श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ गुरमुखि सदा हरि रंगु है हरि का नाउ मनि भाइआ ॥ गुरमुखि वेखणु बोलणा नामु जपत सुखु पाइआ ॥ नानक गुरमुखि गिआनु प्रगासिआ तिमर अगिआनु अंधेरु चुकाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुख = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगता है। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। तिमर = अंधेरा। अगिआनु = आत्मिक जीवन की वजह से बेसमझी। चुकाइआ = समाप्त हो जाता है।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है (उसके अंदर) सदा परमात्मा के नाम की रंगत चढ़ी रहती है, उसको परमात्मा का नाम (अपने) मन में प्यारा लगता है। (वह मनुष्य हर जगह परमात्मा को ही) देखता है (सदा परमात्मा का) नाम ही उचारता है, नाम जपते हुए उसको आत्मिक आनंद मिला रहता है।

हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन की सूझ का प्रकाश हो जाता है (जिसकी इनायत से उसके अंदर से) सही जीवन की सूझ की वजह से बेसमझी का घोर अंधेरा समाप्त हो जाता है।2।

मः ३ ॥ मनमुख मैले मरहि गवार ॥ गुरमुखि निरमल हरि राखिआ उर धारि ॥ भनति नानकु सुणहु जन भाई ॥ सतिगुरु सेविहु हउमै मलु जाई ॥ अंदरि संसा दूखु विआपे सिरि धंधा नित मार ॥ दूजै भाइ सूते कबहु न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का बीचार ॥ हरि नामु न भाइआ बिरथा जनमु गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥३॥

पद्अर्थ: मैले = विकारी मन वाले। मरहि = आत्मिक मौत पाते हैं। गवार = मूर्ख। निरमल = पवित्र जीवन वाले। उर = हृदय। धारि = टिका के। भनति = कहता है। जन भाई = हे जनो! हे भाई! सेविहु = कार करते रहो। संसा = सहम, चिन्ता। विआपे = जोर डाले रखता है। सिरि = सिर पर। धंधा = कज़िया। मार = खपाना। दूजै भाइ = माया के प्यार में। न चेतहि = नहीं स्मरण करते। बीचार = सोचने का ढंग। भाइआ = अच्छा लगा। जमु = (आत्मिक) मौत। मारि = मार के, सही आत्मिक जीवन समाप्त करके।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य विकारी मन वाले रहते हैं और आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य पवित्र जीवन वाले होते हैं (क्योंकि उन्होंने) परमात्मा (के नाम) को अपने हृदय में टिका के रखा होता है। नानक कहता है: हे भाई जनो! सुनो, गुरु के बताए हुए राह पर चला करो (इस तरह अंदर से) अहंकार की मैल दूर हो जाती है।

पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों के अंदर सहम और कष्ट जोर डाले रखता है, उनके सिर पर (ऐसा) कज़िया खपाना बना ही रहता है (सिर पर धंधो का खपखाना, उलझनें बनी रहती हैं)। माया के प्यार में (फंस के वह सही जीवन की ओर से) सोए रहते हैं, कभी होश नहीं करते। माया का मोह माया का प्यार (इतना प्रबल होता है कि) वे कभी हरि-नाम नहीं स्मरण करते, महिमा की वाणी को नहीं विचारते- बस! मन के मुरीद लोगों के सोचने का ढंग ही ये बन जाता है। उनको परमात्मा का नाम अच्छा नहीं लगता, वे अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा लेते हैं, आत्मिक मौत उनके सही जीवन को समाप्त करके उनको तड़पाती रहती है।3।

पउड़ी ॥ जिस नो हरि भगति सचु बखसीअनु सो सचा साहु ॥ तिस की मुहताजी लोकु कढदा होरतु हटि न वथु न वेसाहु ॥ भगत जना कउ सनमुखु होवै सु हरि रासि लए वेमुख भसु पाहु ॥ हरि के नाम के वापारी हरि भगत हहि जमु जागाती तिना नेड़ि न जाहु ॥ जन नानकि हरि नाम धनु लदिआ सदा वेपरवाहु ॥७॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर नाम धन। बखसीअनु = बख्शी है उस (प्रभु) ने। सचा साहु = वह शाहूकार जिसके पास धन कभी समाप्त नहीं होता। मुहताजी = अधीनता, खुशामद। होरतु हटि = और किसी हट में। वथु = सौदा। वेसाहु = वणज, व्यापार। कउ = को, की ओर। सनमुख = सामने मुँह रखने वाला। रासि = राशि, संपत्ति। वेमुखु = परे मुँह रखने वाला, पीठ देने वाला। भसु = भस्म, राख, खजालत, खुवारी। पाहु = पड़ती है। हहि = है। जागाती = मसूलीआ। नानकि = नानक ने। वेपरवाहु = बेमुथाज।7।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति सदा कायम रहने वाला धन है। जिस मनुष्य को परमात्मा ने भक्ति (की दाति) दी, वह सदा के लिए शाहूकार बन गया। सारा जगत उसके दर का अर्थिया बनता है (क्योंकि) किसी और हाट में ना ये सौदा मिलता है ना ही इसका वणज होता है। जो मनुष्य भक्त जनों की तरफ़ अपना मुँह रखता है, उसको ये संपत्ति ये पूंजी मिल जाती है, पर भक्त-जनों से मुँह मोड़ने वाले के सिर पर राख ही पड़ती है।

हे भाई! परमात्मा के भक्त परमात्मा के नाम का वणज करते हैं, जम मसूलिया उनके नजदीक नहीं फटकता। दास नानक ने (भी) परमात्मा के नाम-धन का सौदा लादा है (इस वास्ते दुनिया के धन की ओर से) बेमुहताज रहता है।7।

सलोक मः ३ ॥ इसु जुग महि भगती हरि धनु खटिआ होरु सभु जगतु भरमि भुलाइआ ॥ गुर परसादी नामु मनि वसिआ अनदिनु नामु धिआइआ ॥ बिखिआ माहि उदास है हउमै सबदि जलाइआ ॥ आपि तरिआ कुल उधरे धंनु जणेदी माइआ ॥ सदा सहजु सुखु मनि वसिआ सचे सिउ लिव लाइआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ त्रै गुण भुले हउमै मोहु वधाइआ ॥ पंडित पड़ि पड़ि मोनी भुले दूजै भाइ चितु लाइआ ॥ जोगी जंगम संनिआसी भुले विणु गुर ततु न पाइआ ॥ मनमुख दुखीए सदा भ्रमि भुले तिन्ही बिरथा जनमु गवाइआ ॥ नानक नामि रते सेई जन समधे जि आपे बखसि मिलाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: इसु जुग महि = इस मानव जीवन में। भगती = भक्तों ने। सभु = सारा। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाइआ = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। परसादी = प्रसादि, कृपा से। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बिखिआ = माया। उदास = उपराम, निर्लिप। सबदि = शब्द से। उधरे = बच गए। जणेदी माइआ = पैदा होने वाली माँ। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। सचे सिउ = सदा स्थिर प्रभु से। लिव = लगन, ध्यान। महादेउ = शिव जी। भुले = ग़लती खा गए। पढ़ि = पढ़ के। मोनी = समाधियां लगाने वाले। दूजै भाइ = माया के मोह में। जंगम = शैव मति के रमते साधु। ततु = असल चीज। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। समधे = समाधि वाले हुए, पूर्ण अवस्था वाले बने। जि = जिन्हें। बखसि = बख्शिश करके, मेहर करके।1।

अर्थ: हे भाई! इस मनुष्य जन्म में (सिर्फ) भक्तों ने ही परमात्मा का नाम-धन कमाया है, बाकी सारा जगत (माया की) भटकना में (पड़ कर, सही राह से) टूटा रहता है। (जिस मनुष्य के) मन में गुरु की मेहर से परमात्मा का नाम आ बसता है, वह हर वक्त नाम स्मरण करता है। वह माया में (विचरता हुआ भी माया के मोह से) निर्लिप रहता है, गुरु के शब्द की इनायत से (वह अपने अंदर से) अहंकार को जला देता है। धन्य है वह पैदा करने वाली माँ! वह स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है (उसके सदका उसकी) कुलें भी (संसार-समुंदर में डूबने से) बच जाती हैं।

(हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना) ब्रहमा, विष्णु, शिव जी (जैसे बड़े-बड़े देवते भी) माया के तीन गुणों के कारण सही जीवन-राह से विछुड़ते रहे (उनके अंदर) अहंकार बढ़ता रहा (माया का) मोह बढ़ता रहा। (हे भाई! गुरु की शरण के बिना) पंडित (वेद आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़-पढ़ के (भी) भटकते रहे, मुनी लोग (मौन धार के) विछुड़ते रहे, (उन्होंने भी) माया के मोह में ही अपना चिक्त जोड़े रखा। हे भाई! गुरु के बिना जोगी, जंगम और सन्यासी सभी कुमार्ग पर पड़े रहे, उन्होंने भी असली वस्तु ना पाई।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले सदा दुखी ही रहे, भटकना में पड़ कर सही जीवन-राह से विछुड़े ही रहे, उन्होंने अपना जन्म व्यर्थ ही गवाया।

पर, हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जिस मनुष्यों को (परमात्मा) खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) मिलाता है, वह (उसके) नाम में रंगे रहते हैं और वही कामयाब जीवन वाले होते हैं।1।

मः ३ ॥ नानक सो सालाहीऐ जिसु वसि सभु किछु होइ ॥ तिसहि सरेवहु प्राणीहो तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ गुरमुखि अंतरि मनि वसै सदा सदा सुखु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सालाहीऐ = महिमा करनी चाहिए। जिसु वसि = जिस (परमात्मा) के वश में। सभु किछु = हरेक चीज। सरेवहु = स्मरण करो। प्राणीहो = हे प्राणियो! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंतरि = अंदर, हृदय में। मनि = मन में।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में हरेक चीज है उसकी महिमा करनी चाहिए। हे प्राणियो! उस प्रभु को (सदा) स्मरण करते रहो, उसके बिना कोई और (उस जैसा) नहीं है। पर, हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से ही (वह परमात्मा मनुष्य के) हृदय में मन में बसता है (जिसके अंदर आ बसता है, उसके अंदर) सदा ही आत्मिक आनंद बना रहता है।2।

पउड़ी ॥ जिनी गुरमुखि हरि नाम धनु न खटिओ से देवालीए जुग माहि ॥ ओइ मंगदे फिरहि सभ जगत महि कोई मुहि थुक न तिन कउ पाहि ॥ पराई बखीली करहि आपणी परतीति खोवनि सगवा भी आपु लखाहि ॥ जिसु धन कारणि चुगली करहि सो धनु चुगली हथि न आवै ओइ भावै तिथै जाहि ॥ गुरमुखि सेवक भाइ हरि धनु मिलै तिथहु करमहीण लै न सकहि होर थै देस दिसंतरि हरि धनु नाहि ॥८॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। देवालीए = मानव जीवन की बाज़ी हारे हुए। जुग माहि = जगत में। ओइ = वे। मुहि = मुँह पर। न पाहि = नहीं डालते। बखीली = निंदा चुगली। परतीति = एतबार। खोवनि = गवा लेते हैं। सगवा = बल्कि ठीक तरह। आपु = अपना (बुरा) असला। लखाहि = दिखाते हैं। कारणि = वास्ते। हथि = हाथ में। जाहि = जाएं। सेवक भाइ = सेवक भावना से। करमहीण = अभागे लोग। होरथै = किसी और जगह। दिसंतरि = और देश में।8।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम-धन नहीं कमाया, वे जगत में मानव-जीवन की बाज़ी हार चुके समझो (जैसे जुआरी जूए में हार के कंगाल हो जाता है)। ऐसे मनुष्य (उन मंगतों के समान हैं जो) सारे संसार में मांगते फिरते हैं, पर उनके मुँह पर कोई थूकता भी नहीं। हे भाई! ऐसे लोग दुनिया की निंदा करते हैं (और इस तरह) अपना एतबार गवा लेते हैं, बल्कि अच्छी तरह अपना (बुरी) अस्लियत को दिखा देते हैं। ऐसे मनुष्य जहाँ जी चाहे जाएं, जिस धन की खातिर (लालच में आ के) चुगली करते हैं, चुगली से वह धन उन्हें नहीं मिलता। हे भाई! सेवक-भावना से गुरु की शरण पड़ने पर ही परमात्मा का नाम-धन मिलता है; पर वह (निंदक) अभागे वहाँ से (गुरु के दर से) ये धन नहीं ले जा सकते (और, गुरु के दर के बिना) किसी और जगह किसी और देश में ये नाम-धन है ही नहीं।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh