श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कहा भइओ तीरथ ब्रत कीए राम सरनि नही आवै ॥ जोग जग निहफल तिह मानउ जो प्रभ जसु बिसरावै ॥१॥

पद्अर्थ: कहा भइओ = क्या हुआ? कोई फायदा नहीं। तिह = उस (मनष्य) के। मानउ = मानूँ। जसु = यश, महिमा। जो = जो मनुष्य। जोग = योग साधन। निहफल = व्यर्थ।1।

अर्थ: हे भाई! अगर मनुष्य परमात्मा की शरण नहीं पड़ता, तो उसका तीर्थ-यात्रा करने का कोई लाभ नहीं, व्रत रखने का कोई फायदा नहीं। जो मनुष्य परमात्मा की महिमा भुला देता है मैं समझता हूँ कि उसके योग-साधना और यज्ञ (आदि कर्मकांड सब) व्यर्थ हैं।1।

मान मोह दोनो कउ परहरि गोबिंद के गुन गावै ॥ कहु नानक इह बिधि को प्रानी जीवन मुकति कहावै ॥२॥२॥

पद्अर्थ: मान = अहंकार। दोनों कउ = दोनों को। परहरि = त्याग के। को = का। इह बिधि को = इस किस्म का (जीवन व्यतीत करने वाला)। प्रानी = मनुष्य। जीवन मुकति = जीते ही विकारों से आजाद।2।

अर्थ: हे नानक! कह: जो मनुष्य अहंकार और माया का मोह छोड़ के परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है, जो मनुष्य इस किस्म का जीवन व्यतीत करने वाला है, वह जीवन-मुक्त कहलवाता है (वह मनुष्य उस श्रेणी में से गिना जाता है, जो इस जिंदगी में विकारों की पकड़ से बचे रहते हैं)।2।

बिलावलु महला ९ ॥ जा मै भजनु राम को नाही ॥ तिह नर जनमु अकारथु खोइआ यह राखहु मन माही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जा महि = जिस मनुष्य (के हृदय) में। को = का। तिह नर = उस मनुष्य ने। अकारथु = व्यर्थ। खोइआ = गवा लिया। यह = यह बात। माही = में। राखहु मन माही = पक्की तरह से याद रखो।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! ये बात अच्छी तरह याद रखो कि जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा के नाम का भजन नहीं है उस मनुष्य ने अपनी जिंदगी व्यर्थ ही गवा ली है।1। रहाउ।

तीरथ करै ब्रत फुनि राखै नह मनूआ बसि जा को ॥ निहफल धरमु ताहि तुम मानहु साचु कहत मै या कउ ॥१॥

पद्अर्थ: फुनि = भी। बसि = वश में। जा के मनूआ = जिसका मन। ताहि = उसका। मानहु = समझो। साचु = सच्ची बात। या कउ = उसको।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन अपने बस में नहीं है, वह चाहे तीर्थों पर स्नान करता है, व्रत भी रखता है, पर तुम (ये तीर्थ व्रत आदि वाला) उसका धर्म व्यर्थ समझो। मैं ऐसे मनुष्य को भी यह सच्ची बात कह देता हूँ।1।

जैसे पाहनु जल महि राखिओ भेदै नाहि तिह पानी ॥ तैसे ही तुम ताहि पछानहु भगति हीन जो प्रानी ॥२॥

पद्अर्थ: पाहनु = पत्थर। महि = में। भेदै = भेदता है। तिह = उसको। पछानहु = समझो। हीन = बगैर।2।

अर्थ: हे भाई! जैसे पत्थर पानी में रखा हुआ हो, उसको पानी भेद नहीं सकता। (पानी उस पर असर नहीं कर सकता), ऐसा ही तुम उस मनुष्य को समझ लो जो प्रभु-भक्ती से वंचित है।2।

कल मै मुकति नाम ते पावत गुरु यह भेदु बतावै ॥ कहु नानक सोई नरु गरूआ जो प्रभ के गुन गावै ॥३॥३॥

पद्अर्थ: कलि महि = संसार में, मानव जनम में। ते = से। मुकति = विकारों से खलासी। भेदु = गहरी बात। गरूआ = भारा, आदर योग।3।

अर्थ: हे भाई! गुरु जिंदगी का यह राज बताता है कि मानव जीवन में इन्सान परमात्मा के नाम के द्वारा ही विकारों से खलासी प्राप्त कर सकता है। हे नानक! कह: वही मनुष्य आदरणीय हैं जो परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।3।3।

नोट: बिलावल में गुरु तेग बहादर जी के ये तीन शब्द हैं।

बिलावलु असटपदीआ महला १ घरु १०    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

निकटि वसै देखै सभु सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ विणु भै पइऐ भगति न होई ॥ सबदि रते सदा सुखु होई ॥१॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सोई = वही (प्रभु)। बूझै = समझता है। विणु भै पइऐ = (परमात्मा के) डर में रहे बिना, मन में परमात्मा का डर अदब ना रहे।1।

अर्थ: परमात्मा (हरेक जीव के) नजदीक बसता है, वह स्वयं ही हरेक की संभाल करता है, पर यह भेद कोई विरला बंदा ही समझता है जो गुरु के सन्मुख रह के नाम जपता है। जब तक (यह) डर पैदा ना हो (कि वह हर वक्त नजदीक से देख रहा है) परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। जो बंदे गुरु के शब्द के द्वारा (नाम-रंग में) रंगे जाते हैं उनको सदा आत्मिक आनंद मिलता है।1।

ऐसा गिआनु पदारथु नामु ॥ गुरमुखि पावसि रसि रसि मानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गिआनु = (परमात्मा से) गहरी सांझ। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु की ओर मुँह रखता है। पावसि = हासिल करेगा। रसि = (नाम के) रस में। रसि = रस के, भीग के। मानु = आदर।1। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा श्रेष्ठ पदार्थ है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा कर देता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (ये पदार्थ) हासिल करता है, वह (इसके) रस में भीग के (लोक-परलोक में) आदर पाता है।1। रहाउ।

गिआनु गिआनु कथै सभु कोई ॥ कथि कथि बादु करे दुखु होई ॥ कथि कहणै ते रहै न कोई ॥ बिनु रस राते मुकति न होई ॥२॥

पद्अर्थ: कथै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कथि कथि = (ज्ञान चर्चा) कह कह के। बादु = चर्चा। कथि = कह के। कहणै ते = कहने से। रहै न = हटना नहीं। मुकति = (विकारों से) मुक्ति।2।

अर्थ: (ज़बानी ज़बानी तो) हर कोई कहता है (कि मुझे परमात्मा का) ज्ञान (प्राप्त हो गया है,) ज्ञान (मिल गया है), (ज्यों-ज्यों ज्ञान-ज्ञान) कह के चर्चा करता है (उस चर्चा में से) कष्ट ही पैदा होता है। चर्चा करके (ऐसी आदत पड़ जाती है कि) चर्चा करने से जीव हटता भी नहीं। (पर चर्चा से कोई आत्मिक आनंद नहीं मिलता, क्योंकि) परमात्मा के नाम-रस में रंगे जाए बिना विकारों से खलासी नहीं मिलती।2।

गिआनु धिआनु सभु गुर ते होई ॥ साची रहत साचा मनि सोई ॥ मनमुख कथनी है परु रहत न होई ॥ नावहु भूले थाउ न कोई ॥३॥

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से। धिआनु = प्रभु में तवज्जो का टिकाव। रहत = आचरण। साचा = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। परु = परंतु। नावहु = नाम से।3।

अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ और उसमें तवज्जो का टिकाव- ये सब कुछ गुरु से ही मिलता है। (जिसको मिलता है उसकी) रहनी पवित्र हो जाती है उसके मन में वह सदा-स्थिर प्रभु बस जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा (निरे ज्ञान की बातें) ही करता है, पर उसकी रहनी (पवित्र) नहीं होती। परमात्मा के नाम से टूटे हुए को (माया की भटकना से बचाने के लिए) कोई आसरा नहीं मिलता।3।

मनु माइआ बंधिओ सर जालि ॥ घटि घटि बिआपि रहिओ बिखु नालि ॥ जो आंजै सो दीसै कालि ॥ कारजु सीधो रिदै सम्हालि ॥४॥

पद्अर्थ: सर जालि = (मोह के) तीरों के जाल में। बंधिओ = बँधा हुआ है। बिखु = माया जहर। आंजै = लाया जाता है, पैदा होता है। कालि = काल में, काल के वश में, आत्मिक मौत के अधीन। कारजु = (मनुष्य जीवन में करने योग्य) काम। सीधो = सफल।4।

अर्थ: माया ने (जीवों के) मन को (मोह के) तीरों के जाल में बाँधा हुआ है। (चाहे परमात्मा) हरेक शरीर में मौजूद है, पर (माया के मोह का) जहर भी हरेक के अंदर ही है, (इस वास्ते) जो भी (जगत में) पैदा होता है वह आत्मिक मौत के वश में दिख रहा है। परमात्मा को हृदय में याद करने से ही (मनुष्य जीवन में) करने योग्य काम सिरे चढ़ते हैं।4।

सो गिआनी जिनि सबदि लिव लाई ॥ मनमुखि हउमै पति गवाई ॥ आपे करतै भगति कराई ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई ॥५॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। लिव = लगन। पति = इज्जत। करतै = कर्तार ने।5।

अर्थ: वही मनुष्य ज्ञान-वान (कहलवा सकता) है जिसने गुरु के शब्द के माध्यम से प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ी है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अहंकार के अधीन रह के अपनी इज्जत गवाता है। (पर जीव के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही अपनी भक्ति (जीवों से) करवाता है, स्वयं ही (जीव को) गुरु के सन्मुख करके बड़ाई (सम्मान) देता है।5।

रैणि अंधारी निरमल जोति ॥ नाम बिना झूठे कुचल कछोति ॥ बेदु पुकारै भगति सरोति ॥ सुणि सुणि मानै वेखै जोति ॥६॥

पद्अर्थ: रैणि = (जिंदगी की) रात। कुचल = गंदे। कछोति = कु+छूत, बुरी छूत वाले। सरोति = शिक्षा। मानै = मानता है, श्रद्धा लाता है।6।

अर्थ: (स्मरण के बिना मनुष्य की उम्र) एक अंधेरी रात है, परमात्मा की ज्योति के प्रकट होने के साथ ही ये रौशन हो सकती है। नाम से टूटे हुए बंदे झूठे हैं गंदे हैं और बुरी छूत वाले हैं, (भाव, और लोगों को भी गलत रास्ते पर डाल देते हैं)। वेद आदि हरेक धर्म-पुस्तक भक्ति की शिक्षा ही पुकार-पुकार के बताता है। जो जो जीव इस शिक्षा को सुन-सुन के श्रद्धा (मन में) बसाता है वह ईश्वरीय ज्योति को (हर जगह) देखता है।6।

सासत्र सिम्रिति नामु द्रिड़ामं ॥ गुरमुखि सांति ऊतम करामं ॥ मनमुखि जोनी दूख सहामं ॥ बंधन तूटे इकु नामु वसामं ॥७॥

पद्अर्थ: द्रिड़ामं = दृढ़ कराते हैं, ताकीद करते हैं। ऊतमा करमं = श्रेष्ठ कर्म। वसामं = बसाने से।7।

अर्थ: स्मृतियाँ-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकें भी नाम-जपने की ताकीद करते हैं, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करते हैं उनके अंदर शांति पैदा होती है, उनकी रहन-सहन श्रेष्ठ हो जाती है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदेजनम-मरण का दुख सहते हैं, ये बंधन तब ही टूटते हैं जब परमात्मा के नाम को दिल में बसाया जाए।7।

मंने नामु सची पति पूजा ॥ किसु वेखा नाही को दूजा ॥ देखि कहउ भावै मनि सोइ ॥ नानकु कहै अवरु नही कोइ ॥८॥१॥

पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर रहने वाली। पति = इज्जत। वेखा = मैं देखूँ। देखि = देख के। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं महिमा करता हूँ। सोइ = वह प्रभु।8।

अर्थ: परमात्मा के बिना कोई और (उस जैसा) नहीं है, जो बंदा उसके नाम को (अपने हृदय में) दृढ़ करता है उसको सच्ची इज्जत मिलती है, उसका आदर होता है।

नानक कहता है: मैं हर जगह उसी को देखता हूँ, उसके बिना उस जैसा कोई और नहीं है। उसे (हर जगह) देख के मैं उसकी महिमा करता हूँ, वही मुझे अपने मन में प्यारा लगता है।8।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh