श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ कोई निंदकु होवै सतिगुरू का फिरि सरणि गुर आवै ॥ पिछले गुनह सतिगुरु बखसि लए सतसंगति नालि रलावै ॥ जिउ मीहि वुठै गलीआ नालिआ टोभिआ का जलु जाइ पवै विचि सुरसरी सुरसरी मिलत पवित्रु पावनु होइ जावै ॥ एह वडिआई सतिगुर निरवैर विचि जितु मिलिऐ तिसना भुख उतरै हरि सांति तड़ आवै ॥ नानक इहु अचरजु देखहु मेरे हरि सचे साह का जि सतिगुरू नो मंनै सु सभनां भावै ॥१३॥१॥ सुधु ॥

पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, अवगुण। मीहि वुठै = (पूर्व पूरन कारदंतक locative absolute) बरसात हुई। सुरसरी = गंगा। पावनु = पवित्र। जितु मिलिऐ = जिसके मिलने से, अगर वह मिल जाए। हरि सांति = परमात्मा (के मिलाप) की ठंड। सचे साह का = सदा कायम रहने वाले शाह का। मंनै = श्रद्धा लाए। भावै = अच्छा लगता है।13।

अर्थ: (अगर) कोई मनुष्य (पहले) गुरु की निंदा करने वाला हो (पर) फिर गुरु की शरण में आ जाए, तो सतिगुरु (उसके) पिछले अवगुण बख्श लेता है और (उसको) साधु-संगत में मिला लेता है।

हे भाई! जैसे बरसात होने से गली-नाली-टोभों का पानी (जब) गंगा में जा पड़ता है (और) गंगा में मिलते ही (वह पानी) पूरी तौर से पवित्र हो जाता है, (वैसे ही) निरवैर सतिगुरु में (भी) ये गुण हैं कि उस (गुरु) को मिलने से (मनुष्य को माया की) प्यास (माया की) भूख दूर हो जाती है (और, उसके अंदर) परमात्मा (के मिलाप) की ठंड तुरंत पड़ जाती है।

हे नानक! (कह: हे भाई!) सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ये आश्चर्यजनक तमाशा देखो कि जो मनुष्य गुरु पर श्रद्धा रखता है वह मनुष्य सभी को प्यारा लगने लग जाता है।13।1। सुधु।

बिलावलु बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ की
ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥ सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पेखना = देखने में आ रहा है। रहनु पई है = रहना पड़ेगा, रह सकेगा। रे = हे भाई! सूधे = सीधे। रेगि = राह पर। नतर = नहीं तो। कुधका = कु धक्का, बहुत ज्यादती। दिवई है = मिलेगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे जिंदे! ये जगत ऐसा देखने में आ रहा है, कि यहां पर कोई भी जीव हमेशा नहीं रहेगा। सो, तू सीधे राह चलना, नहीं तो (तेरे साथ) बहुत ज्यादती होने का डर है (भाव, इस भुलेखे में कि यहां सदा बैठे रहना है, कुराह पर पड़ने का बहुत बड़ा खतरा होता है)।1। रहाउ।

बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥ मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥

पद्अर्थ: बारे = बालक। तरुने = जवान। भईआ = हे भाई! सभ हू = सभी को ही। लै जई है = ले जाएगा। बपुरा = बेचारा। मूसा = चूहा। मीचु = मौत। बिलईआ = बिल्ला।1।

अर्थ: हे जिंदे! बालक हो, बुढा हो, चाहे जवान हो, मौत सबको ही यहां से ले जाती है। मनुष्य बेचारा तो, मानो, चूहा बनाया गया है जिसको मौत रूप बिल्ला खा जाता है।1।

धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥ राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥

पद्अर्थ: मनई = मनुष्य (पूर्व देश की बोली)। कानी = अधीनता, लिहाज। सम = बराबर। बडानी = बड़ा, बली।2।

अर्थ: हे जिंदे! मनुष्य धनवान हो चाहे कंगाल, मौत को किसी का लिहाज नहीं है। मौत राजे और प्रजा में भेद नहीं करती (एक समान मार लेती है), ये मौत है ही इतनी बलवान।2।

हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥ आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥

पद्अर्थ: भाए = प्यारे लगते हैं। कथा = बात। निरारी = अलग, निराली। संगारी = संगी, साथी।3।

अर्थ: पर जो लोग प्रभु की भक्ति करते हैं और प्रभु को प्यारे लगते हैं, उनकी बात (सारे जहान से) निराली है। वे ना पैदा होते है ना मरते हैं, क्योंकि, हे जिंदे! वे परमात्मा का सदा अपना संगी-साथी जानते हैं।3।

पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥ कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥

पद्अर्थ: कलत्र = वधू। इहै = यह ही, इनका मोह ही। तजहु = छोड़ दो। जीअ रे = हे जिंदे! जीअ जानी रे = हे जानी जीअ! हे प्यारी जिंदे! सारिगपान = (सारिग = विष्णु का धनुष। पानी = पाणि, हाथ) जिसके हाथ में सारिग धनुष है जो सब का नाश करने वाला है, परमात्मा।4।

अर्थ: सो, हे प्यारी जिंद! पुत्र, पत्नी, धन पदार्थ- इनका मोह छोड़ दे। कबीर कहता है: हे संतजनो! मोह त्यागने से परमात्मा मिल जाता है (और मौत का डर समाप्त हो जाता है)।4।1।

शब्द का भाव: मौत हरेक जीव को यहाँ से ले जाती है। सदा किसी ने भी यहां बैठे नहीं रहना। जीवन के ठीक राह पर चलो, प्रभु का स्मरण करो, मौत का डर समाप्त हो जाएगा।

बिलावलु ॥ बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥ हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥

पद्अर्थ: न परउ = न पढ़ूँ, मैं नहीं पढ़ता। बादु = बहस, झगड़ा। जानउ = जानूं, मैं जानता। बउरानो = पागल सा।1।

अर्थ: (बहसों की खातिर) मैं (तुम्हारी तर्क भरी) विद्या नहीं पढ़ता, ना ही मैं (धार्मिक) बहसें करनी जानता हूँ (भाव, आत्मिक जीवन के लिए मैं किसी विद्वता भरी धार्मिक-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं समझता)। मैं तो प्रभु की महिमा करने-सुनने में मस्त रहता हूँ।1।

मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥ मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सैआनी = समझदार। बिगरिओ = बिगड़ गया हूँ। मति = शायद कहीं (एसा ना हो)। अउरा = कोई और।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे सज्जन! (लोगों के लिए तो) मैं पागल हूँ। लोग समझदार हैं मैं बवरा हूँ। (लोगों के विचार से) मैं गलत रास्ते पड़ गया हूँ (क्योंकि मैं अपने गुरु के राह पर चल कर प्रभु का भजन करता हूँ), (पर लोग अपना ध्यान रखें, इस) गलत राह पर कोई और ना चले।1। रहाउ।

आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥ सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥

पद्अर्थ: जारि गइओ = जला गया है। भ्रमु = भ्रम, भुलेखा।2।

अर्थ: मैं अपने आप (इस प्रकार) बावरा नहीं बना, यह तो मुझे मेरे प्रभु ने (अपनी भक्ति में जोड़ के) पागल कर दिया है, और मेरे गुरु ने मेरा भ्रम-वहम सब जला डाले हैं।2।

मै बिगरे अपनी मति खोई ॥ मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥

पद्अर्थ: मति = बुद्धि। खोई = गवा ली है। मति भूलउ = कोई भूले ना।3।

नोट: शब्द ‘भूलउ’ व्याकरण के अनुसार ‘हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एक वचन’ है।

अर्थ: (यदि) कुमार्ग पर पड़े हुए ने अपनी बुद्धि गवा ली है (तो भला लोगों को क्यों मेरा इतना फिक्र है?) तो कोई और मेरे वाले इस भुलेखे में बेशक ना पड़े।3।

सो बउरा जो आपु न पछानै ॥ आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने असल को। एकै = एक प्रभु को ही।4।

अर्थ: (पर लोगों को ये भुलेखा है कि प्रभु की भक्ति करने वाला आदमी पागल होता है। जबकि दरअसल) पागल वह सख्श है जो अपनी अस्लियत को नहीं पहचानता। जो अपने आप को पहचानता है वह हर जगह एक परमात्मा को बसता जानता है।4।

अबहि न माता सु कबहु न माता ॥ कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥

पद्अर्थ: अबहि = अब ही, इस जनम में ही माता = मस्त। रामै रंगि = राम के ही रंग में। राता = रंगा हुआ।5।

अर्थ: कबीर कहता है: परमात्मा के प्यार में रंग के जो मनुष्य इस जीवन में दीवाना नहीं बनता, उसने (फिर) कभी भी नहीं बनना (और वह जीवन व्यर्थ गवा के जाएगा)।5।2।

शब्द का भाव: आत्मिक जीवन के लिए किसी चोंच-चर्चा की आवश्यक्ता नहीं होतीं असल जरूरत ये है कि मनुष्य अपने असल को पहचान के सिर्फ परमात्मा की भक्ति में मस्त रहे।

बिलावलु ॥ ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥ अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥

पद्अर्थ: ग्रिह = घर, गृहस्थ। तजि = त्याग के। बनखंड = जंगलों में। कंदा = गाजर आदि धरती में उगने वाली चीजें। अजहु = अभी भी, फिर भी।1।

अर्थ: अगर गृहस्थ त्याग के जंगलों में चले जाएं, और गाजर-मूली खा के गुजारा करें, तो भी ये पापी मन विकार नहीं त्यागता।1।

किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥ राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किउ छूटउ = मैं कैसे (इन विकारों से) बच सकता हूं? भव = संसार। जल निधि = समंद्र। बीठुला = हे बीठल! हे प्रभु! (संस्कृत: विष्ठल = one that is far away वह जो माया के प्रभाव से परे है। वि = परे है। सथल = टिका हुआ। वि = सथल, विशठल, बीठल = जो माया से दूर परे है)।1। रहाउ।

नोट: ये शब्द सिर्फ नामदेव जी ने ही नहीं बरता, कबीर जी भी प्रयोग करते हैं और सतिगुरु जी ने भी कई जगह इस्तेमाल किया है। इस आधार पर नामदेव जी को बीठुल की किसी मूर्ति का पुजारी समझना भूल है।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे (इन विकारों से) बचा। मैं कैसे इनसे खलासी कराऊँ? यह संसार बहुत बड़ा समुंदर है, मैं कैसे इससे पार लांघू?।1। रहाउ।

बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥ अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥

पद्अर्थ: बिखै बिखै की = कई किस्म के विषौ विकारों की। बासना = वासना, कसक, चस्का। लपटाई = चिपकता है।2।

अर्थ: हे मेरे बीठल! मुझसे इन अनेक किस्मों के विषौ विकारों के चस्के छोड़े नहीं जा सकते। कई प्रयत्न करके इस मन को रोकने की कोशिश करते हैं, पर ये बार-बार विषियों की वासनाओं को ही जा चिपकता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh