श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 856

जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥ इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥

पद्अर्थ: जरा = बुढ़ापा। जीवन जोबनु = जिंदगी का जोबन, जवानी की उम्र। नीका = भला काम। जीअरा = ये सुंदर सी जिंद। मीका = बराबर।3।

अर्थ: बुढ़ापा आ गया है, जवानी की उम्र गुजर गई है, पर मैंने अब तक कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरे ये प्राण अमूल्य थे, पर मैंने इनको कौड़ियों के बराबर का कर डाला है।3।

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥ तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥

पद्अर्थ: माधवा = हे प्रभु! समसरि = बराबर। मोहि समसरि = मेरे जैसा।4।

अर्थ: हे कबीर! (अपने प्रभु के आगे इस प्रकार) बिनती कर- हे प्यारे प्रभु! तू सब जीवों में व्यापक है (और सबके दिल की जानता है, मेरे अंदर का हाल भी तू ही जानता है) तेरे जितना और कोई दयालु नहीं, और मेरे जितना कोई पापी नहीं (सो, मुझे तू खुद ही इन विकारों से बचा)।4।3।

बिलावलु ॥ नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥ ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥

पद्अर्थ: कोरी = जुलाह।

(नोट: कोरा बर्तन सिर्फ उस बर्तन को कहते हैं, जिसमें अभी पानी ना डाला गया हो। हर रोज कोरा घड़ा लाने की कबीर जी को क्या आवश्यक्ता पड़ सकती थी? और ना ही उनकी आर्थिक अवस्था ऐसी थी कि वे हर रोज कोरा घड़ा खरीद सकते। कर्मकांड का इतना तीव्र विरोध करने वाले कबीर जी कभी खुद ऐसा नहीं कर सकते कि बंदगी करने के लिए नित्य नई गागर खरीदतें फिरें। इस तरह, ‘कोरी’ शब्द ‘गागरि’ का विशेषण नहीं हैं)।

आनै = लाता है। लीपत = लीपते हुए। जीउ गइआ = प्राण भी खप जाते हैं। रसि = रस में, आनंद में।1।

अर्थ: ये जुलाहा (पुत्र) रोज सवेरे उठ के (पानी की) गागरि ले आता है और पोचा फेरता थक जाता है, इसको अपने बुनाई-कताई के काम की तवज्जो ही नहीं रही, सदा हरि के रस में लीन-मगन रहता है।1।

हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउने = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)। निपूते = इस कपूत ने।1।रहाउ।

अर्थ: हमारी कुल में कभी किसी ने परमात्मा का भजन नहीं किया था। जब से मेरा (ये) कुपूत (पुत्र) भक्ति में लगा है, तब से हमें कोई सुख नहीं रहा।1। रहाउ।

नोट: ‘माला’ कबीर जी की माला कबीर जी के अपने जबान से ये है: “कबीर मेरी सिमरनी रसना उपरि रामु।” कबीर जी की माँ को कबीर जी की भजन-बंदगी वाला जीवन पसंद नहीं था, और जो बात अच्छी ना लगे उसका गिला करते वक्त आम तौर पर बहुत बढ़ा-चढ़ा के बात कही जाती है। सो, शब्द ‘माला’ तो कबीर जी की माँ कबीर की बँदगी के प्रति नफ़रत जाहिर करने के लिए कहती है; पर साथ ही ये बात बहुत बढ़ा के भी कही जा रही है कि कबीर जी नित्य सवेरे पोचा फेरते थे।

हरेक मनुष्य, अगर चाहे तो, अपने जीवन में से कई ऐसी घटनाएं देख सकता है कि हम उस बात को कैसे बढ़ा के बयान करते हैं, जो हमें पसंद नहीं होता। मैंने कई ऐसे लोग देखे हैं जो वृद्ध होने के कारण खुद रक्ती भर भी कमाई नहीं कर सकते थे, उनका निर्वाह उनके पुत्रों के आसरे ही था। पर जब कभी वह पुत्र किसी सत्संग व किसी दीवान में जाने लगता था तो वह वृद्ध पिता सौ-सौ गालियां निकालता और कहता कि इस नकारे ने सारा घर उजाड़ दिया है। सो, जगत की यही चाल है। सत्संग किसी विरले को ही भाता है। जिनकी तवज्जो लगी हुई है उनकी विरोधता होती ही है, और होती ही रहेगी। उनके विरुद्ध बढ़ा-चढ़ा के बातें हमेशा की जाती हैं। कबीर जी ना सदा पोचा फेरना अपना धर्म माने बैठे थे, और ना ही माला गले में डाले फिरते थे। हाँ, यहाँ एक बात और याद रखी जानी चाहिए। उन दिनों शहरों में ना ही म्यिूसिपलिटी के नलके लगे थे ना ही घरों में अपने-अपने नलके हुआ करते थे। हरेक घर वालों को गलियों-बाजारों के सांझे कूओं से पानी खुद ही लाना पड़ता था। अमीर लोग तो नौकरों से पानी मंगवा लिया करते थे, पर गरीबों को तो ये काम खुद ही करना पड़ता था। आलस के कारण तो दुनियादार तो दिन चढ़े तक चारपाई पर पड़े रहते हैं, पर बँदगी वाला आदमी नित्य सवेरे उठने का आदी होता है, उसके लिए स्नान करना भी स्वभाविक ही बात है। अब भी गाँवों में जा के देखें। लोग कूँओं पर नहाने जाते हैं, वापसी पर घर के लिए घड़ा या गागर भर के ले आते हैं। पर, कबीर जी, उद्यमी कबीर जी, ये सारा काम घर वालों के जागने से पहले ही कर लिया करते थे। माँ को उनका भजन पसंद ना होने के कारण ये भी बुरा लगता था कि वे सवेरे-सवेरे पानी ले आते हैं। और, इसको वह बढ़ा के कहती है कि कबीर नित्य पोचा फेरता रहता है।

सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥ सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥

पद्अर्थ: सात सूत = सूत्र आदि, सूत्र आदि से काम करना।2।

अर्थ: हे मेरी देवरानियों! जेठानियो! सुनो, (हमारे घर) ये कैसी आश्चर्यजनक होनी हो गई है? कि इस मूर्ख बेटे ने सूत्र आदि का काम ही त्याग दिया है। इससे बेहतर होता ये मर ही जाता।2।

सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥ संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥

पद्अर्थ: गुरि = सतिगुरु ने। पैज = सत्कार, इज्जत। जिनि = जिस (प्रभु) ने। नख = नाखूनों से। बिदरिओ = चीर दिया, चीर के मार दिया।3।

अर्थ: (पर) जिस परमात्मा ने हिर्णाकश्यप को नाखूनों से मार के अपने भक्त प्रहलाद की इज्जत रखी थी, जो प्रभु सारे सुख देने वाला है उसका नाम (मुझ कबीर को मेरे) गुरु ने बख्शा है।3।

घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥ कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥

पद्अर्थ: पितर की छोडी = पिता पुरखी छोड़ दी है। को = का। संतह = संतों की संगत में ले के।4।

अर्थ: कबीर कहता है: मैंने पिता-पुरखी त्याग दी है, मैंने अपने घर में पूजे जाने वाले देवते (भाव, ब्राहमण आदि) छोड़ बैठा हूँ। अब मैंनें सतिगुरु का शब्द ही धारण किया है। जो प्रभु सारे पापों का नाश करने वाला है, सत्संग में उसका नाम स्मरण करके मैं (संसार-सागर से) पार लांघ आया हूँ।4।4।

नोट: इस शब्द में कबीर जी खुद ही अपने वचनों द्वारा अपनी माँ का रवईया और गिले बयान करके फिर खुद ही अपना नित्य का काम बताते हैं। ये शब्द कबीर जी की माँ के उचारे हुए नहीं हैं। बल्कि कबीर जी ने उसका वर्णन किया है। वैसे भी सिर्फ भक्त जी की वाणी को ही गुरु नानक साहिब जी की वाणी के साथ जगह मिल सकती थी, किसी और को नहीं।

बिलावलु ॥ कोऊ हरि समानि नही राजा ॥ ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी जीव। समानि = बराबर, जैसा। ए भूपति = इस दुनिया के राजे। दिवस = दिन। झूठे = जो सदा कायम नहीं रह सकते। दिवाजा = दिखलाए।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) जगत में कोई जीव परमात्मा के बराबर का राजा नहीं है। ये दुनिया के सब राजे चार दिन के राजे होते हैं, (ये लोग अपने राज-भाग के) झूठे दिखावे करते हैं।1। रहाउ।

तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥ हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥

पद्अर्थ: जनु = दास, भक्त। कत = क्यों? कत डोलै = (इस दुनिया के राजाओं के आगे) नहीं डोलता। पर = में। तीनि भवन पर = तीन भवनों में, सारे जगत में। छाजा = प्रभाव छाया रहता है, महिमा बनी रहती है। को = कौन? जन कउ = भक्त को। पसारि सकै = बिखेर सकता है, उठा सकता है। अंदाजा = (प्रताप का) अनुमान।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) जो मनुष्य तेरा दास हो के रहता है वह (इन दुनिया के राजाओं के सामने) घबराता नहीं, (क्योंकि, हे प्रभु! तेरे सेवक का प्रताप) सारे जगत में छाया रहता है। हाथ उठाना तो कहाँ रहा, तेरे सेवक के सामने वे ऊँची आवाज में बोल भी नहीं सकते।1।

चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥ कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥

पद्अर्थ: अचेत मन = हे गाफल मन! बाजे = बज जाएं। अनहद बाजा = एक रस (आनंद के) बाजे। कहि = कहे, कहता है। भ्रमु = भटकना। संसा = सहम। चूको = खत्म हो जाता है। निवाजा = निवाजता है, सम्मान देता है, पालता है।2।

अर्थ: हे मेरे गाफ़ल मन! तू भी प्रभु को स्मरण कर, (ताकि तेरे अंदर महिमा के) एक-रस बाजे बजने लगें (और तुझे, दुनियावी राजाओं के सामने कोई घबराहट ना हो)। कबीर कहता है: (जो मनुष्य प्रभु को स्मरण करता है, उसका) सहम, उसकी भटकना सब दूर हो जाते हैं, प्रभु (अपने सेवक को) ध्रुव और प्रहलाद की तरह पालता है।2।5।

बिलावलु ॥ राखि लेहु हम ते बिगरी ॥ सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हम ते = हम जीवों से, मुझ से। बिगरी = बिगड़ी है, बुरा काम हुआ है। सीलु = अच्छा स्वभाव। धरमु = जिंदगी का फर्ज। जपु = बंदगी। हउ = मैं। टेड = टेढ़ी। पगरी = पकड़ी।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मेरी इज्जत रख ले। मुझसे बहुत बुरा काम हुआ है कि ना मैंने अच्छा स्वभाव बनाया, ना ही मैंने जीवन का फर्ज कमाया, और ना ही तेरी बँदगी, तेरी भक्ति की। मैं सदा अहंकार करता रहा, और गलत रास्ते पर पड़ा रहा हूँ (टेढ़ा-पन पकड़ा हुआ है)।1। रहाउ।

अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥ जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥

पद्अर्थ: अमर = (अ+मर) ना मरने वाली, ना नाश होने वाली। जानि = समझ के। संची = संचय करनी, संभाल के रखी, पालता रहा। काइआ = शरीर। मिथिआ = झूठी, नाशवान। गगरी = घड़ा। जिनहि = जिस (प्रभु) ने। निवाजि = आदर दे के, मेहर करके। साजि = पैदा करके। हम = हमें, मुझे। अवर = और ही तरफ से।1।

अर्थ: इस शरीर को कभी ना मरने वाला समझ के मैं सदा इसको ही पालता रहता, (ये सोच ही नहीं आई कि) यह शरीर तो कच्चे घड़े की तरह नाशवान है। जिस प्रभु ने मेहर करके मेरा ये सुंदर शरीर बना के मुझे पैदा किया, उसको बिसार मैं और ही तरफ लगा रहा।1।

संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥ कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥

पद्अर्थ: संधिक = चोर। तोहि = तेरा। कहीअउ = मैं कहलवा सकता हूँ। तुमरी पगरी = तेरे चरणों की। मत घालहु = मत/ना भेजना। खबरी = खबर, सोय।2।

अर्थ: (सो) कबीर कहता है: (हे प्रभु!) मैं तेरा चोर हूँ, मैं भला (आदमी) नहीं कहलवा सकता। फिर भी (हे प्रभु!) मैं तेरे चरणों की शरण आ पड़ा हूँ; मेरी ये आरजू सुन, मुझें जमों की ख़बर ना भेजना (भाव, मुझे जनम-मरन के चक्कर में ना डालना)।2।6।

बिलावलु ॥ दरमादे ठाढे दरबारि ॥ तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दरमादे = (फारसी: दरमांदा) आजिज, भिखारी। ठाढे = खड़ा हूँ। दरबारि = (तेरे) दर पर। सुरति = संभाल, ख़बर गीरी। को = कौन? खोल्हि = खोल के। किवार = किवाड़, दरवाजा।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे दर पर भिखारी बन के खड़ा हूँ। भला तेरे बिना और कौन मेरी संभाल (प्रतिपालना) कर सकता है? दरवाजा खोल के मुझे (अपने) दर्शन दो।1। रहाउ।

तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥ मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥

पद्अर्थ: धन धनी = धन के मालिक। उदार = खुले दिल वाला। तिआगी = दानी। स्रवनन्ह = श्रवणों से, कानों से। सुनीअत = सुना जाता है। सुजसु = सु+यश, सुंदर शोभा। मागउ = माँगूं। काहि = किससे? रंक = कंगाल। निसतारु = पार उतारा।1।

अर्थ: तू ही (जगत के सारे) धन-पदार्थ का मालिक है, और बड़ा खुले दिल वाला दानी है। (जगत में) तेरी ही (दानी होने की) मीठी (सुंदर) शोभा कानों में पड़ रही है। मैं और किससे माँगूं? मुझे तो (तेरे समक्ष) सब कंगाल दिख रहे हैं। मेरा बेड़ा तेरे से ही पार हो सकता है।1।

जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥ कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥

नोट: उक्त शब्द में जिस अक्षर के नीचे ‘्’ लगा है उसे आधा ‘ह’ पढ़ना है जैसे; खोलि् को ‘खोल्हि; तुमार को ‘तुम्हार’; और स्रवनन् को ‘स्रवनन्ह’।

पद्अर्थ: जैदेउ = भक्त जैदेव जी बारहवीं सदी में संस्कृत के एक प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं, इनकी भक्ति-रस में लिखी हुई पुस्तक ‘गीत गोविंद’ बहुत ही सम्मान पा रही है। दक्षिणी बंगाल के गाँव कंनदूली में आप पैदा हुआ थे। उचच जीवन वाले प्रभु-भक्त हुए हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में आपके दो शब्द दर्ज हैं, जो गुरु नानक देव जी ने अपनी पहली उदासी के दौरान बंगाल की ओर जाते संकलित किए थे।

नामा = भक्त नामदेव जी बंबई (मुम्बई) के जिला सतारा के एक गाँव में पैदा हुए और सारा जीवन आपने पांधरपुर में गुजारा। कबीर जी यहाँ उनकी अनन्य भक्ति व प्रभु की उन पर अपार कृपा का वर्णन कर रहे हैं। सो, एसा विचार करना भारी भूल है कि नामदेव जी मूर्ति-पूजक थे अथवा मूर्तिपूजा से उन्हें ईश्वर मिला था। बिप = विप्र, ब्राहमण। बार = समय।2।

अर्थ: कबीर कहता है: तू सब दातें देने के योग्य दातार है। जीवों को चारों पदार्थ देते हुए तुझे रक्ती भर भी ढील नहीं लगती। जैदेव, नामदेव, सुदामा ब्राहमण-इन पर तेरी बेअंत कृपा हुई थी।2।7।

बिलावलु ॥ डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥ भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥

पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी, खफ़नी। आधारी = वह झोली जिसमें जोगी भिक्षा मांग के डाल लेते हैं। भाइ = भावना में, अनुसार। भ्रम कै भाइ = भ्रम के आसरे, भ्रम के अधीन हो के, भटकना में पड़ के। भवै = तू भटक रहा है। भेख धारी = भेस धारण करने वाला, धार्मियों वाला पहरावा पहन के।1।

अर्थ: हे जोगी! तू भटकना में पड़ कर, डंडा, मुंद्रा, गोदड़ी और झोली आदि का धार्मिक पहरावा पहन के, गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh