श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 863 सति पुरखु जा को है नाउ ॥ मिटहि कोटि अघ निमख जसु गाउ ॥ बाल सखाई भगतन को मीत ॥ प्रान अधार नानक हित चीत ॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: सति पुरखु = सदा स्थिर सर्व व्यापक। जा को = जिसका। कोटि = करोड़ों। अघ = पाप। जसु = महिमा का गीत। गाउ = गाया कर। निमख = आँख झपकने जितना समय। निमख निमख = हर वक्त। बाल सखाई = बचपन का साथी। को = का। प्रान अधार = प्राण का सहारा। हित चीत = अपने चिक्त में उसका प्यार पैदा कर।4। अर्थ: हे मन! जिस प्रभु का नाम (ही बताता है कि वह) सदा कायम रहने वाला है और सर्व-व्यापक है, उसका यश हर वक्त गाया कर, (उसकी महिमा की इनायत से) करोड़ों पाप मिट जाते हैं। हे नानक! अपने चिक्त में उस प्रभु का प्यार पैदा कर, वह (हरेक जीव का) आरम्भ से ही साथी है, भक्तों का मित्र है और (हरेक की) जीवात्मा का आसरा है।4।1।3। गोंड महला ५ ॥ नाम संगि कीनो बिउहारु ॥ नामुो ही इसु मन का अधारु ॥ नामो ही चिति कीनी ओट ॥ नामु जपत मिटहि पाप कोटि ॥१॥ पद्अर्थ: नाम संगि = प्रभु के नाम से। कीनो = किया है। अधारु = आसरा। चिति = चित में। ओट = आसरा। मिटहि = मिट जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1। नोट: ‘नामुो’ में अक्षर ‘म’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ हैं। असल शब्द ‘नामु’ है, यहाँ ‘नामो’ पढ़ना है। अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से अब) मैं प्रभु के नाम से (आत्मिक जीवन का) व्यापार कर रहा हूँ। प्रभु का नाम ही (मेरे) इस मन का आसरा बन गया है। नाम को ही मेरे अपने चिक्त में (जीवन का) सहारा बना लिया है। (हे भाई! प्रभु का) नाम जपने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं।1। रासि दीई हरि एको नामु ॥ मन का इसटु गुर संगि धिआनु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति। दीई = दी है (गुरु ने)। इसटु = सबसे प्यारा, (ईष्ट), पूजनीय।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे परमात्मा के नाम की ही संपत्ति दी है (ता कि मैं ऊँचे आत्मिक जीवन का व्यापार कर सकूँ)। (अब प्रभु का नाम ही) मेरे मन का सबसे बड़ा प्यारा (पूज्य देवता बन गया) है। (पर, हे भाई!) गुरु की संगति में रह के ही हरि-नाम का ध्यान किया जा सकता है (हरि-नाम में तवज्जो जुड़ सकती है)।1। रहाउ। नामु हमारे जीअ की रासि ॥ नामो संगी जत कत जात ॥ नामो ही मनि लागा मीठा ॥ जलि थलि सभ महि नामो डीठा ॥२॥ पद्अर्थ: जीअ की = जीवात्मा की। संगी = साथी। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। जात = जाता है। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = धरती में, धरती पर। नामो = नाम ही, परमात्मा ही।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से प्रभु का) नाम मेरी जिंद की संपत्ति बन चुका है, नाम ही मेरा साथी मेरे साथ चलता फिरता है। प्रभु का नाम ही मेरे मन को मीठा लग रहा है। पानी में धरती पर सब जीवों में मुझे हरि-नाम ही (हरि ही) दिख रहा है।2। नामे दरगह मुख उजले ॥ नामे सगले कुल उधरे ॥ नामि हमारे कारज सीध ॥ नाम संगि इहु मनूआ गीध ॥३॥ पद्अर्थ: नामे = नाम ही, नाम से ही। मुख उजले = सुर्ख रू। सगले = सारे। उधरे = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। नामि = नाम से। सीध = सिद्ध, सफल। गीध = गिझ गया है।3। अर्थ: हे भाई! नाम की इनायत से परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त होता है, नाम से सारी कुलें ही (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाती हैं। प्रभु के नाम में जुड़ने से मेरे सारे काम-काज सफल हो रहे हैं। अब मेरा ये मन परमात्मा के नाम से गिझ गया है।3। नामे ही हम निरभउ भए ॥ नामे आवन जावन रहे ॥ गुरि पूरै मेले गुणतास ॥ कहु नानक सुखि सहजि निवासु ॥४॥२॥४॥ पद्अर्थ: आवन जावन = जनम मरण के चक्कर। रहे = खत्म हो जाते हैं। गुरि = गुरु ने। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4। अर्थ: हे भाई! प्रभु-नाम के सदका ही दुनिया का कोई डर नहीं सता सकता। हरि-नाम में जुड़ने से ही जनम-मरन के चक्कर समाप्त हो जाते हैं। (पर) पूरे गुरु ने (ही सदा) गुणों के खजाने प्रभु के साथ (जीवों को) मिलाया है (गुरु ही मिलाता है)। हे नानक! कह: (प्रभु के नाम की इनायत से) आनंद में आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है।4।2।4। गोंड महला ५ ॥ निमाने कउ जो देतो मानु ॥ सगल भूखे कउ करता दानु ॥ गरभ घोर महि राखनहारु ॥ तिसु ठाकुर कउ सदा नमसकारु ॥१॥ पद्अर्थ: मानु = आदर, सत्कार। कउ = को। करता दानु = दान करता है। घोर = भयानक।1। अर्थ: हे भाई! उस मालिक प्रभु को सदा सिर निवाया कर, जो निमाणे को मान देता है, जो सारे भूखों को रोजी देता है और जो भयानक गर्भ में रक्षा करने योग्य है।1। ऐसो प्रभु मन माहि धिआइ ॥ घटि अवघटि जत कतहि सहाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: घटि = (हरेक) शरीर में। अवघट = शरीर से बाहर। अवघटि = शरीर से बाहरी जगह में। घटि अवघटि = शरीर के अंदर और बाहर। जत कतहि = जहाँ कहाँ, हर जगह। सहाइ = सहायता करने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो प्रभु शरीर के अंदर और शरीर के बाहर हर जगह सहायता करने वाला है अपने मन में उस प्रभु का ध्यान धरा कर।1। रहाउ। रंकु राउ जा कै एक समानि ॥ कीट हसति सगल पूरान ॥ बीओ पूछि न मसलति धरै ॥ जो किछु करै सु आपहि करै ॥२॥ पद्अर्थ: रंकु = कंगाल मनुष्य। राउ = राजा। जा कै = जिसकी नजर में। एक समानि = एक जैसे। कीट = कीड़े। हसति = हाथी। सगल = सब में। पूरान = पूर्ण, व्यापक। बीओ = दूसरा, कोई और। पूछि = पूछ के। मसलति = मश्वरा। आपहि = आप ही, खुद ही।2। अर्थ: (हे भाई! उस प्रभु का ध्यान धरा कर) जिसकी निगाह में एक कंगाल मनुष्य और एक राजा एक जैसे ही हैं, जो कीड़े (से लेकर) हाथी तक सबमें ही व्यापक है, जो किसी और को पूछ के (कोई काम करने की) सालाह नहीं करता, (बल्कि) जो कुछ करता है वह स्वयं ही करता है।2। जा का अंतु न जानसि कोइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥ आपि अकारु आपि निरंकारु ॥ घट घट घटि सभ घट आधारु ॥३॥ पद्अर्थ: जानसि = जान सकेगा। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से परे। अकारु = दिखाई देता जगत। निरंकारु = (निर+आकार) आकार रहित, अदृष्ट। घटि = शरीर में, हृदय में। आधारु = आसरा।3। अर्थ: (हे भाई! उस प्रभु का ध्यान धरा कर) जिस (ही हस्ती) का अंत कोई भी जीव नहीं जान सकेगा। वह माया से निर्लिप प्रभु (हर जगह) स्वयं ही स्वयं है। ये सारा दिखाई देता जगत उसका अपना ही स्वरूप है, आकार-रहित भी वह स्वयं ही है। वह प्रभु सारे शरीरों में मौजूद है और सारे ही शरीरों का आसरा है।3। नाम रंगि भगत भए लाल ॥ जसु करते संत सदा निहाल ॥ नाम रंगि जन रहे अघाइ ॥ नानक तिन जन लागै पाइ ॥४॥३॥५॥ पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्यार में। जसु = महिमा। करते = करते। निहाल = प्रसन्न। जन = (प्रभु के) सेवक। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं, तृष्णा से बचे रहते हैं। लागै = लगता है। तिन पाइ = उनके पैरों पर।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य उसके नाम के रंग में लाल हुए रहते हैं। उसकी महिमा के गीत गाते हुए संत जन सदा खिले रहते हैं। हे भाई! प्रभु के सेवक प्रभु के नाम के प्रेम में टिक के माया की तृष्णा से बचे रहते हैं। नानक उन सेवकों के चरण पड़ता है।4।3।5। गोंड महला ५ ॥ जा कै संगि इहु मनु निरमलु ॥ जा कै संगि हरि हरि सिमरनु ॥ जा कै संगि किलबिख होहि नास ॥ जा कै संगि रिदै परगास ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै संगि = जिस (संत जनों) की संगति में। निरमलु = पवित्र। किलबिख = (सारे) पाप। होहि = हो जाते हैं। रिदै = हृदय में। परगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश।1। अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संतजन हैं) जिनकी संगति में रहने से ये मन पवित्र हो जाता है, जिनकी संगति में सदा हरि-नाम का स्मरण (करने का मौका मिलता) है, जिनकी संगति में रहने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, और जिनकी संगति में टिकने से हृदय में (स्वच्छ आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है।1। से संतन हरि के मेरे मीत ॥ केवल नामु गाईऐ जा कै नीत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वे। केवल = सिर्फ। गाईऐ = गाया जाता है। जा कै = जिनके घर में। नीत = नित्य, सदा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरे मित्र तो प्रभु के वह संतजन हैं, जिनकी संगति में सदा सिर्फ हरि का नाम ही गाया जाता है।1। रहाउ। जा कै मंत्रि हरि हरि मनि वसै ॥ जा कै उपदेसि भरमु भउ नसै ॥ जा कै कीरति निरमल सार ॥ जा की रेनु बांछै संसार ॥२॥ पद्अर्थ: जा कै मंत्रि = जिनके मंत्र से, जिस (संतजनों) के उपदेश से। मनि = मन में। भउ = डर। भरमु = वहम। जा कै = जिनके हृदय में। कीरति = महिमा। सार = श्रेष्ठ। जा की रेनु = जिस की चरण धूल। बांछै = इच्छा रखता है।2। अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनके उपदेश की इनायत से परमात्मा का नाम मन में आ बसता है, जिस के उपदेश से (मन में से) हरेक डर, हरेक भ्रम-वहम दूर हो जाता है, जिनके हृदय में श्रेष्ठ और पवित्र करने वाली हरि-कीर्ति बसती रहती है, और जिनके चरण-धूल की अभिलाषा सारा जगत करता रहता है।2। कोटि पतित जा कै संगि उधार ॥ एकु निरंकारु जा कै नाम अधार ॥ सरब जीआं का जानै भेउ ॥ क्रिपा निधान निरंजन देउ ॥३॥ पद्अर्थ: कोटि पतित = करोड़ों विकारी। उधार = (विकारों से) निस्तारा। निरंकारु = आकार रहित प्रभु। जा कै = जिनके हृदय में। नाम अधार = नाम का आसरा। भेउ = भेद। निधान = खजाना। देउ = प्रकाश रूप।3। अर्थ: (हे भाई! मेरे मित्र तो वह संत जन हैं) जिनकी संगति में रह के करोड़ों विकारियों का (विकारों से) निस्तारा हो जाता है, जिनके हृदय में (हर वक्त) केवल परमात्मा ही बसता है, जिनके अंदर उस परमेश्वर के नाम का आसरा बना रहता है जो सारे जीवों (के दिल) का भेद जानता है, जो कृपा का खजाना है, जो माया के प्रभाव से परे हैं और जो प्रकाश-रूप है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |