श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अनिक भगत अनिक जन तारे सिमरहि अनिक मुनी ॥ अंधुले टिक निरधन धनु पाइओ प्रभ नानक अनिक गुनी ॥२॥२॥१२७॥

पद्अर्थ: सिमरहि = स्मरण करते हैं। टिक = टेक, सहारा। निरधन = कंगाल। अनिक गुनी = हे अनेक गुणों के मालिक!।2।

अर्थ: हे मालिक! (कह:) हे अनेक गुणों के मालिक प्रभु! (तेरा नाम) अंधे मनुष्य को, जैसे, छड़ी मिल जाती है, कंगाल को धन मिल जाता है। हे प्रभु! अनेक ही ऋषि-मुनि तेरा नाम स्मरण करते हैं। (स्मरण करने वाले) अनेक ही भक्त अनेक ही सेवक, हे प्रभु! तूने (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिए हैं।2।2।127।

रागु बिलावलु महला ५ घरु १३ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मोहन नीद न आवै हावै हार कजर बसत्र अभरन कीने ॥ उडीनी उडीनी उडीनी ॥ कब घरि आवै री ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पड़ताल = पटह ताल (पटन = ढोल) ढोल की तरह खड़क के बजने वाली ताल। मोहन = हे मोहन! हे प्यारे प्रभु! हावै = आह भर के। कजर = काजल। अभरण = आभूषण, गहने। उडीनी = उदास (इन्तजार में)। घरि = घर में। री = हे बहन! हे सुहागण बहन!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मोहन प्रभु! (जैसे पति से विछुड़ी हुई स्त्री चाहे जैसे भी) हार, काजल, कपड़े, गहने पहनती है (पर विछोड़े के कारण) आहें भरती (उसे) नींद नहीं आती, (पति के इन्तजार में वह) हर वक्त उदास रहती है, (और सहेली से पूछती है:) हे बहन! (मेरा पति) कब घर आएगा? (इसी तरह, हे मोहन! तुझसे विछुड़ के मुझे शांति नहीं आती)।1। रहाउ।

सरनि सुहागनि चरन सीसु धरि ॥ लालनु मोहि मिलावहु ॥ कब घरि आवै री ॥१॥

पद्अर्थ: सुहागनि = गुरमुख सहेली, गुरु। सीसु = सिर। धरि = धर के। लालनु = सोहणे लाल। मोहि = मुझे। घरि = हृदय घर में।1।

अर्थ: हे मोहन प्रभु! मैं गुरमुख सोहागिन की शरण पड़ती हूँ, उसके चरणों पे (अपना) सिर धर के (पूछती हूँ-) हे बहन! मुझे सोहाना लाल मिला दे (बता, वह) कब मेरे हृदय-घर में आएगा।1।

सुनहु सहेरी मिलन बात कहउ सगरो अहं मिटावहु तउ घर ही लालनु पावहु ॥ तब रस मंगल गुन गावहु ॥ आनद रूप धिआवहु ॥ नानकु दुआरै आइओ ॥ तउ मै लालनु पाइओ री ॥२॥

पद्अर्थ: सहेली = हे सहेली! मिलन बात = मिलने की बात। कहउ = मैं कहती हूँ। सगरो = सारी। अहं = अहंकार। तउ = तब। घर ही = घरि ही, घर में ही। रस = आनंद। मंगल = खुशी। आनद रूपु = वह प्रभु जो सही आनंद ही आनंद है। नानकु आइओ = नानक आया है। दुआरै = दर पे।2।

नोट: ‘घर ही’ में से ‘घरि’ की ‘रि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: (सोहागिन कहती है:) हे सहेली! सुन, मैं तुझे मोहन-प्रभु मिलन की बात सुनाती हूँ। तू (अपने अंदर से) सारा अहंकार दूर कर दे। तब तू अपने हृदय-घर में उस सोहणे लाल को पा लेगी। (हृदय-घर में उसके दर्शन करके) फिर तू खुशी-आनंद पैदा करने वाले हरि-गुण गाया करना जो सिर्फ आनंद ही आनंद रूप है।

हे बहन! नानक (भी उस गुरु के) दर पर आ गया है, (गुरु के दर पर आ के) मैंने (नानक के हृदय-घर में ही) सोहणा लाल पा लिया है।2।

मोहन रूपु दिखावै ॥ अब मोहि नीद सुहावै ॥ सभ मेरी तिखा बुझानी ॥ अब मै सहजि समानी ॥ मीठी पिरहि कहानी ॥ मोहनु लालनु पाइओ री ॥ रहाउदूजा ॥१॥१२८॥

पद्अर्थ: रूपु दिखावै = दर्शन देता है, अपना रूप दिखाता है। मोहि = मुझे। नीद = (माया के मोह से) बेपरवाही। सुहावै = सुहाती है। त्रिखा = प्यास, तृष्णा, माया की प्यास। सहजि = आत्मिक अडोलता में। पिरहि = पिर की, प्रभु पति की। रहाउ दूजा।1।128।

नोट: नए संग्रह का ये पहला शब्द है। पहले ‘रहाउ’ में प्रश्न किया गया है कि ‘कब घरि आवै री’। बंद 2 में मिलाप का तरीका बताया गया है, दूसरे ‘रहाउ’ में उक्तर दिया है कि ‘अहं’ मिटाने से ‘मोहन लालन पाइओ री’। ये शब्द दो बंदों वाला ही है।

अर्थ: हे बहन! (अब) मोहन प्रभु मुझे दर्शन दे रहे हैं, अब (माया के मोह की ओर से पैदा हुई) उपरामता मुझे मीठी लग रही है, मेरी सारी माया की तृष्णा मिट गई है। अब मैं आत्मिक अडोलता में टिक गई हूँ। प्रभु-पति की महिमा की बातें मुझे प्यारी लग रही हैं। हे बहन! अब मैंने सोहणा लाल मोहन पा लिया है। रहाउ दूजा।1।128।

बिलावलु महला ५ ॥ मोरी अहं जाइ दरसन पावत हे ॥ राचहु नाथ ही सहाई संतना ॥ अब चरन गहे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मोरी = मेरी। अहं = अहंकार। जाइ = दूर हो जाती है। राचहु = रचे रहो, मिले रहो। सहाई संतना = संतों के सहाई। अब = अब। गहे = पकड़े हैं।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संतों के सहायक पति-प्रभु के चरणों में सदा जुड़े रहो। मैंने तो अब उसी के ही चरण पकड़ लिए हैं। पति-प्रभु के दर्शन करने से अब मेरा अहंकार दूर हो गया है।1। रहाउ।

आहे मन अवरु न भावै चरनावै चरनावै उलझिओ अलि मकरंद कमल जिउ ॥ अन रस नही चाहै एकै हरि लाहै ॥१॥

पद्अर्थ: आहे = चाहता है, पसंद करता है। मन न भावै = मन को अच्छा नहीं लगता। अवरु = कोई और पदार्थ। चरनावै = चरणों की ही तरफ आता है। अलि = भँवरा। मकरंद = फूल की धूड़ी। अन = अन्य। लाहै = पाता है।1।

नोट: शब्द ‘मन’ है संप्रदान कारक, एकवचन।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन की इनायत से) मेरे मन को और कुछ अच्छा नहीं लगता, (प्रभु के दर्शनों को ही) तड़पता रहता है। जैसे भौंरा कमल-पुष्प के मकरंद पर ही लिपटा रहता है, वैसे ही मेरा मन प्रभु के चरणों की ओर ही बार-बार पलटता है। मेरा मन और (पदार्थों के) स्वाद को नहीं ढूँढता, एक परमात्मा को ही तलाशता है।1।

अन ते टूटीऐ रिख ते छूटीऐ ॥ मन हरि रस घूटीऐ संगि साधू उलटीऐ ॥ अन नाही नाही रे ॥ नानक प्रीति चरन चरन हे ॥२॥२॥१२९॥

पद्अर्थ: ते = से। अन ते = किसी और (पदार्थों के) मोह से। टूटीऐ = संबंध तोड़ लेते हैं। रिख = हृषीक, इंद्रिय। छूअीऐ = (पकड़ से) निजात प्राप्त कर लेते हैं। घूटीऐ = चूसा जाता है। साधू = गुरु। संगि = संगति में। उलटीऐ = (रुचि) परत जाती है। रे = हे भाई!।2।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के दर्शन की इनायत से) और (पदार्थों के मोह) संबंध तोड़ लेते हैं, इन्द्रियों की पकड़ से निजात पा लेते हैं। हे मन! गुरु की संगति में रह के परमात्मा का नाम-रस चूसते हैं, और (माया के मोह से रुचि) पलट जाती है। हे नानक! (कह:) हे भाई! (दर्शन की इनायत से) और मोह बिल्कुल ही नहीं भाते, (अगर कोई मोह अच्छा लगता है तो वह है) हर वक्त प्रभु के चरणों से ही प्यार बना रहता है।2।2।129।

रागु बिलावलु महला ९ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दुख हरता हरि नामु पछानो ॥ अजामलु गनिका जिह सिमरत मुकत भए जीअ जानो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पछानो = पछानु, जान पहचान डाल, सांझ डाले रख। हरता = हरने वाला, नाश करने वाला। जिह = जिसको। जीअ जानो = जिंद और जान, हृदय में सांझ डाल। अजामलु = भागवत की कथा है कि ये एक ब्राहमण था कन्नौज का रहने वाला। था कुकर्मी, वैश्वागामी। अपने एक पुत्र का इसने ‘नारायण’ नाम रख लिया। यहीं से नारायण (परमात्मा) के नाम-जपने की लगन लग गई। गनिका = एक वेश्या थी। एक साधु ने इसको एक तोता दिया और कहा कि तोते को ‘राम नाम’ पढ़ाया कर। उसे वहीं से लगन लग गई।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के साथ सांझ डाले रख, ये नाम सारे दुखों का नाश करने वाला है। इस नाम को स्मरण करते-स्मरण करते अजामल विकारों से हट गया, गनिका विकारों से मुक्त हो गई। तू भी अपने दिल में उस हरि-नाम के साथ जान-पहचान बनाए रख।1। रहाउ।

गज की त्रास मिटी छिनहू महि जब ही रामु बखानो ॥ नारद कहत सुनत ध्रूअ बारिक भजन माहि लपटानो ॥१॥

पद्अर्थ: गज = भागवत की ही कथा है। एक गंधर्व किसी ऋषी के श्राप से हाथी के जन्म में चला गया। वरुण देवते के तालाब में इसे एक तंदुए ने अपनी तंदों में जकड़ लिया। परमात्मा की ओट ने वहाँ से छुड़ाया और श्राप से भी बचाया। त्रास = डर। बखानो = उचारा। कहत = कहता, उपदेश करता था। लपटानो = मस्त हो गया।1।

अर्थ: हे भाई! जब गज ने परमात्मा का नाम उचारा, उसकी बिपदा भी एक पल में दूर हो गई। नारद का दिया हुआ उपदेश सुनते ही बालक ध्रुव परमात्मा के भजन में मस्त हो गया।1।

अचल अमर निरभै पदु पाइओ जगत जाहि हैरानो ॥ नानक कहत भगत रछक हरि निकटि ताहि तुम मानो ॥२॥१॥

पद्अर्थ: अचल = अटल। अमर = कभी ना समाप्त होने वाला। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई आत्मिक डर छू ना सके। जाहि = जिस से। रछक = रक्षक, रक्षा करने वाला। निकटि = नजदीक, अंग संग। ताहि = उसको। मानो = मानो।2।

अर्थ: (हरि-नाम के भजन की इनायत से ध्रुव ने) ऐसा आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया जो सदा के लिए अटल और अमर हो गया। उसको देख के दुनिया हैरान हो रही है। नानक कहता है: हे भाई! तू भी उस परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ, वह परमात्मा अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है।2।1।

बिलावलु महला ९ ॥ हरि के नाम बिना दुखु पावै ॥ भगति बिना सहसा नह चूकै गुरु इहु भेदु बतावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहस = सहम। चूकै = खत्म होता। भेदु = (जीवन मार्ग की) गहरी बात।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु (जीवन-मार्ग की) यह गहरी बात बताता है, कि परमात्मा की भक्ति किए बिना मनुष्य का सहम खत्म नहीं होता, परमात्मा का नाम (स्मरण) के बिना दुख सहता रहता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh