श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 842 पंद्रह थितीं तै सत वार ॥ माहा रुती आवहि वार वार ॥ दिनसु रैणि तिवै संसारु ॥ आवा गउणु कीआ करतारि ॥ निहचलु साचु रहिआ कल धारि ॥ नानक गुरमुखि बूझै को सबदु वीचारि ॥१०॥१॥ पद्अर्थ: तै = और। वार = दिन (सूरज के हिसाब)। थिती = चाँद के हिसाब से दिन। माहा = महीने। रुती = रुतें। आवहि = आते हैं। वार वार = अपनी-अपनी बारी, बार बार। रैणि = रात। तिवै = उसी तरह। आवागउण = जनम मरन का चक्कर। करतारि = कर्तार ने। निहचलु = अटल। साचु = सदा स्थिर प्रभु। कल = क्षमता, ताकत। रहिआ धारि = टिका रहा है। को = कोई विरला।10। अर्थ: हे भाई! (जैसे) पंद्रह तिथियाँ और सात वार, महीने, ऋतुएं, रात-दिन, बार बार आते रहते हैं। कर्तार ने (खुद ही जीवों के वास्ते) जनम-मरण का चक्कर बना दिया है। अटल रहने वाला सदा-स्थिर प्रभु ही है जो (सारी सृष्टि में अपनी) सत्ता टिका रहा है। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई (भाग्यशाली) मनुष्य (गुरु के) शब्द को (अपने) मन में बसा के (इस बात को) समझ लेता है।10।1। नोट: गुरु अमरदास जी की इस वाणी का शीर्षक ‘वार सत’ है। आखिरी पौड़ी नंबर 10 में आप ‘थितीं’ का भी ज़िक्र कर रहे हैं। इसका कारण स्पष्ट ये है कि गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी की यह वाणी मौजूद थी। बिलावलु महला ३ ॥ आदि पुरखु आपे स्रिसटि साजे ॥ जीअ जंत माइआ मोहि पाजे ॥ दूजै भाइ परपंचि लागे ॥ आवहि जावहि मरहि अभागे ॥ सतिगुरि भेटिऐ सोझी पाइ ॥ परपंचु चूकै सचि समाइ ॥१॥ पद्अर्थ: आदि पुरखु = जगत का मूल अकाल-पुरख। आपे = खुद ही। स्रिसटि = जगत। मोहि = मोह में। पाजे = डाले हुए हैं, जोड़े हुए हैं। दूजै भाइ = (प्रभु को छोड़ के) और प्यार में। परपंचि = परपंच में, दिखते नाशवान जगत (के मोह) में (प्रपंच)। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। अभागे = भाग हीन जीव। सतिगुरि भेटीऐ = अगर गुरु मिल जाए। सोझी = (आत्मिक जीवन की) समझ। परपंचु = जगत का मोह। चूकै = समाप्त हो जाता है। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में।1। अर्थ: हे भाई! सारे जगत का मूल अकाल पुरख स्वयं ही जगत को पैदा करता है, (किए कर्मों के अनुसार) जीवों को (उसने) माया के मोह में जोड़ा हुआ है। (जीव परमात्मा को भुला के) और प्यार में दिखाई देते जगत के मोह में फंसे रहते हैं, (ऐसे) भाग्यहीन जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, आत्मिक मौत सहेड़े रखते हैं। अगर (किसी भाग्यशाली को) गुरु मिल जाए, तो वह (आत्मिक जीवन की) समझ हासिल कर लेता है, (उसके अंदर से) जगत का मोह समाप्त हो जाता है, (वह मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की) याद में लीन रहता है।1। जा कै मसतकि लिखिआ लेखु ॥ ता कै मनि वसिआ प्रभु एकु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। कै मसतकि = के माथे पर। ता कै मनि = उसके मन में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (मनुष्य के किए कर्मों के अनुसार परमात्मा की ओर से) लेख लिखा होता है, उस (मनुष्य) के मन में एक परमात्मा (ही) टिका रहता है।1। रहाउ। स्रिसटि उपाइ आपे सभु वेखै ॥ कोइ न मेटै तेरै लेखै ॥ सिध साधिक जे को कहै कहाए ॥ भरमे भूला आवै जाए ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु बूझै ॥ हउमै मारे ता दरु सूझै ॥२॥ पद्अर्थ: उपाइ = पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। तेरै लेखै = (हे भाई!) तेरे (लिखे) लेख को। सिध = योग साधनों में सिद्ध हुए जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। को = कोई (मनुष्य)। कहै = (अपने आप को) कहे। कहाए = (अपने आप को) कहलवाए। भरमे = भटकना में। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। आवै जाए = जनम मरण के चक्कर में पड़ जाता है। सेवै = शरण पड़ता है। बूझै = (जीवन का सही रास्ता) समझता है। ता = तब। दरु = प्रभु का दरवाजा। सूझै = दिखता है।2। अर्थ: हे भाई! जगत पैदा करके (परमात्मा) स्वयं ही हरेक की संभाल करता है। (हे प्रभु! जीव के किए कर्मों के अनुसार उसके माथे पर जो लेख तू लिखता है) तेरे (उस लिखे) लेख को कोई जीव (अपने उद्यम से) मिटा नहीं सकता। हे भाई! (अपने अहंकार के आसरे) अगर कोई मनुष्य (अपने आप को) सिद्ध कहलवाता है, साधक कहता कहलवाता है, वह मनुष्य (अहंकार की) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। हे भाई! जो मनुष्य (अपने अहंकार का आसरा छोड़ के) गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य (जीवन का) सही रास्ता समझ लेता है। जब मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को मिटाता है, तब (उसको परमात्मा का) दर दिखाई दे जाता है।2। एकसु ते सभु दूजा हूआ ॥ एको वरतै अवरु न बीआ ॥ दूजे ते जे एको जाणै ॥ गुर कै सबदि हरि दरि नीसाणै ॥ सतिगुरु भेटे ता एको पाए ॥ विचहु दूजा ठाकि रहाए ॥३॥ पद्अर्थ: एकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभ दूजा = सारा अलग (दिखाई दे रहा जगत)। एको = एक (परमात्मा) ही। बीआ = दूसरा। वरतै = व्यापक है, मौजूद है। ते = से। दूजे ते = इस अलग दिखाई दे रहे जगत से (ऊँचा हो के)। जाणै = सांझ डाल ली। कै सबदि = के शब्द द्वारा। दरि = दर से। नीसाणै = परवाने समेत, राहदारी सहित। भेटे = मिल जाए। दूजा = माया का मोह। ठाकि = रोक के।3। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा से) अलग दिख रहा ये सारा जगत एक परमात्मा से ही बना है। (सारे जगत में) एक प्रभु ही मौजूद है, (उसके बिना) कोई और दूसरा नहीं है। अगर (मनुष्य) इस अलग दिखाई दे रहे जगत (के मोह) से (ऊँचा हो के) एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखें, तो गुरु के शब्द की इनायत से राहदारी समेत (बिना रोक-टोक के) प्रभु के दर पर (पहुँच जाता है)। अगर (मनुष्य को) गुरु मिल जाए, तो वह उस परमात्मा का मिलाप प्राप्त कर लेता है, और (अपने) अंदर से अलग दिख रहे जगत का मोह रोके रखता है।3। जिस दा साहिबु डाढा होइ ॥ तिस नो मारि न साकै कोइ ॥ साहिब की सेवकु रहै सरणाई ॥ आपे बखसे दे वडिआई ॥ तिस ते ऊपरि नाही कोइ ॥ कउणु डरै डरु किस का होइ ॥४॥ पद्अर्थ: डाढा = तगड़ा, बलवान। होइ = होता है। तिस नो = उस (मनुष्य) को। रहै = टिका रहता है। आपे = (साहिब) खुद ही। दे = देता है। ऊपरि = बड़ा, ऊँचा। डरु...होइ = किस का डर हो सकता है? किसी से डर नहीं लगता।4। नोट: ‘तिस नो’ में से संबंधक ‘नो’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘जिस दा’ में संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘किस का’ में से संबंधक ‘का’ के कारण शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। ‘तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा हट गई है। अर्थ: हे भाई! (माया के कामादिक सूरमे हैं तो बड़े बली, पर) जिस मनुष्य के सिर पर रक्षक सबसे बलशाली मालिक-प्रभु स्वयं हो, उसको कोई (कामादिक वैरी) परास्त नहीं सकता। (क्योंकि) सेवक (अपने) मालिक प्रभु की शरण पड़ा रहता है, वह स्वयं ही (उस पर) बख्शिश करता है, (और, उसको) आदर देता है। हे भाई! उस (परमात्मा) से बड़ा और कोई नहीं है (सेवक को ये यकीन बन जाता है, इस वास्ते) किसी से नहीं डरता, उसको किसी (कामादिक वैरी) का डर-दबाव नहीं रहतां4। गुरमती सांति वसै सरीर ॥ सबदु चीन्हि फिरि लगै न पीर ॥ आवै न जाइ ना दुखु पाए ॥ नामे राते सहजि समाए ॥ नानक गुरमुखि वेखै हदूरि ॥ मेरा प्रभु सद रहिआ भरपूरि ॥५॥ पद्अर्थ: गुरमती = गुरु की मति पर चलने से। चीन्हि = पहचान के, सांझ डाल के। पीर = (विकारों से) कष्ट। आवै न जाइ = ना पैदा होता है ना मरता है, जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता। नामे = नाम में ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। हदूरि = अंग संग, हाज़र नाज़र।5। अर्थ: हे भाई! गुरु की मति पर चल के (भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में शांति पैदा हो जाती है, गुरु के शब्द के साथ सांझ डाल के उसको (कामादिक वैरी से कोई) कष्ट नहीं छू सकता। वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह (इस चक्कर के) दुख नहीं सहता। हे भाई! परमात्मा के नाम में रंगे हुए मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (परमात्मा को अपने) अंग-संग बसता देखता है (और कहता है कि) मेरा परमात्मा सदा हर जगह मौजूद है।5। इकि सेवक इकि भरमि भुलाए ॥ आपे करे हरि आपि कराए ॥ एको वरतै अवरु न कोइ ॥ मनि रोसु कीजै जे दूजा होइ ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥ दरि साचै साचे वीचारी ॥६॥ पद्अर्थ: इकि = कई। भरमि = भटकना में। भुलाए = गलत रास्ते पर डाल रखे हैं। आपे = आप ही। एको = एक खुद ही। वरतै = (हर जगह) मौजूद है। मनि = मन में। रोसु = गिला। कीजै = किया जाए। सेवे = शरण पड़े। सारी = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य। दरि साचे = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। साचे = सही रास्ते पर चलने वाले। वीचारी = विचारवान।6। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! (सब जीवों में व्यापक हो के) परमात्मा खुद ही (सब कुछ) करता है, स्वयं ही (जीवों से) करवाता है, कई (जीवों को उसने अपने) सेवक बनाया हुआ है, और कई जीवों को भटकना में (डाल के) गलत राह पर डाला हुआ है। (हर जगह) परमात्मा खुद ही मौजूद है, (उसके बिना) और कोई नहीं है। (किसी को गुरमुख और किसी को मनमुख देख के) मन में गिला तो ही किया जाए अगर (परमात्मा के बिना कहीं) कोई और हो। हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़े रहते हैं, वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के दर पर सुर्ख-रू होते हैं, विचारवान (माने जाते) हैं (गुरु की शरण पड़े रहना ही) सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है।6। थिती वार सभि सबदि सुहाए ॥ सतिगुरु सेवे ता फलु पाए ॥ थिती वार सभि आवहि जाहि ॥ गुर सबदु निहचलु सदा सचि समाहि ॥ थिती वार ता जा सचि राते ॥ बिनु नावै सभि भरमहि काचे ॥७॥ पद्अर्थ: थिती = तिथिएं, चाँद के बढ़ने घटने से निहित किए हुए दिन। सभि = सारे। सबदि = शब्द के द्वारा। सुहाए = सोहाने हैं। सेवे = शरण पड़े। आवहि जाहि = बार बार आते हैं और गुजर जाते हैं। निहचलु = अटल। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जा = जब। भरमहि = भटकते हैं। काचे = कमजोर आत्मिक जीवन वाले मनुष्य।7। अर्थ: हे भाई! (लोग खास-खास तिथियों और वारों को पवित्र मान के खास-खास धार्मिक कर्म करते हैं और खास-खास फल मिलने की आशा रखते हैं, पर) सारी तिथियाँ और सारे वार (तब ही) सुंदर हैं (उत्तम हैं) (अगर मनुष्य गुरु के) शब्द में (जुड़े रहें)। (मनुष्य) गुरु की शरण पड़े, तब ही (मानव जीवन का श्रेष्ठ फल) हासिल करता है। यह तिथियाँ ये वार सारे आते हैं और गुज़र जाते हैं। गुरु का शब्द (ही) अटल रहने वाला है (शब्द की बरकत से मनुष्य) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सदा लीन रह सकते हैं, (यह) तिथियाँ और वार तब ही (मानवता के भले के लिए होते हैं) जब मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम से टूटे हुए सारे जीव कमजोर आत्मिक जीवन वाले (होने के कारण) भटकते रहते हैं।7। मनमुख मरहि मरि बिगती जाहि ॥ एकु न चेतहि दूजै लोभाहि ॥ अचेत पिंडी अगिआन अंधारु ॥ बिनु सबदै किउ पाए पारु ॥ आपि उपाए उपावणहारु ॥ आपे कीतोनु गुर वीचारु ॥८॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मरहि = आत्मिक मौत सहेड़ी रखते हैं। मरि = मर के, आत्मिक मौत मर के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। बिगति = बुरी आत्मिक अवस्था वाले। चेतहि = स्मरण करते (बहुवचन)। दूजै = माया में। लोभाहि = फसे रहते हैं। अचेत = गाफिल। अचेत पिंडी = मूर्ख मति वाला। अगिआन = आत्मिक जीवन से बेसमझ। अंधारु = (माया के मोह में फस के सही जीवन से) अंधा। पारु = (संसार समुंदर से) उसपार का किनारा। उपाए = पैदा करता है। आपे = खुद ही। कीतोनु = उसने किया है।8। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, आत्मिक मौत मर के (जगत से) खराब आत्मिक हालत में ही जाते हैं (क्योंकि) वह (कभी) परमातमा का स्मरण नहीं करते; और माया के मोह में ही फसे रहते हैं। हे भाई! मूर्ख मति वाला मनुष्य, आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझ मनुष्य, माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (विकारों भरे संसार-समुंदर का) उस पार का किनारा नहीं पा सकता (वह सदा विकारों में ही डूबा रहता है)। (पर, जीव के वश की बात नहीं), (जीवों को) पैदा करने की सामर्थ्य वाले परमात्मा ने खुद (ही जीवों को) पैदा किया है, (उसने) स्वयं ही (सही जीवन के बारे में) गुरु का (बताया) विचार बनाया हुआ है (गुरु के बताए रास्ते पर वह खुद ही जीवों को चलाता है)।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |