श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 826 भ्रम भै तरे छुटे भै जम के घटि घटि एकु रहिआ भरपूरे ॥ नानक सरणि परिओ दुख भंजन अंतरि बाहरि पेखि हजूरे ॥२॥२२॥१०८॥ पद्अर्थ: तरे = पार लांघ गए। भै = भय, डर। घटि घटि = हरेक शरीर में। एकु = एक परमात्मा ही। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। पेखि = देखता है। हजूरे = अंग संग।2। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम जपता है, वह संसार-समुंदर के सारे) डरों-भ्रमों से पार लांघ जाता है, जमदूतों के बारे में भी उसके डर समाप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक दिखता है, वह मनुष्य सारे दुखों के नाश करने वाले प्रभु की शरण पड़ा रहता है, और अंदर-बाहर हर जगह प्रभु को अपने अंग-संग बसता देखता है।2।22।108। बिलावलु महला ५ ॥ दरसनु देखत दोख नसे ॥ कबहु न होवहु द्रिसटि अगोचर जीअ कै संगि बसे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दोख = (सारे) ऐब, विकार। द्रिसटि अगोचर = नजर की पहुँच से परे। जीअ कै संगि = जीवात्मा के साथ। बसे = बसे रहे।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु तेरे) दर्शन करते हुए (जीवों के) सारे विकार दूर हो जाते हैं। (हे प्रभु! मेहर कर) कभी भी मेरी नजर से परे ना हो, सदा मेरे प्राणों के साथ बसता रह।1। रहाउ। प्रीतम प्रान अधार सुआमी ॥ पूरि रहे प्रभ अंतरजामी ॥१॥ पद्अर्थ: प्रान अधार = जिंद का आसरा। पूरि रहे = हर जगह मौजूद। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला।1। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे जीवों की जिंद के आसरे! हे स्वामी! तू सबके दिल की जानने वाला है और सबमें व्यापक है।1। किआ गुण तेरे सारि सम्हारी ॥ सासि सासि प्रभ तुझहि चितारी ॥२॥ पद्अर्थ: सारि = याद करके। समारी = मैं सम्भालूँ, मैं हृदय में बसाऊँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। चितारी = मैं याद करता रहूँ।2। अर्थ: (हे प्रभु! तू बेअंत गुणों का मालिक है) मैं तेरे कौन-कौन से गुण याद कर कर के अपने हृदय में बसाऊँ? हे प्रभु! (कृपा कर) मैं अपनी हरेक सांस के साथ तुझे ही याद करता रहूँ।2। किरपा निधि प्रभ दीन दइआला ॥ जीअ जंत की करहु प्रतिपाला ॥३॥ पद्अर्थ: किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! प्रतिपाला = पालना।3। अर्थ: हे कृपा के खजाने! हे गरीबों पर दया करने वाले प्रभु! सारे जीवों की तू स्वयं ही पालना करता है।3। आठ पहर तेरा नामु जनु जापे ॥ नानक प्रीति लाई प्रभि आपे ॥४॥२३॥१०९॥ पद्अर्थ: जनु = दास, सेवक। प्रभि = प्रभु ने। आपे = स्वयं ही।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरा सेवक आठों पहर तेरा नाम जपता रहता है। (पर) हे नानक! (वही मनुष्य सदा नाम जपता है, जिसको) प्रभु ने स्वयं ही यह लगन लगाई है।4।23।109। बिलावलु महला ५ ॥ तनु धनु जोबनु चलत गइआ ॥ राम नाम का भजनु न कीनो करत बिकार निसि भोरु भइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। चलत गइआ = धीरे-धीरे साथ छोड़ जाता है। करत = करते हुए। बिकार = बुरे काम। निसि = रात (काले केसों वाली उम्र)। भोरु = (सफेद) दिन (सफेद बालों वाली उम्र)।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य का यह) शरीर, धन, जवानी (हरेक ही) आहिस्ता-आहिस्ता (मनुष्य का) साथ छोड़ते जाते हैं, (पर इनके मोह में फंसा हुआ मनुष्य) परमात्मा के नाम का भजन नहीं करता, बुरे काम करते करते काले केसों वाली उम्र से सफेद बालों वाली उम्र आ जाती है।1। रहाउ। अनिक प्रकार भोजन नित खाते मुख दंता घसि खीन खइआ ॥ मेरी मेरी करि करि मूठउ पाप करत नह परी दइआ ॥१॥ पद्अर्थ: अनिक प्रकार = कई किसमों के। भोजन = खाने। खाते = खाते हुए। घसि = घिस के। खीन = क्षीण, कमजोर। खइआ = नाश हो जाते हैं। मूठउ = ठगा जाता है।1। अर्थ: हे भाई! कई किस्मों के खाने नित्य खाते हुए मुँह के दाँत भी घिस के कमजोर हो जाते हैं, और आखिर गिर जाते हैं। ममता के पँजे में फंस के मनुष्य (आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी) लुटा लेता है, बुरे काम करते हुए इसके अंदर दया-तरस भी नहीं रह जाती।1। महा बिकार घोर दुख सागर तिसु महि प्राणी गलतु पइआ ॥ सरनि परे नानक सुआमी की बाह पकरि प्रभि काढि लइआ ॥२॥२४॥११०॥ पद्अर्थ: घोर दुख = बहुत सारे दुख। सागर = समुंदर। तिसु महि = उस (सागर) में। गलतु पइआ = ग़लतान, डूबा रहता है। पकरि = पकड़ के। प्रभि = प्रभु ने।2। अर्थ: (हे भाई! यह संसार) बड़े विकारों और भारे दुखों का समुंदर है (भजन से टूटा हुआ) मनुष्य इस (समुंदर) में डूबा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य मालिक प्रभु की शरण आ पड़े, उन्हे प्रभु ने बाँह पकड़ के (इस संसार-समुंदर में से) निकाल लिया, (ये उसका आदि कदीमी बिरद भरा स्वभाव है)।2।24।110। बिलावलु महला ५ ॥ आपना प्रभु आइआ चीति ॥ दुसमन दुसट रहे झख मारत कुसलु भइआ मेरे भाई मीत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। दुसट = दुष्ट। रहे झख मारत = झख मारते रह गए, नुकसान करने का प्रयत्न कर कर के थक गए। कुसलु = सुख। भाई = हे भाई! मीत = हे मित्र!।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र! जिस मनुष्य के चिक्त में प्यारा प्रभु आ बसता है, बुरे लोग और वैरी उसको नुकसान पहुँचाने का यत्न करते थक जाते हैं (उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, उसके हृदय में सदा) आनंद बना रहता है।1। रहाउ। गई बिआधि उपाधि सभ नासी अंगीकारु कीओ करतारि ॥ सांति सूख अरु अनद घनेरे प्रीतम नामु रिदै उर हारि ॥१॥ पद्अर्थ: बिआधि = शारीरिक रोग। उपाधि = ठगी, फरेब, धोखा। अंगीकारु = सहायता, पक्ष। करतारि = कर्तार ने। अरु = और। घनेरे = अनेक। रिदै = हृदय में। उरहारि = उर धारि, हृदय में बसा के। उर = हृदय।1। अर्थ: हे मित्र! कर्तार ने (जब भी किसी की) सहायता की, उसका हरेक रोग दूर हो गया, (उसके साथ किसी का भी किया हुआ) कोई छल कामयाब नही हुआ। प्रीतम प्रभु का नाम हृदय में बसाने की इनायत से उस मनुष्य के अंदर शांति सुख और अनेक आनंद पैदा हो गए।1। जीउ पिंडु धनु रासि प्रभ तेरी तूं समरथु सुआमी मेरा ॥ दास अपुने कउ राखनहारा नानक दास सदा है चेरा ॥२॥२५॥१११॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। प्रभ = हे प्रभु! समरथु = सारी ताकतों का मालिक। कउ = को। राखनहारा = बचाने वाला। चेरा = गुलाम।2। अर्थ: हे प्रभु! मेरे ये प्राण, मेरा ये शरीर, मेरा यह धन- सब कुछ तेरी ही दी हुई संपत्ति है। तू मेरा स्वामी सब ताकतों का मालिक है। तू अपनें सेवक को (उपाधियों-व्याधियों से सदा) बचाने वाला है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं भी तेरा ही दास हूँ, तेरा ही गुलाम हूँ (मुझे तेरा ही भरोसा है)।2।25।111। बिलावलु महला ५ ॥ गोबिदु सिमरि होआ कलिआणु ॥ मिटी उपाधि भइआ सुखु साचा अंतरजामी सिमरिआ जाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। कलिआणु = सुख। उपाधि = छल धोखा। मिटी उपाधि = किसी की की हुई चोट सफल नहीं होती। साचा = सदा कायम रहने वाला। जाणु = सुजान।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने हरेक दिल की जानने वाले सुजान प्रभु का नाम स्मरण किया, उस पर किसी की चोट कारगर ना हो सकी, उसके अंदर सदा कायम रहने वाला सुख पैदा हो गया। गोबिंद का नाम स्मरण करके (उसके अंदर) सुख ही सुख बन गया।1। रहाउ। जिस के जीअ तिनि कीए सुखाले भगत जना कउ साचा ताणु ॥ दास अपुने की आपे राखी भै भंजन ऊपरि करते माणु ॥१॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। तिनि = उस (प्रभु) ने। सुखाले = सुखी। कउ = को। ताणु = सहारा। भै भंजन = सारे डर दूर कर सकने वाला। करते = करते हैं। माणु = फखर, भरोसा।1। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के ये सारे जीव-जंतु हैं (इनको) सुखी भी उसने खुद ही किया है (सुखी करने वाला भी स्वयं ही है)। प्रभु की भक्ति करने वालों को यही सदा कायम रहने वाला सहारा है। हे भाई! प्रभु अपने सेवकों की इज्जत स्वयं ही रखता है। भक्त उस प्रभु पर ही भरोसा रखते हैं, जो सारे डरों का नाश करने वाला है।1। भई मित्राई मिटी बुराई द्रुसट दूत हरि काढे छाणि ॥ सूख सहज आनंद घनेरे नानक जीवै हरि गुणह वखाणि ॥२॥२६॥११२॥ पद्अर्थ: मित्राई = मित्रता, प्यार की सांझ। बुराई = बुरी चितवनी। द्रुसट = दुष्ट, बुरा चितवने वाले। दूत = वैरी। छाणि = चुन के। सहज = आत्मिक अडोलता, शांति। जीवै = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गुणह वखाणि = (प्रभु के) गुण उचार के।2। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य प्रभु का नाम स्मरण करता है, प्रभु उसका) बुरा चितवने वाले वैरियों को चुन के निकाल देता है (उनकी बल्कि सेवक से) प्यार की सांझ बन जाती है (उनके अंदर से उस सेवक की बाबत) वैर भाव मिट जाता है। हे नानक! सेवक के हृदय में सुख आत्मिक अडोलता और बहुत सारा आनंद बना रहता है। सेवक परमात्मा के गुण उचार-उचार के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता है।2।26।112। बिलावलु महला ५ ॥ पारब्रहम प्रभ भए क्रिपाल ॥ कारज सगल सवारे सतिगुर जपि जपि साधू भए निहाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: क्रिपाल = (कृपा+आलय) दयावान। सगल = सारे। जपि = जप के। जपि साधू = गुरु का आसरा हर वक्त चितार के। साधू = गुरु। निहाल = खुश, आनंद भरपूर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, गुरु उनके सारे काम सिरे चढ़ा देता है। वह मनुष्य गुरु की ओट हर वक्त चितार के सदा प्रसन्न रहते हैं।1। रहाउ। अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै दोखी सगले भए रवाल ॥ कंठि लाइ राखे जन अपने उधरि लीए लाइ अपनै पाल ॥१॥ पद्अर्थ: अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभु ने। दोखी = वैरी। रवाल = धूल, मिट्टी। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। जन = सेवक। उधरि लीए = बचा लिए। पाल = पल्ले।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु ने (जिस अपने सेवकों की) सहायता की, उनके सारे वैरी नाश हो गए (अर्थात, वैर-भाव चितवने से हट गए)। प्रभु ने अपने सेवकों को (सदा) अपने गले से लगा के (उनकी) सहायता की, उनको अपने लड़ लगा के (दोखियों से) बचाया।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |