श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सही सलामति मिलि घरि आए निंदक के मुख होए काल ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा गुर प्रसादि प्रभ भए निहाल ॥२॥२७॥११३॥

पद्अर्थ: सही सलामति = आत्मिक जीवन की सारी राशि-पूंजी समेत। मिलि = (गुरु को) मिल के। घरि = हृदय घर में। काल = काले। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से।2।

अर्थ: हे भाई! (प्रभु के सेवक गुरु चरणों में) मिल के आत्मिक जीवन की सारी राशि-पूंजी समेत हृदय-घर में टिके रहते हैं, उनकी निंदा करने वाले मनुष्य बदनामी कमाते हैं। हे नानक! कह: मेरा गुरु सारी सामर्थ्य वाला है, (गुरु के दर पर आए भाग्यशालियों पर) गुरु की कृपा से परमात्मा खुश रहता है।2।27।113।

बिलावलु महला ५ ॥ मू लालन सिउ प्रीति बनी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मू प्रीति = मेरी प्रीति। लालन सिउ = सोहणे लाल से। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा प्यार (तो अब) सुंदर प्रभु से बन गया है।1। रहाउ।

तोरी न तूटै छोरी न छूटै ऐसी माधो खिंच तनी ॥१॥

पद्अर्थ: तोरी = तोड़ने से। छोरी = छोड़ने से। माधो = (मा+धव। माया का पति) परमात्मा (ने)। खिंच = 1. वह रस्सा जो जुलाहे ताने को डाल के एक किल्ले पर से ला के खड्डी के पास के दूसरे किल्ले से बाँध के रखते हैं। ज्यों ज्यों कपड़ा उनते जाते हैं, उस रस्से को ढीला करते जाते हैं ताकि उना हुआ कपड़ा तना रहे और सही ढंग से उना जा सके। 2. बैलगाड़ी पर गन्ना लाद के उस पर रस्सा डालके बाँधते है, उसको भी दोआबे वाले इलाके में खेंज (खिंच) ही कहते हैं। तनी = तनी हुई है (माधो ने)।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ने प्यार की डोर ऐसी कसी हुई है, कि वह डोर ना अब तोड़े टूटती है ना ही छोड़े से छुड़ाई जा सकती है।1।

दिनसु रैनि मन माहि बसतु है तू करि किरपा प्रभ अपनी ॥२॥

पद्अर्थ: रैनि = रात। माहि = में। बसतु है = बसता है। प्रभ = हे प्रभु!।2।

अर्थ: हे भाई! वह प्यार अब दिन-रात मेरे मन में बस रहा है। हे प्रभु! तू अपनी कृपा किए रख (कि ये प्यार कायम रहे)।2।

बलि बलि जाउ सिआम सुंदर कउ अकथ कथा जा की बात सुनी ॥३॥

पद्अर्थ: जाउ = मैं जाता हूँ। बलि बलि = कुर्बान। सिआम सुंदर कउ = सुंदर श्याम को, प्रभु से। अकथ = बयान से परे। बात = बात।3।

अर्थ: (हे भाई! उस प्यार की इनायत से) मैं (हर वक्त) उस सुंदर प्रभु से सदके जाता हूँ जिसकी बाबत ये बात सुनी हुई है कि उसकी महिमा की कहानी बयान से परे हैं।3।

जन नानक दासनि दासु कहीअत है मोहि करहु क्रिपा ठाकुर अपुनी ॥४॥२८॥११४॥

पद्अर्थ: दासनि दासु = दासों का दास। कहीअत है = कहा जाता है। मोहि = मेरे पर। ठाकुर = हे ठाकुर!।4।

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! तेरा यह सेवक नानक तेरे) दासों का दास कहलवाता है। हे ठाकुर! अपनी कृपा मेरे पर किए रख (और, यह प्यार बना रहे)।4।28।114।

बिलावलु महला ५ ॥ हरि के चरन जपि जांउ कुरबानु ॥ गुरु मेरा पारब्रहम परमेसुरु ता का हिरदै धरि मन धिआनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपि = जप के, हृदय में बसा के। जांउ = मैं जाता हूँ। कुरबानु = बलिहार, सदके। हिरदै = हृदय में। मन = हे मन! ता का = उस (गुरु) का।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण हृदय में बसा के, मैं उससे (सदा) सदके जाता हूँ। हे मेरे मन! मेरा गुरु (भी) परमात्मा (का रूप) है, हृदय में उस (गुरु) का ध्यान धरा कर।1। रहाउ।

सिमरि सिमरि सिमरि सुखदाता जा का कीआ सगल जहानु ॥ रसना रवहु एकु नाराइणु साची दरगह पावहु मानु ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करता रह। कीआ = पैदा किया हुआ। सगलु = सारा। रसना = जीभ से। रवहु = जपते रहो। साची = सदा कायम रहने वाली। मानु = आदर।1।

अर्थ: हे भाई! ये सारा जगत जिस परमात्मा का पैदा किया हुआ है, सारे सुख देने वाले उस परमात्मा को सदा ही याद करता रह। (अपनी) जीभ से उस एक परमात्मा का नाम जपा कर, (परमात्मा की) सदा कायम रहने वाली हजूरी में आदर प्राप्त करोगे।1।

साधू संगु परापति जा कउ तिन ही पाइआ एहु निधानु ॥ गावउ गुण कीरतनु नित सुआमी करि किरपा नानक दीजै दानु ॥२॥२९॥११५॥

पद्अर्थ: साध संगु = गुरु का साथ। जा कउ = जिस (मनुष्य) को। तिनही = उसने ही। निधानु = खजाना। गावउ = मैं गाता रहूँ। नित = सदा। करि = कर के। नानक दीजै = नानक को दीजिये। दानु = दाति, खैर।2।

नोट: ‘तिनही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: पर, हे भाई! ये नाम-खजाना उस मनुष्य ने ही हासिल किया है, जिसको गुरु की संगति प्राप्त हुई है।

हे मेरे मालिक! मेहर करके (मुझे) नानक को ये ख़ैर डाल कि मैं सदा ही तेरे गुण गाता रहूँ, सदा तेरी महिमा करता रहूँ।2।29।115।

बिलावलु महला ५ ॥ राखि लीए सतिगुर की सरण ॥ जै जै कारु होआ जग अंतरि पारब्रहमु मेरो तारण तरण ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राखि लीए = बचा लिए। जै जैकारु = सदा की शोभा। अंतरि = अंदर, में। तारणु = पार लांघने के वास्ते। तरण = बेड़ी, जहाज।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! ये संसार एक समुंदर है, जिसमें से) पार लंघाने के लिए मेरा जीवन (मानो, एक) जहाज़ है। (जिस मनुष्यों को वह बचाना चाहता है, उनको) गुरु की शरण में डाल के (इस समुंदर में से डूबने से) बचा लेता है, जगत में उनकी सदा शोभा होती है।1। रहाउ।

बिस्व्मभर पूरन सुखदाता सगल समग्री पोखण भरण ॥ थान थनंतरि सरब निरंतरि बलि बलि जांई हरि के चरण ॥१॥

पद्अर्थ: बिस्वंभर = (विश्व = सारा संसार) सारे जगत को पालने वाला। पूरन = सर्व व्यापक। समग्री = पदार्थ। पोखण भरण = पालने पोसने वाला। थान थनंतरि = थान थान अंतरि, हरेक जगह में। निरंतरि = एक रस (निर+अंतर। अंतर = दूरी) दूरी के बिना। जांई = मैं जाता हूँ। बलि बलि = कुर्बान।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे जगत को पालने वाला है, सर्व व्यापक है, सारे सुख देने वाला है, (जगत को) पालने-पोसने के लिए सारे पदार्थ उसके हाथ में हैं। वह परमात्मा हरेक जगह में बस रहा है, सभी में एक रस बस रहा है। मैं उसके चरणों से सदा सदके जाता हूँ।1।

जीअ जुगति वसि मेरे सुआमी सरब सिधि तुम कारण करण ॥ आदि जुगादि प्रभु रखदा आइआ हरि सिमरत नानक नही डरण ॥२॥३०॥११६॥

पद्अर्थ: जीअ जुगति = प्राणों की मर्यादा। वसि = वश में। सुआमी = हे स्वामी! सिधि = सिद्धियां। करण = सबब, मूल। कारण = जगत। आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।2।

अर्थ: हे मेरे मालिक! (सब जीवों की) जीवन-जुगति तेरे वश में है, तेरे वश में सारी ताकतें हैं, तू ही सारे जगत को पैदा करने वाला है। हे नानक! शुरू से ही परमात्मा (शरण पड़े की) रक्षा करता आ रहा है। उसका नाम स्मरण करने से कोई डर नहीं रह जाता है।2।30।116।

रागु बिलावलु महला ५ दुपदे घरु ८    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मै नाही प्रभ सभु किछु तेरा ॥ ईघै निरगुन ऊघै सरगुन केल करत बिचि सुआमी मेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सभु किछु = हरेक चीज। ईघै = एक तरफ। निरगुन = माया के तीन गुणों से परे। ऊघै = दूसरी तरफ। सरगुन = माया के तीन गुणों से जुड़ा हुआ। केल = जगत तमाशा। बिचि = निर्गुण सरगुन दोनों के बीच का।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मेरी (अपने आप में) कोई ताकत नहीं है। (मेरे पास) हरेक चीज तेरी ही बख्शी हुई है। हे भाई! एक तरफ तो प्रभु माया के तीन गुणों से परे है (निर्गुण), दूसरी तरफ प्रभु माया के तीनों गुणों समेत है (सर्गुण)। इन दोनों ही हालातों के बीच मेरा मालिक-प्रभु यह जगत-तमाशा रचाए बैठा है।1। रहाउ।

नगर महि आपि बाहरि फुनि आपन प्रभ मेरे को सगल बसेरा ॥ आपे ही राजनु आपे ही राइआ कह कह ठाकुरु कह कह चेरा ॥१॥

पद्अर्थ: नगर = शरीर। फुनि = दोबारा, भी। आपन = आप ही। को = का। सगल = सब में। राजन = राजा, बादशाह। राइआ = प्रजा, रिआइआ, रईअत। कह कह = कहीं कहीं। ठाकुरु = मालिक। चेरा = नौकर।1।

अर्थ: हे भाई! (हरेक शरीर-) नगर में प्रभु स्वयं ही है, बाहर (सारे जगत में) भी स्वयं ही है। सब जीवों में मेरे प्रभु का ही निवास है। हे भाई! प्रभु स्वयं ही राजा है, स्वयं ही प्रजा है। कहीं मालिक बना हुआ है, कहीं सेवक बना हुआ है।1।

का कउ दुराउ का सिउ बलबंचा जह जह पेखउ तह तह नेरा ॥ साध मूरति गुरु भेटिओ नानक मिलि सागर बूंद नही अन हेरा ॥२॥१॥११७॥

पद्अर्थ: का कउ = किस तरफ से? दुराउ = ओहला, छुपा हुआ। का सिउ = किस से? बलबंचा = वल छल, ठगी। जह जह = जहाँ जहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। तह तह = वहाँ वहाँ। नेरा = नजदीक। साध मूरति = पवित्र हस्ती वाला (साधु = Virtuous)। भेटिओ = मिला। मिलि सागर = समुंदर को मिल के। अन = अन्य, और, अलग। हेरा = देखी जाती।2।

अर्थ: हे भाई! मैं जिधर-जिधर देखता हूँ हर जगह परमात्मा ही (हरेक के) अंग-संग बस रहा है। (उसके बिना कहीं भी कोई और नहीं है, इस वास्ते) किस की ओर से कोई झूठ कहा जाए या छुपाया जाए, और किससे ठगी-फरेब किया जाए? (वह तो सब कुछ देखता व जानता है)। हे नानक! जिस मनुष्य को पवित्र हस्ती वाला गुरु मिल जाता है (उसे यह समझ आ जाती है कि) समुंदर में मिल के पानी की बूँद (समुंदर से) अलग नहीं दिखती।2।1।117।

नोट: यहाँ से घर 8 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh