श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 844 भिंनड़ी रैणि भली दिनस सुहाए राम ॥ निज घरि सूतड़ीए पिरमु जगाए राम ॥ नव हाणि नव धन सबदि जागी आपणे पिर भाणीआ ॥ तजि कूड़ु कपटु सुभाउ दूजा चाकरी लोकाणीआ ॥ मै नामु हरि का हारु कंठे साच सबदु नीसाणिआ ॥ कर जोड़ि नानकु साचु मागै नदरि करि तुधु भाणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: भिंनड़ी = (हरि नाम के रस से) भीगी हुई (जीव-स्त्री) को। रैणि = रात। सुहाए = सुहावने, सुख देने वाले। निज घरि = अपने घर में, अपने आप में। सूतड़ीए = हे सोई हुई जीव-स्त्री! हे हरि नाम से बेपपरवाह हो रही जीव-स्त्री! पिरमु = प्रभु का प्रेम। जगाए = (माया के मोह से) सचेत करता है। हाणि = (हायन) साल, वर्ष। नव हाणि = नई उम्र वाली, विकारों से बची हुई। धन = जीव-स्त्री। नव = नई। सबदि = गुरु के शब्द से। जागी = (माया के मोह से) सचेत रहती है। पिर भाणीआ = प्रभु का प्यारी लगती है। तजि = त्याग के। कूड़ु = झूठ, नाशवान पदार्थों का मोह। सुभाउ दूजा = प्रभु को छोड़ के अन्य से प्यार डालने वाली आदत। लोकाणीआ = लोगों की। चाकरी = खुशामद, अधीनता। कंठे = गले में। साच सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा। नीसाणिआ = परवाना, राहदारी, जिंदगी की अगुवाई करने वाला परवाना। कर = हाथ (बहुवचन)। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। नदरि = मेहर की निगाह। तुधु भाणिआ = अगर तुझे अच्छा लगे।2। अर्थ: हे अपने आप में मस्त रहने वाली जीव-स्त्री! (देख, जिस जीव-स्त्री को) परमात्मा का प्यार (माया के मोह से) सचेत करता है, जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द की इनायत से (माया के मोह से) सचेत होती है, वह जीव-स्त्री विकारों से बची रहती है, हरि-नाम रस में भीगी हुई उस जीव-स्त्री को (जिंदगी की) रातें और दिन सब सुहावने लगते हैं। वह जीव-स्त्री नाशवान पदार्थों का मोह, ठगी-फरेब, माया से प्यार डाले रखने वाली आदत, और लोगों की अधीनता छोड़ के अपने प्रभु-पति को प्यारी लगने लग जाती है। हे सखिए! (जैसे) गले में हार (डाला जाता है, वैसे ही) परमातमा का नाम मैंने (अपने गले में परो लिया है) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा (मेरी जिंदगी की अगवाई करने वाला) परवाना है। नानक (दोनों) हाथ जोड़ के (परमात्मा के दर से उसका) सदा-स्थिर रहने वाला नाम मांगता रहता है (अऔर कहता है: हे प्रभु!) अगर तुझे अच्छा लगे (तो मेरे ऊपर) मेहर की निगाह कर (मुझे अपना नाम दे)।2। जागु सलोनड़ीए बोलै गुरबाणी राम ॥ जिनि सुणि मंनिअड़ी अकथ कहाणी राम ॥ अकथ कहाणी पदु निरबाणी को विरला गुरमुखि बूझए ॥ ओहु सबदि समाए आपु गवाए त्रिभवण सोझी सूझए ॥ रहै अतीतु अपर्मपरि राता साचु मनि गुण सारिआ ॥ ओहु पूरि रहिआ सरब ठाई नानका उरि धारिआ ॥३॥ पद्अर्थ: जागु = (माया के हमलों की ओर से) सावधान रह। लोइण = आँखें। सलोनड़ीए = हे सुंदर नेत्रों वाली जीव-स्त्री! बोलै = बोलती है, जगाती है, सावधान करती है। जिनि = जिस ने। सुणि = सुन के। अकथ कहाणी = अकथ प्रभु की महिमा। अकथ = अ+कथ, जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। पदु = आत्मिक दर्जा। निरबार = वासना रहित। को = कोई। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बूझए = समझता है। सबदि = गुरु के शब्द में। आपु = स्वै भाव। त्रिभवण सोझी = सारे जगत में व्यापक प्रभु की सूझ। अतीतु = विरक्त, माया के मोह से परे। अपरंपरि = परे से परे प्रभु में, बेअंत प्रभु में। राता = मस्त। साचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में। सारिआ = संभालता है। ओहु = वह (अपरंपर प्रभु)। सरब ठाई = सब जगह। उरि = हृदय में।3। अर्थ: हे सुंदर नेत्रों वाली जीव-स्त्री! (माया के हमलों की ओर से) सावधान रह, (तुझे) गुरु की वाणी जगा रही है। जिस (जीव-स्त्री) ने (गुरु की वाणी) सुन के (उसमें) श्रद्धा बनाई है, वह अकथ परमात्मा की महिमा करने लग जाती है। अकथ प्रभु की महिमा की इनायत सेवह उस आत्मिक दर्जे पर पहुँच जाती है जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती। पर गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला यह बात समझता है, वह (गुरमुख) मनुष्य गुरु के शब्द में लीन रहता है, (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, जगत में व्यापक परमात्मा के साथ उसकी गहरी सांझ हो जाती है। वह मनुष्य माया के मोह से बचा रहता है, बेअंत प्रभु (के प्रेम) में मस्त रहता है, सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा (हर वक्त उसके) मन में (बसा रहता है), वह (परमात्मा के) गुणों को अपने हृदय में बसाए रखता है। हे नानक! वह मनुष्य उस प्रभु को अपने हृदय में बसाए रखता है जो सब जगह व्यापक हो रहा है।3। महलि बुलाइड़ीए भगति सनेही राम ॥ गुरमति मनि रहसी सीझसि देही राम ॥ मनु मारि रीझै सबदि सीझै त्रै लोक नाथु पछाणए ॥ मनु डीगि डोलि न जाइ कत ही आपणा पिरु जाणए ॥ मै आधारु तेरा तू खसमु मेरा मै ताणु तकीआ तेरओ ॥ साचि सूचा सदा नानक गुर सबदि झगरु निबेरओ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: महलि = महल में, प्रभु के चरणों में, प्रभु दर पर। बुलाड़ीए = हे बुलाई हुई जीव-स्त्री! महलि बुलाइड़ीए = हे प्रभु दर पर पहुँची हुई जीव-स्त्री! सनेही = प्यार करने वाला। भगति सनेही = भक्ति से प्यार करने वाला। मनि = मन में। रहसी = प्रसन्न। सीझसि = सफल हो जाती है। देही = काया, शरीर। मारि = मार के, वश में ला के। रीझै = खुश होती है, आत्मिक आनंद हासिल करती है। सबदि = शब्द से। सीझै = कामयाब होती है। पछाणए = पहचानती है। डीगि = गिर के, ठोकर खा के। डोलि = डोल के। कतही = कहीं भी। जाणए = जाने। आधारु = आसरा। ताणु = बल, सहारा। तकीआ = आसरा। तेरओ = तेरा ही। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। सूचा = स्वच्छ जीवन वाला। झगरु = (माया के मोह की) खहि खहि। निबेरिओ = खत्म कर लेता है।4। अर्थ: हे प्रभु दर पर पहुँची हुई जीव-स्त्री! (जिस प्रभु ने तुझे अपने चरणों में जोड़ा है, वह) भक्ति से प्यार करने वाला है। (जो जीव-स्त्री) गुरु की मति पर चल के (प्रभु की भक्ति करती है, उसके) मन में आत्मिक आनंद बना रहता है, (उसका मानव) शरीर सफल हो जाता है। (जो जीव-स्त्री अपने) मन को वश में करके आत्मिक आनंद हासिल करती है, गुरु के शब्द से वह (जीवन में) कामयाब होती है सारे जगत के मालिक प्रभु से वह सोझ डाल लेती है। (उसका मन) किसी भी और तरफ डोलता नहीं, वह (हर वक्त) अपने प्रभु-पति के साथ गहरी सांझ डाले रखती है। हे प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है, तू (ही) मेरा पति है, मुझे तेरा ही आसरा तेरा ही सहारा है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरि-नाम में (सदा लीन रहता है) वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। गुरु के शब्द के द्वारा (वह मनुष्य माया के मोह की) चिक-चिक ख्खत्म कर लेता है।4।2। छंत बिलावलु महला ४ मंगल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरा हरि प्रभु सेजै आइआ मनु सुखि समाणा राम ॥ गुरि तुठै हरि प्रभु पाइआ रंगि रलीआ माणा राम ॥ वडभागीआ सोहागणी हरि मसतकि माणा राम ॥ हरि प्रभु हरि सोहागु है नानक मनि भाणा राम ॥१॥ पद्अर्थ: सेजै = (हृदय की) सेज पर। सुखि = आनंद में। गुरि तुठै = गुरु के मेहरवान होने पर, गुरु के प्रसन्न होने पर। रंगि = प्रेम में। रलीआ = मिलाप का स्वाद, रलियां। वडभागीआ = बड़े भाग्यों वाली। सोहागणी = प्रभु पति वालियां। मसतकि = माथे पर। माणा = माणिक। सोहागु = पति। मनि = मन में। भाणा = प्यारा लगा।1। अर्थ: हे सहेलिए! (जिस भाग्यशाली जीव-स्त्री की हृदय-) सेज पर प्यारा हरि-प्रभु आ बैठा, उसका मन आत्मिक आनंद में मगन हो जाता है। गुरु के प्रसन्न होने पर जिस (जीव-स्त्री) को हरि-प्रभु मिल गया, वह प्रेम में (मस्त हो के प्रभु के मिलाप का) स्वाद भोगती है। हे नानक! (कह: हे सहेलिए!) जिनके माथे पर हरि (-मिलाप का) मोती (चमक जाता) है, वे भाग्यशाली हो जाती हैं, वे सुहागनें बन जाती हैं। हरि-प्रभु-पति (उनके सिर पर) विद्यमान हो जाता है, उनको पति-प्रभु मन में प्यारा लगने लगता है।1। निमाणिआ हरि माणु है हरि प्रभु हरि आपै राम ॥ गुरमुखि आपु गवाइआ नित हरि हरि जापै राम ॥ मेरे हरि प्रभ भावै सो करै हरि रंगि हरि रापै राम ॥ जनु नानकु सहजि मिलाइआ हरि रसि हरि ध्रापै राम ॥२॥ पद्अर्थ: आपै = आपे में, आत्मा में, जिंद में, प्राण में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। आपु = स्वै भाव। जापै = जपता है। भावै = अच्छा लगता है। रंगि = प्रेम रंग में। रापै = रंगा जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। ध्रापै = तृप्त होता है। हरि रसि = हरि नाम रस की इनायत से।2। अर्थ: हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लेता है, और सदा परमात्मा का नाम जपता रहता है, हरि-प्रभु उसके स्वै में (जिंद में) सदा टिका रहता है (उसको समझ आ जाती है कि) जिनको कोई आदर नहीं देता, परमात्मा उनका आदर-सहारा बन जाता है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगा रहता है (उसे यह विश्वास हो जाता है कि) मेरा प्रभु वही कुछ करता है जो उसको अच्छा लगता है। दास नानक (कहता है - हे भाई! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, परमात्मा के नाम-रस की इनायत से वह (माया की ओर से) तृप्त रहता है।2। माणस जनमि हरि पाईऐ हरि रावण वेरा राम ॥ गुरमुखि मिलु सोहागणी रंगु होइ घणेरा राम ॥ जिन माणस जनमि न पाइआ तिन्ह भागु मंदेरा राम ॥ हरि हरि हरि हरि राखु प्रभ नानकु जनु तेरा राम ॥३॥ पद्अर्थ: माणस जनमि = मानव जनम में। पाईऐ = मिल सकते हैं। रावण वेरा = मिलाप की बारी। वेरा = बारी, वेला, समय। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सोहागणी = हे अच्छे भाग्यों वाली जीव-स्त्री! घणेरा = बहुत। मंदेरा = खोटा। प्रभ = हे प्रभु! जन = दास।3। अर्थ: हे भाई! मानव जन्म में (ही) परमात्मा को मिल सकते हैं। (मनुष्य जन्म ही) परमात्मा का मिलाप पाने का वक्त है। हे सौभाग्यशाली जीव-सि्त्रऐ! गुरु के द्वारा प्रभु को मिल। (गुरु की शरण पड़ने से मिलाप का प्रेम-) रंग बहुत चढ़ता है। हे भाई! जिन्होंने मानव जन्म में परमात्मा का मिलाप हासिल ना किया, उनकी खोटी किस्मत जानो। हे हरि! हे प्रभु! नानक को (अपने चरणों में) जोड़े रख, नानक तेरा दास है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |