श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बहुते भेख करहि भेखधारी ॥ भवि भवि भरमहि काची सारी ॥ ऐथै सुखु न आगै होइ ॥ मनमुख मुए अपणा जनमु खोइ ॥ सतिगुरु सेवे भरमु चुकाए ॥ घर ही अंदरि सचु महलु पाए ॥९॥

पद्अर्थ: भेखधारी = निरे धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य। भवि भवि = (तीर्थ आदि जगह) भटक भटक के। भरमहि = भटकते फिरते हैं। सारी = नरद। काची सारी = कच्ची नरद।

(नोट: चौपड़ की खेल में एक खिलाड़ी की नरद अपने घर से चल के बयालिस घरों तक कच्ची ही रहती है। दूसरे की नरद पीछे से आ के उसको मार सकती है। अगर इतने घरों (42) को पार कर जाए तो वह विरोधी की मार से बच जाती है)।

ऐथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुए = आत्मिक मौत मर गए। खोइ = व्यर्थ गवा के। सेवे = शरण पड़ता है। भरमु = भटकना। चुकाए = दूर कर लेता है। सचु महलु = प्रभु का सदा स्थिर ठिकाना।9।

अर्थ: हे भाई! सिर्फ धार्मिक पहरावे का आसरा लेने वाले मनुष्य अनेक भेस करते रहते हैं, (तीर्थों आदि कई जगहों पर) भटक-भटक के चलते-फिरते हैं, (ऐसे मनुष्य) कच्ची नरदों (की तरह विकारों से मार खाते ही रहते हैं) उनको आत्मिक आनंद ना तो इस लोक में मिलता है ना ही परलोक में मिलता है। अपने मन के पीछे चलने वाले (ऐसे मनुष्य) अपना मानव जनम व्यर्थ गवा के आत्मिक मौत मरे रहते हैं।

जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (अपने अंदर से) भटकना खत्म कर लेता है, वह अपने हृदय-घर में ही सदा-स्थिर-प्रभु का ठिकाना ढूँढ लेता है (उसे तिथियों आदि का आसरा ले के तीर्थों आदि पर भटकने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती)।9।

आपे पूरा करे सु होइ ॥ एहि थिती वार दूजा दोइ ॥ सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु ॥ थिती वार सेवहि मुगध गवार ॥ नानक गुरमुखि बूझै सोझी पाइ ॥ इकतु नामि सदा रहिआ समाइ ॥१०॥२॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। एहि = यह, वे। दूजा = माया का मोह। दोइ = मेर तेर, द्वैत। अंधु गुबारु = पूरी तौर पर अंधा। सेवहि = मनाते हैं। बूझै = समझता है। सोझी = समझ। इकतु = सिर्फ एक में। इकतु नामि = सिर्फ हरि के नाम में। रहिआ समाइ = लीन रहता है।10।

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! पूरन-प्रभु खुद ही (जो कुछ) करता है वही होता है (विषोश तिथियों को बढ़िया उत्तम जान के भटकते ना फिरो, बल्कि) बल्कि ये तिथियाँ ये वार मननाने तो माया का मोह पैदा करने का कारण बनते हैं, मेर-तेर पैदा करते हैं।

गुरु की शरण आए बिना मनुष्य (आत्मिक जीवन की ओर से) पूरी तौर पर अंधा हुआ रहता है, (गुरु का आसरा छोड़ के) मूर्ख मनुष्य ही तिथियों और वार मनाते फिरते हैं।

हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (जो मनुष्य) समझता है, उसको (आत्मिक जीवन की) सूझ आ जाती है, वह मनुष्य सदा सिर्फ परमात्मा के नाम नही लीन रहता है।10।2।

बिलावलु महला १ छंत दखणी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मुंध नवेलड़ीआ गोइलि आई राम ॥ मटुकी डारि धरी हरि लिव लाई राम ॥ लिव लाइ हरि सिउ रही गोइलि सहजि सबदि सीगारीआ ॥ कर जोड़ि गुर पहि करि बिनंती मिलहु साचि पिआरीआ ॥ धन भाइ भगती देखि प्रीतम काम क्रोधु निवारिआ ॥ नानक मुंध नवेल सुंदरि देखि पिरु साधारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: मुंध = (मुग्धा = a young girl attractive by her youthful simplicity) जवान लड़की जिसको अभी अपनी जवानी का अहिसास नहीं है, भले स्वभाव वाली जीव-स्त्री। नवेलड़ीआ = नई, विकारों से बची हुई। गोइलि = गोइल में (आम तौर पर नदियों के किनारे की वह हरी भरी जगहें जहाँ पर लोग जरूरत के समय अपना पशु-मवेशी चराने के लिए अस्थाई रूप से आ बसते हैं), चार दिन के बसेरे वाले जगत में। मटुकी = चाटी (‘मट’ से ‘मटकी’ अल्पार्थक संज्ञा है)। मटुकी डारि धरी = मटकी सिर पर से उतार के किनारेपर रख दी है, शरीर का मोह त्याग दिया है, देह-अध्यास छोड़ दिया है। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। सबदि = गुरु के शब्द से। सीगारीआ = श्रृंगार किया है, अपना जीवन सुंदर बनाया है। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। (देखें सूही महला १, छंत नंबर ५, अंक नंबर ६)। करि = करे, करती है। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)। पिआरीआ = मैं प्रभु को प्यार कर सकूँ। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। भाइ = भाव से, प्रेम में जुड़ के। भाउ = प्रेम। नवेल = नई, विकारों से बची हुई। सुंदरी = सुंदरी, सुंदर जीवन वाली। देखि पिरु = प्रभु पति को देख के। साधारिआ = आधार सहित हो जाती है प्रभु का आसरा हृदय में बनाती है।1।

अर्थ: थोड़े दिनों के बसेरे वाले इस जगत में आ के जो जीव-स्त्री विकारों से बची रहती है, जिसने परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ी हुई है और शरीर का मोह त्याग दिया है, जो प्रभु चरणों में प्रीति जोड़ के इस जगत में जीवन बिताती है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के सतिगुरु के शब्द की इनायत से अपना जीवन सुंदर बना लेती है। वह (सदा दोनों) हाथ जोड़ के गुरु के पास विनती करती रहती है (कि, हे गुरु! मुझे) मिल (ताकि मैं तेरी कृपा से) सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ के उसको प्यार कर सकूँ।

ऐसी जीव-स्त्री प्रीतम-प्रभु की भक्ति के द्वारा प्रीतम प्रभु के प्रेम में टिक के उसका दर्शन करके काम-क्रोध (आदि विकारों को अपने अंदर से) दूर कर लेती है। हे नानक! पवित्र और सुंदर जीवन वाली वह जीव-स्त्री प्रभु-पति के दीदार करके (उसकी याद को) अपने हृदय का आसरा बना लेती है।1।

सचि नवेलड़ीए जोबनि बाली राम ॥ आउ न जाउ कही अपने सह नाली राम ॥ नाह अपने संगि दासी मै भगति हरि की भावए ॥ अगाधि बोधि अकथु कथीऐ सहजि प्रभ गुण गावए ॥ राम नाम रसाल रसीआ रवै साचि पिआरीआ ॥ गुरि सबदु दीआ दानु कीआ नानका वीचारीआ ॥२॥

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के। नवेइड़ीए = हे विकारों से बची हुई जीव-स्त्री! जोबनि = जोबन में, जवानी में। बाली = बाल स्वभाव वाली, भोले स्वभाव वाली। कही = कहीं, किसी और जगह। आउ न जाउ = न आ न जा। नाली = साथ। सह नाली = पति प्रभु के साथ (जुड़ी रह)। नाह संगि = पति के साथ। मै = मुझे। भावए = भाव, प्यारी लगती है। अगाधि = अगाध (प्रभु) में। अगाध = (नदिंजीवदंइइसम) अथाह। बोधि = बुद्धि से, (गुरु के बख्शे) ज्ञान की इनायत से। अकथु = वह प्रभु जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सकते। कथीऐ = कहना चाहिए, गुणानुवाद करना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। गावए = (जो) गाती है। रसाल = (रस+आलय) रसों का घर, रसों का श्रोत। रसीआ = रसों के मालिक। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। पिआरिआ = प्यार करने वालों को। गुरि = गुरु ने। वीचारीआ = विचारवान।2।

अर्थ: हे सदा-स्थिर प्रभु में जुड़ के विकारों से बची हुई जीव-स्त्री! जवानी में भी भोले स्वभाव वाली (बनी रह; अहंकार छोड़ के) अपने पति-प्रभु (के चरणों) में टिकी रह (देखना, उसका पल्ला छोड़ के) किसी और जजगह ना भटकती फिरना।

वही दासी (सौभाग्य है जो) अपने पति की संगति में रहती है। (हे सखिए!) मुझे भी प्रभु-पति की भक्ति प्यारी लगती है, (जो जीव-स्त्री) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु के गुण गाती है (वह दासी अपने पति-प्रभु की संगति में शोभा पाती है)। (सो, सहेली! गुरु के बख्शे) ज्ञान से (गुणों के) अथाह (समुद्र-) प्रभु में (डुबकी लगा के) उस प्रभु के गुणगान करने चाहिए। वह प्रभु ऐसे स्वरूप वाला है जिसका बयान नहीं हो सकता।

रसों के श्रोत, रसों के मालिक प्रभु उस जीव-स्त्री को अपने चरणों में जोड़ता है जो उसके सदा-स्थिर नाम में प्यार डालती है। हे नानक! जिस सौभाग्यवती जीव-स्त्री को गुरु ने परमात्मा की महिमा का शब्द दिया, जिसको यह ऊँची दाति बख्शी, वह उच्च विचार के मालिक बन जाती है।2।

स्रीधर मोहिअड़ी पिर संगि सूती राम ॥ गुर कै भाइ चलो साचि संगूती राम ॥ धन साचि संगूती हरि संगि सूती संगि सखी सहेलीआ ॥ इक भाइ इक मनि नामु वसिआ सतिगुरू हम मेलीआ ॥ दिनु रैणि घड़ी न चसा विसरै सासि सासि निरंजनो ॥ सबदि जोति जगाइ दीपकु नानका भउ भंजनो ॥३॥

पद्अर्थ: स्री = श्री, लक्ष्मी, माया। स्रीधर = लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा। मोहिअड़ी = मोही हुई, प्यार वश हो चुकी। संगि = साथ। सूती = सोई हुई, चरणों में जुड़ी हुई। भाइ = प्यार में, अनुसार। चलो = चाल, जीवन। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। संगती = संगति में, लीन। धन = जीव-स्त्री। संगि सखी सहेलीआ = सत्संगियों की संगति में। इक भाइ = एक के प्रेम में, सिर्फ परमात्मा के प्रेम में। इक मनि = एकाग्र मन से। हम = हमें। रैणि = रात। चसा = पल का बीसवां हिस्सा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। निरंजनो = (निर+अंजन) जिस पर माया के मोह की कालिख का प्रभाव नहीं पड़ सकता। सबदि = गुरु के शब्द से। जगाइ = जगा के। दीपकु = दीया। भउ = (हरेक) डर, सहम। भंजनो = नाश कर लिया है।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस जीव-स्त्री की) जीवन-चाल गुरु के अनुसार रहती है जो जीव-स्त्री सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन रहती है, (वह जीव-स्त्री) माया के पति प्रभु के प्यार-वश में हो जाती है वह जीव-स्त्री पति-प्रभु के चरणों में जुड़ी रहती है। हे भाई! सत्संगी सहेलियों के साथ मिल के जो जीव-स्त्री सदा-स्थिर प्रभु (की याद) में लीन होती है, प्रभु-पति के चरणों में जुड़ती है, परमात्मा के प्यार में एकाग्र-मन टिकने के कारण (उसके अंदर परमात्मा का) नाम आ बसता है (उसके अंदर ये श्रद्धा बन जाती है कि) गुरु ने (मुझे) प्रभु के चरणों में मिलाया है। (उस जीव-स्त्री को) दिन-रात घड़ी-पल (किसी वक्त भी परमात्मा की याद) नहीं भूलती, (वह जीव-स्त्री) हरेक सांस के साथ निरंजन-प्रभु (को याद रखती है)। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु के शब्द के द्वारा (अपने अंदर ईश्वरीय) ज्योति जगा के दीया जला के (वह जीव-स्त्री अपने अंदर से हरेक) डर-सहम नाश कर लेती है।3।

जोति सबाइड़ीए त्रिभवण सारे राम ॥ घटि घटि रवि रहिआ अलख अपारे राम ॥ अलख अपार अपारु साचा आपु मारि मिलाईऐ ॥ हउमै ममता लोभु जालहु सबदि मैलु चुकाईऐ ॥ दरि जाइ दरसनु करी भाणै तारि तारणहारिआ ॥ हरि नामु अम्रितु चाखि त्रिपती नानका उर धारिआ ॥४॥१॥

पद्अर्थ: सबाइड़ीए = सबाइ अड़ीए! सबाइ = सब जगह। अड़ीए = हे सहेली! त्रिभवण = तीन भवन, सारा जगत। सारे = संभाल करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। रवि रहिआ = व्यापक है। अलख = अद्रिष्ट। अपार = बेअंत। साचा = सदा कायम रहने वाला। आपु = स्वै भाव। मारि = मार के। जालहु = जला दो। ममता = (मम = मेरी) अपनत्व, माया जोड़ने की खींच। सबदि = गुरु के शब्द से। चुकाईऐ = दूर कर सकती है। दरि = (गुरु के) दर पर। करी = कर लेना, हे सहेली! भाणै = रजा में। तारणहारिआ = हे तारनहार! तैराने की समर्थता रखने वाले हे प्रभु! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। चाखि = चख के। त्रिपती = (माया की तृष्णा से) तृपत हो गई। उर = हृदय।4।

अर्थ: हे सहेलीए! (परमात्मा की) ज्योति हर जगह (पसरी हुई) है, वह प्रभु सारे जगत की संभाल करता है। वह अदृष्य और बेअंत प्रभु हरेक शरीर में मौजूद है।

हे सहेली! वह परमात्मा अदृष्य है बेअंत है, बेअंत है, वह सदा कायम रहने वाला है। स्वै भाव मार के (ही उसको) मिला जा सकता है। हे सहेली! (अपने अंदर से) अहंकार, माया जोड़ने की कसक और लालच जला दे (सहेलिए! अहंकार ममता लोभ आदि की) मैल गुरु के शब्द से ही समाप्त की जा सकती है।

(सो, हे सहेलिए! गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की) रजा में (चल के जीवन व्यतीत कर, और अरदास किया कर-) हे तारणहार प्रभु! (मुझे विकारों के समुंदर से) पार लंघा ले (इस तरह, हे सहेलिए! गुरु के) दर पर जा के (परमात्मा के) दर्शन कर लेगी।

हे नानक! (कह: हे सहेली! जो जीव-स्त्री प्रभु का नाम अपने) हृदय में बसाती है वह आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल चख के (माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाती है।4।1।

बिलावलु महला १ ॥ मै मनि चाउ घणा साचि विगासी राम ॥ मोही प्रेम पिरे प्रभि अबिनासी राम ॥ अविगतो हरि नाथु नाथह तिसै भावै सो थीऐ ॥ किरपालु सदा दइआलु दाता जीआ अंदरि तूं जीऐ ॥ मै अवरु गिआनु न धिआनु पूजा हरि नामु अंतरि वसि रहे ॥ भेखु भवनी हठु न जाना नानका सचु गहि रहे ॥१॥

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। घणा = बहुत। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में (टिक के)। विगासी = मैं खिल रही हूँ, मेरा मन खिला रहता है। पिरे = पिर ने। प्रभि = प्रभु ने। अविगतो = (अव्यतत्र) अद्रिष्ट। नाथु नाथह = नाथों का नाथ। तिसै = उस (प्रभु) को ही। थीऐ = होता है। जीऐ = जिंद देने वाला। अवरु = और। गिआनु = धर्म चर्चा। धिआनु = समाधि आदि का उद्यम। भवनी = तीर्थ यात्रा। हठु = हठ (के आसरे किए) योग आसन। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1।

अर्थ: हे सहेली! अविनाशी प्यारे प्रभु ने (मेरे मन को अपने) प्रेम (की खींच से) मस्त कर रखा है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के नाम) में (टिक के) मेरा मन खिला रहता है, मेरे मन में बहुत चाव बना रहता है। हे सहेली! वह परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, पर वह परमात्मा (बड़े-बड़े) नाथों का (भी) नाथ है, (जगत में) वह ही होता है, जो उस परमात्मा को ही अच्छा लगता है।

हे प्रभु! तू मेहर का समुंदर है, तू सदा ही दया का श्रोत है, तू ही सब दातें देने वाला है, तू ही सब जीवों के अंदर का प्राण है।

हे सहेली! (मेरे) मन में परमात्मा का नाम बस रहा है (इस हरि-नाम के बराबर की) मुझे कोई धर्म-चर्चा, कोई समाधि, कोई देव-पूजा नहीं सूझती। हे नानक! (कह: हे सहेलिए!) मैंने सदा कायम रहने वाले हरि-नाम को (अपने हृदय में) पक्की तरह टिका लिया है (इसके बराबर का) मैं कोई भेस, कोई तीर्थ-रटन, कोई हठ योग नहीं समझती।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh