदर-मान देने वाला है।1। भ्रम भै बिनसि गए खिन भीतरि अंधकार प्रगटे चानाणु ॥ सासि सासि आराधै नानकु सदा सदा जाईऐ कुरबाणु ॥२॥२१॥१०७॥ पद्अर्थ: भै = सारे डर। अंधकार = अंधेरा। चानाणु = प्रकाश। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। कुरबाणु = सदके।2। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके) सारे डर-भ्रम छिन में नाश हो जाते हैं, (उसके अंदर से मोह का) अंधकार दूर हो के (आत्मिक जीवन की) रौशनी हो जाती है। नानक (तो) हरेक सांस के साथ (उसी परमात्मा को) स्मरण करता है। (हे भाई! उस परमात्मा से) सदा सदके जाना चाहिए।2।21।107। बिलावलु महला ५ ॥ दोवै थाव रखे गुर सूरे ॥ हलत पलत पारब्रहमि सवारे कारज होए सगले पूरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दोवै थाव = (ये लोक और परलोक) दोनों जगहें। गुर सूरे = सूरमे गुरु ने। हलत = अत्र, यह लोक। पलत = परत्र, परलोक। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सवारे = सवार दिए हैं। सगले = सारे। पूरे = सफल।1। रहाउ। नोट: शब्द ‘थाव’ शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) सूरमा गुरु (उसका ये लोक और परलोक) दोनों ही (बिगड़ने से) बचा लेता है। परमात्मा ने (सदा ही ऐसे मनुष्य के) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, उस मनुष्य के सारे ही काम सफल हो जाते हैं1। रहाउ। हरि हरि नामु जपत सुख सहजे मजनु होवत साधू धूरे ॥ आवण जाण रहे थिति पाई जनम मरण के मिटे बिसूरे ॥१॥ पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मजनु = स्नान। साधू धूरे = गुरु के चरणों की धूल में। थिति = स्थिति, टिकाव। बिसूरे = चिन्ता फिक्र।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से आनंद प्राप्त होता है, आत्मिक अडोलता में टिके रहा जाता है, गुरु के चरणों की धूल का स्नान प्राप्त होता है, जनम मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, (प्रभु चरणों में) टिकाव प्राप्त होता है, जनम से मरने तक के सारे चिन्ता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |