श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 862 मेरे हरि प्रीतम की कोई बात सुनावै सो भाई सो मेरा बीर ॥२॥ पद्अर्थ: बात = बातचीत। बीर = वीर, बड़ा भाई।2। अर्थ: हे सहेलिए! अब अगर कोई व्यक्ति मुझे मेरे प्रीतम प्रभु की कोई बात सुनाए (तो मुझे ऐसा लगता है कि) वह मनुष्य मेरा भाई है मेरा वीर है।2। मिलु मिलु सखी गुण कहु मेरे प्रभ के ले सतिगुर की मति धीर ॥३॥ पद्अर्थ: मिलु = (हुकमी भविष्यत)। सखी = हे सहेलीए! कहु = बता, सुन। ले = ले के। धीर = (adjective) कोमलता पैदा करने वाली, शांति देने वाली।3। अर्थ: हे सहेलिए! गुरु की शांति देने वाली बुद्धि ले के मुझे भी मिला कर, और, मुझे प्यारे प्रभु की महिमा सुनाया कर।3। जन नानक की हरि आस पुजावहु हरि दरसनि सांति सरीर ॥४॥६॥ छका १॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! पुजावहु = पूरी करो। दरसनि = दर्शन से। सांति सरीर = शरीर को शांति, हृदय को ठंड।4। अर्थ: हे प्रभु! (अपने) दास नानक की (दर्शनों की) आस पूरी कर। हे हरि! तेरे दर्शनों से मेरे हृदय में ठंड पड़ती है।4।6। छक्का 1। छका-छक्का, छह शबदों का संग्रह। रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभु करता सभु भुगता ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभु = हरेक चीज। करता = पैदा करने वाला। भुगता = भोगने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही हरेक चीज पैदा करने वाला है, (और सबमें व्यापक हो के वही) हरेक चीज भोगने वाला है।1। रहाउ। सुनतो करता पेखत करता ॥ अद्रिसटो करता द्रिसटो करता ॥ ओपति करता परलउ करता ॥ बिआपत करता अलिपतो करता ॥१॥ पद्अर्थ: पेखत = देखने वाला। अद्रिसटो = ना दिखता जगत। द्रिसटो = दिखई देता संसार। ओपति = उत्पक्ति, पैदायश। परलउ = (प्रलय) नाश। बिआपत = व्यापक। अलिपतो = निर्लिप।1। अर्थ: (हे भाई! हरेक में व्यापक हो के) परमात्मा ही सुनने वाला है परमात्मा ही देखने वाला है। जो कुछ दिखाई दे रहा है ये भी परमात्मा (का रूप) है, जो ना-दिखने वाला जगत है वह भी परमात्मा (का ही रूप) है। (सारे जगत की) पैदायश (करने वाला भी) प्रभु ही है, (सबका) नाश (करने वाला भी) प्रभु ही है। सबमें व्याप्त भी प्रभु ही है, (और व्याप्त होते हुए भी) निर्लिप भी प्रभु ही है।1। बकतो करता बूझत करता ॥ आवतु करता जातु भी करता ॥ निरगुन करता सरगुन करता ॥ गुर प्रसादि नानक समद्रिसटा ॥२॥१॥ नोट: शीर्षक ‘चउपदे’ है। पर ये पहला शब्द ‘दोपदा’ है। पद्अर्थ: बकतो = बोलने वाला। आवतु = आने वाला, पैदा होता है। जातु = जाता (ये शरीर छोड़ के)। निरगुन = माया के तीनों गुणों से रहित। सरगुन = तीन गुण समेत। प्रसादि = कृपा से। समद्रिसटा = सबमें एक प्रभु को देखने की सूझ।2। अर्थ: (हरेक में) प्रभु ही बोलने वाला है, प्रभु ही समझने वाला है। जगत में आता भी वही है, यहाँ से जाता भी वह प्रभु ही है। प्रभु, माया के तीन गुणों से परे भी है, तीन गुणों के समेत भी है। हे नानक! परमात्मा को सबमें ही देखने की ये सूझ गुरु की कृपा से प्राप्त होती है।2।1। गोंड महला ५ ॥ फाकिओ मीन कपिक की निआई तू उरझि रहिओ कुस्मभाइले ॥ पग धारहि सासु लेखै लै तउ उधरहि हरि गुण गाइले ॥१॥ पद्अर्थ: फाकिओ = फसा हुआ। मीन की निआई = मछली की तरह। कपिक की निआई = बंदर की तरह। की निआई = की तरह। उरझि रहिओ = उलझा हुआ है। कुसंभाइले = कसुंभ (की तरह जल्दी साथ छोड़ देने वाली माया) में। पग धारहि = जो भी तू पैर रखता है। सासु लै = हरेक सांस जो तू ले रहा है। लेखै = (धर्म राज के) लेखे में। तउ = तब। उधरहि = तेरा उद्धार होगा, तू बचेगा।1। अर्थ: हे मन! तू कुसंभ (की तरह नाशवान माया के मोह) में उलझा रहता है, जैसे (जीभ के स्वाद के कारण) मछली और (एक मुठ चनों की खातिर) बंदर। (मोह में फंस के जितने भी) कदम तू रखता है, जो भी तू सांस लेता है, (वह सब कुछ धर्मराज के) लेखे में (लिखा जा रहा है)। हे मन! परमात्मा के गुण गाया कर, तब ही (इस मोह में से) बच सकेगा।1। मन समझु छोडि आवाइले ॥ अपने रहन कउ ठउरु न पावहि काए पर कै जाइले ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! समझु = होश कर। आवाइले = अवैड़ापन। ठउरु = (पकका) ठिकाना। काए = क्यों? पर कै = पराए घर में, किसी और के धन की ओर।1। रहाउ। अर्थ: हे मन! होश कर, अवैड़ा-पन छोड़ दे। अपने रहने के लिए तुझे (यहाँ) पक्का ठिकाना नहीं मिल सकता। फिर, औरों के धन-पदार्थ की ओर क्यों जाता है?।1। रहाउ। जिउ मैगलु इंद्री रसि प्रेरिओ तू लागि परिओ कुट्मबाइले ॥ जिउ पंखी इकत्र होइ फिरि बिछुरै थिरु संगति हरि हरि धिआइले ॥२॥ अर्थ: हे मन! जैसे हाथी को काम-वासना ने प्रेर के रखा होता है (और वह पराई कैद में फंस जाता है, वैसे ही) तू परिवार के मोह में फसा हुआ है, (पर तू ये याद नहीं रखता कि) कैसे अनेक पक्षी (किसी वृक्ष पर) इकट्ठे होकर (रात काटते हैं, दिन चढ़ने पर) फिर हरेक पंछी विछुड़ जाता है (वैसे ही परिवार के हरेक जीव ने विछुड़ जाना है)। साधु-संगत में टिक के परमात्मा का ध्यान धरा कर, बस! यही है अटल आत्मिक ठिकाना।2। जैसे मीनु रसन सादि बिनसिओ ओहु मूठौ मूड़ लोभाइले ॥ तू होआ पंच वासि वैरी कै छूटहि परु सरनाइले ॥३॥ पद्अर्थ: मैगल = हाथी। रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ। ओहु मूढ़ = वह मूर्ख (मछली)। पंच वासि = (कामादिक) पाँचों के वश में। पंच वैरी कै वसि = पाँच वैरियों के वश में। परु = पड़।3। अर्थ: हे मन! जैसे मछली जीव के स्वाद के कारण नाश हो जाता है, वह मूर्ख लोभ के कारण लूटा जाता है, तू भी (कामादिक) पाँच वैरियों के वश में पड़ा हुआ है। हे मन! प्रभु की शरण पड़, तब ही (इन वैरियों के पँजे में से) निकल पाएगा।3। होहु क्रिपाल दीन दुख भंजन सभि तुम्हरे जीअ जंताइले ॥ पावउ दानु सदा दरसु पेखा मिलु नानक दास दसाइले ॥४॥२॥ पद्अर्थ: दीन दुख भंजन = हे दीनों के दुख का नाश करने वाले! सभि = सारे। पावउ = पाऊँ, मैं प्राप्त करूँ। दानु = ख़ैर। पेखा = मैं देखूँ। मिलु नानक = नानक को मिल।4। अर्थ: हे दीनों के दुख नाश करने वाले! (हम जीवों पर) दयावान हो। ये सारे जीव-जंतु तेरे ही (पैदा किए हुए) है। (मुझ) नानक को, जो तेरे दासों का दास है, मिल। मैं सदा तेरे दर्शन करता रहूँ (मेहर कर, बस) मैं यही ख़ैर हासिल करना चाहता हूँ।4।2। रागु गोंड महला ५ चउपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जीअ प्रान कीए जिनि साजि ॥ माटी महि जोति रखी निवाजि ॥ बरतन कउ सभु किछु भोजन भोगाइ ॥ सो प्रभु तजि मूड़े कत जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जीअ प्रान = जीवों के प्राण। जिनि = जिस (प्रभु) ने। साजि = साज के, पैदा करके। माटी महि = शरीर में। निवाजि = निवाज के, मेहर करके। कउ = को। सभु किछु = हरेक चीज। भोगाइ = खिलाता है। तजि = त्याग के। मूढ़े = हे मूर्ख! कत = कहाँ? जाइ = जाता है (तेरा मन)।1। अर्थ: हे मूर्ख! जिस प्रभु ने (तुझे) पैदा करके तुझे जिंद दी, तुझे प्राण दिए, जिस प्रभु ने मेहर करके शरीर में (अपनी) ज्योति रख दी है, बरतने के लिए हरेक चीज दी है, और अनेक किस्मों के भोजन तुझे खिलाता है, उस प्रभु को बिसार के (तेरा मन) और कहाँ भटकता है?।1। पारब्रहम की लागउ सेव ॥ गुर ते सुझै निरंजन देव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लागउ = मैं लगता हूँ, मैं लगना चाहता हूँ। सेव = सेवा भक्ति। गुर ते = गुरु से। निरंजन देव = वह प्रकाश रूप जो माया के प्रभाव से परे है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं तो परमात्मा की भक्ति में लगना चाहता हूँ। गुरु से ही उस प्रकाश-रूप माया-रहित प्रभु की भक्ति की समझ पड़ सकती है।1। रहाउ। जिनि कीए रंग अनिक परकार ॥ ओपति परलउ निमख मझार ॥ जा की गति मिति कही न जाइ ॥ सो प्रभु मन मेरे सदा धिआइ ॥२॥ पद्अर्थ: कीए = बनाए। प्रकार = किस्म। ओपति = उत्पक्ति। परलउ = नाश। निमख = आँख झमकने जितना समय। मझार = में। गति = आतिमक अवस्था। मिति = नाप। गति मिति = कैसा है और कितना बड़ा है (ये बात)। जा की = जिस (प्रभु) की। मन = हे मन!।2। अर्थ: हे मेरे मन! सदा उस प्रभु का ध्यान धरा कर, जिसने (जगत में) अनेक किस्मों के रंग (-रूप) पैदा किए हुए हैं, जो अपनी पैदा की हुई रचना को आँख झपकने जितने समय में नाश कर सकता है, और जिसकी बाबत ये नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा है और कितना बड़ा है।2। आइ न जावै निहचलु धनी ॥ बेअंत गुना ता के केतक गनी ॥ लाल नाम जा कै भरे भंडार ॥ सगल घटा देवै आधार ॥३॥ पद्अर्थ: आइ न = पैदा नहीं होता। न जावै = नहीं मरता। निहचलु = सदा अटल। धनी = मालिक प्रभु। केतक = कितना? गनी = मैं गिनूँ। जा कै = जिसके घर में। भंडार = खजाने। सगल = सारे। घटा = घटों में, शरीरों को। आधार = आसरा।3। अर्थ: हे मन! वह मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, वह ना पैदा होता है ना मरता है। मैं उसके कितने गुण गिनूँ? वह बेअंत गुणों का मालिक है। उसके घर में उसके गुण-रूपी रत्न-जवाहरात के खजाने भरे पड़े हैं। वह प्रभु सब जीवों को आसरा देता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |