श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 851 सलोक मः ३ ॥ ध्रिगु एह आसा दूजे भाव की जो मोहि माइआ चितु लाए ॥ हरि सुखु पल्हरि तिआगिआ नामु विसारि दुखु पाए ॥ मनमुख अगिआनी अंधुले जनमि मरहि फिरि आवै जाए ॥ कारज सिधि न होवनी अंति गइआ पछुताए ॥ जिसु करमु होवै तिसु सतिगुरु मिलै सो हरि हरि नामु धिआए ॥ नामि रते जन सदा सुखु पाइन्हि जन नानक तिन बलि जाए ॥१॥ पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। दूजे भाव की = (परमात्मा के बिना) किसी और से प्यार डालने वाली। मोहि = मोह में। पल्रि = पराली के बदले (पराली = फूस। तुच्छ वस्तु के बदले में)। विसारि = भुला के। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। अंधुले = जिनको जीवन का सही रास्ता नहीं दिखता। जनमि मरहि = पैदा हो के मरते हैं। सिधि = कामयाबियाँ। न होनी = नहीं होतीं। अंति = आखिर को। करमु = बख्शिश। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। पाइनि! = डालते हैं। बलि जाए = सदके जाता है।1। अर्थ: जो मनुष्य माया के मोह में (अपने) चिक्त को जोड़ता है उसकी ये माया से प्यार बढ़ाने वाली आस (और आदत) (उसके लिए) धिक्कार ही कमाने वाली (साबित) होती है (क्योंकि वह मनुष्य) परमात्मा के नाम के आनंद को पराली के बदले में त्याग देता है, परमात्मा का नाम भुला के वह दुख (ही) पाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ से वंचित रहते हैं, जीवन का सही रास्ता उन्हें नहीं दिखाई देता (इसलिए वे) जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। मनमुख बंदा बारंबार पैदा होता मरता रहता है। (प्रभु को बिसार के मनमुख ने और ही कई तरह के धंधे बुने होते हैं, उन) कामों में (उसको) सफलताएं नहीं मिलतीं, आखिर यहाँ से आहें भरता ही जाता है। जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है उसको गुरु मिलता है, वह सदा प्रभु का नाम स्मरण करता है। नाम में रंगे हुए मनुष्य सदा आत्मिक आनंद का सुख पाते हैं। हे दास नानक! (कह:) मैं उनसे सदके जाता हूँ।1। मः ३ ॥ आसा मनसा जगि मोहणी जिनि मोहिआ संसारु ॥ सभु को जम के चीरे विचि है जेता सभु आकारु ॥ हुकमी ही जमु लगदा सो उबरै जिसु बखसै करतारु ॥ नानक गुर परसादी एहु मनु तां तरै जा छोडै अहंकारु ॥ आसा मनसा मारे निरासु होइ गुर सबदी वीचारु ॥२॥ पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, (हर वक्त) माया की चितवनी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने। सभु को = हरेक जीव। जम = मौत, आत्मिक मौत। चीरा = पल्ला, हल्का, घेरा। जेता = जितना भी। आकारु = दिखता जगत। लगदा = जोर डालता। उबरे = बचता है। परसादि = कृपा से। जा = जब। निरासु = (माया की) आशाओं से निर्लिप।2। अर्थ: हे भाई! (हर वक्त माया की) आशा (हर समय माया की ही) चितवनी जगत में (जीवों को) मोह रही है, इसने सारे जगत को अपने वश में किया हुआ है। जितना भी जगत दिखाई दे रहा है (इस आशा-मनसा के कारण जगत का) हरेक जीव आत्मिक मौत के पंजे में है। (पर) ये आत्मिक मौत (परमात्मा के) हुक्म में ही व्यापती है (इस वास्ते इससे) वही बचता है जिस पर कर्तार मेहर करता है (और, परमात्मा कृपा करता है गुरु के माध्यम से)। हे नानक! जब गुरु की कृपा से मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर करता है, जब गुरु के शब्द में तवज्जो जोड़ता है तब मनुष्य आसा-मनसा को खत्म कर लेता है (दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही) आशाओं से ऊपर रहता है, तब मनुष्य का मन (आसा-मनसा के चक्र-व्यूह में से, बवंडर में से) पार लांघ जाता है।2। पउड़ी ॥ जिथै जाईऐ जगत महि तिथै हरि साई ॥ अगै सभु आपे वरतदा हरि सचा निआई ॥ कूड़िआरा के मुह फिटकीअहि सचु भगति वडिआई ॥ सचु साहिबु सचा निआउ है सिरि निंदक छाई ॥ जन नानक सचु अराधिआ गुरमुखि सुखु पाई ॥५॥ पद्अर्थ: महि = में। तिथै = वहीं। साई = पति। अगै = परलोक में। सभु = हर जगह। आपे = आप ही। वरतदा = मौजूद है। सचा = सदा कायम रहने वाला। निआई = न्याय करने वाला। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी, माया ग्रसित जीव। फिटकीअहि = फिटकारे जाते हैं। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम। वडिआई = आदर। सिरि = सिर पर। छाई = राख। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।5। अर्थ: हे भाई! संसार में जिस जगह भी जाएं, वहीं मालिक प्रभु हाजिर है। परलोक में भी हर जगह सच्चा न्याय करने वाला परमात्मा स्वयं ही काम-काज चला रहा है। (उसकी हजूरी में) माया-ग्रसित जीवों को धिक्कारें पड़ती हैं। (पर जिनके हृदय में) सदा-स्थिर हरि-नाम बसता है प्रभु की भक्ति टिकी हुई है, उनको सम्मान मिलता है। हे भाई! मालिक-प्रभु सदा कायम रहने वाला है उसका इन्साफ भी अटल है। (उसके न्याय के अनुसार ही गुरमुखों की) निंदा करने वालों के सिर पर राख पड़ती है। हे नानक! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण किया है उनको आत्मिक आनंद मिला है।5। सलोक मः ३ ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाईऐ जे हरि प्रभु बखस करेइ ॥ ओपावा सिरि ओपाउ है नाउ परापति होइ ॥ अंदरु सीतलु सांति है हिरदै सदा सुखु होइ ॥ अम्रितु खाणा पैन्हणा नानक नाइ वडिआई होइ ॥१॥ पद्अर्थ: पूरे भागि = पूरी किस्मत से। बखस = बख्शिश, मेहर। ओपावा सिर = सारे उपायों के सिर पर, सभी उपायों से बढ़िया। अंदरु = मन, हृदय। हिरदै = हृदय में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। नाइ = नाम से।1। अर्थ: हे भाई! अगर परमात्मा मेहर करे तो (मनुष्य को) बड़ी किस्मत से गुरु मिल जाता है। (गुरु का मिलना ही) सारे उपायों से बढ़िया उपाय है (जिसके द्वारा परमात्मा का) नाम हासिल होता है। (नाम की इनायत से मनुष्य का) मन ठंडा शीतल हो जाता है (मनुष्य के) हृदय में सदा आनंद बना रहता है। हे नानक! (सतिगुरु के मिलने से जिस मनुष्य की) खुराक और पोशाक (भाव, जिंदगी का आसरा) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बन जाता है उसको नाम के द्वारा (हर जगह) आदर मिलता है।1। मः ३ ॥ ए मन गुर की सिख सुणि पाइहि गुणी निधानु ॥ सुखदाता तेरै मनि वसै हउमै जाइ अभिमानु ॥ नानक नदरी पाईऐ अम्रितु गुणी निधानु ॥२॥ पद्अर्थ: ए मन = हे मन! सिख = सिख, शिक्षा। पाइहि = तू पा लेगा। गुणी निधानु = गुणों का खजाना परमात्मा। तेरै मनि = तेरे मन में। वसै = बस जाएगा, बसता दिख जाएगा। जाइ = दूर हो जाएगा। नदरी = मेहर की निगाह से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला।1। अर्थ: हे मन! गुरु की शिक्षा अपने अंदर बसा (इस तरह) तू गुणों के खजाने परमात्मा को ढूँढ लेगा। (सारे) सुख देने वाला परमात्मा तुझे तेरे अंदर बसता दिख पड़ेगा (तेरे अंदर से) अहंकार दूर हो जाएगा। हे नानक! आत्मिक जीवन देने वाला और सारे गुणों का खजाना परमात्मा (गुरु के द्वारा अपनी) मेहर की निगाह से (ही) मिलता है।2। पउड़ी ॥ जितने पातिसाह साह राजे खान उमराव सिकदार हहि तितने सभि हरि के कीए ॥ जो किछु हरि करावै सु ओइ करहि सभि हरि के अरथीए ॥ सो ऐसा हरि सभना का प्रभु सतिगुर कै वलि है तिनि सभि वरन चारे खाणी सभ स्रिसटि गोले करि सतिगुर अगै कार कमावण कउ दीए ॥ हरि सेवे की ऐसी वडिआई देखहु हरि संतहु जिनि विचहु काइआ नगरी दुसमन दूत सभि मारि कढीए ॥ हरि हरि किरपालु होआ भगत जना उपरि हरि आपणी किरपा करि हरि आपि रखि लीए ॥६॥ पद्अर्थ: सिकदार = चौधरी। हहि = हैं। तितने सभि = वह सारे ही। कीए = पैदा किए हुए। ओइ = वह, वे। करहि = करते हैं। अरथीए = भिखारी। प्रभु = मालिक। कै वलि = के पक्ष में। तिनि = उस (प्रभु) ने। चारे खाणी = चारों खाणियों के जीव। सभ = सारे। गोले = दास। करि = बना के। दीए = रख दिए हैं। संतहु = हे संत जनो! जिनि = जिस (हरि) ने। वडिआई = गुण। काया = शरीर। मारि = मार के। करि = कर के।6। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई! जगत में) जितने भी शाह, बादशाह, राजे, ख़ान, अमीर और सरदार हैं, वह सारे परमात्मा के (ही) पैदा किए हुए हैं। जो कुछ परमात्मा (उनसे) करवाता है वही वह करते हैं, वह सारे परमात्मा के (दर पर ही) मांगते हैं। हे भाई! ऐसी सामर्थ्य वाला सब जीवों का मालिक वह परमात्मा (सदा) सतिगुरु के पक्ष में रहता है। उस परमात्मा ने चारों वर्णों चारों खाणियों के सारे जीव सारी ही सृष्टि (के जीव) (गुरु के) सेवक बना के गुरु के दर पर सेवा करने के लिए खड़े किए हुए हैं। हे संतजनो! देखो, परमात्मा की भक्ति करने का ये गुण है कि उस (परमात्मा) ने (भक्ति करने वाले अपने सेवक के) शरीर-नगर में से (कामादिक) सारे वैरी दुश्मन मार के (बाहर) निकाल दिए हैं। हे भाई! परमात्मा अपने भक्तों पर (सदा) दयावान होता है। परमात्मा मेहर करके (अपने भक्तों को कामादिक वैरियों से) स्वयं बचाता है।6। सलोक मः ३ ॥ अंदरि कपटु सदा दुखु है मनमुख धिआनु न लागै ॥ दुख विचि कार कमावणी दुखु वरतै दुखु आगै ॥ करमी सतिगुरु भेटीऐ ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक सहजे सुखु होइ अंदरहु भ्रमु भउ भागै ॥१॥ पद्अर्थ: कपटु = खोट। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। धिआनु न लागै = तवज्जो नहीं जुड़ती। वरतै = व्याप्त है। आगै = आगे, परलोक में। करमी = (परमात्मा की) मेहर से। भेटीऐ = मिलता है। ता = तब। सचि = सदा स्थिर में। सचि नामि = सदा-स्थिर हरि नाम में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अंदरहु = मन में से। भ्रमु = भटकना। भउ = सहम।1। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के मन में खोट टिका रहता है (इस वास्ते उसको) सदा (आत्मिक) कष्ट रहता है, उसकी तवज्जो (परमात्मा में) नहीं जुड़ती। उस मनुष्य की सारी मेहनत-कमाई दुख-कष्ट में ही होती है (उसको हर वक्त) कष्ट ही बना रहता है, परलोक में भी उसके वास्ते कष्ट ही है। हे नानक! (जब परमात्मा की) मेहर से (मनुष्य को) गुरु मिलता है तब सदा-स्थिर हरि-नाम में उसकी लगन लग जाती है, आत्मिक अडोलता में (टिकने के कारण उसको आत्मिक) आनंद मिला रहता है और उसके मन में से भटकना दूर हो जाती है सहम दूर हो जाता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |