श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पारब्रहम जब भए क्रिपाल ॥ तब भेटे गुर साध दइआल ॥ दिनु रैणि नानकु नामु धिआए ॥ सूख सहज आनंद हरि नाए ॥४॥४॥६॥

पद्अर्थ: तब = उस वक्त। भेटे = मिलते हैं। दइआल = दया के घर। रैणि = रात। नानकु धिआए = नानक स्मरण करता है। सहज = आत्मिक अडोलता। हरि नाए = हरि के नाम में जुड़ने से।4।

अर्थ: (हे भाई!) जब प्रभु जी दयावान होते हैं, तब ऐसे दयालु संतजन मिलते हैं तब सतिगुरु जी मिलते हैं। (हे भाई! ऐसे संत जनों की संगति में) नानक दिन-रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और हरि-नाम की इनायत से (नानक के हृदय में) आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।4।4।6।

गोंड महला ५ ॥ गुर की मूरति मन महि धिआनु ॥ गुर कै सबदि मंत्रु मनु मान ॥ गुर के चरन रिदै लै धारउ ॥ गुरु पारब्रहमु सदा नमसकारउ ॥१॥

पद्अर्थ: गुर की मूरति = गुरु का शब्द रूपी मूर्ति। गुर की मूरति धिआनु = गुरु के शब्द रूपी मूर्ति का ध्यान। गुर कै सबदि = गुरु के शब्द से। मंत्रु = नाम मंत्र। मान = मानता है। रिदै = हृदय में। लै = ले के। धारउ = मैं धारता हूँ।1।

अर्थ: (तभी तो, हे भाई!) मैं तो गुरु (को) परमात्मा (का रूप जान के उस) को सदा नमस्कार करता हूँ, गुरु के चरण अपने हृदय में धार के बसाए रखता हूँ। गुरु के शब्द से मेरा मन नाम-मंत्र को (सब मंत्रों से श्रेष्ठ मंत्र) मान रहा है। (हे भाई! गुरु का शब्द ही गुरु की मूर्ति है) गुरु की (इस) मूर्ति का (मेरे) मन में ध्यान टिका रहता है।1।

मत को भरमि भुलै संसारि ॥ गुर बिनु कोइ न उतरसि पारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मत = कहीं (ऐसा ना हो), मत कहीं। मत को भुलै = कहीं कोई भूल ना जाए। संसारि = संसार में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! दुनियां में कहीं कोई व्यक्ति भटकना में पड़ कर (ये बात) ना भूल जाए, कि गुरु के बिना कोई और जीव (संसार समुंदर से) पार लंघा सकता है।1। रहाउ।

भूले कउ गुरि मारगि पाइआ ॥ अवर तिआगि हरि भगती लाइआ ॥ जनम मरन की त्रास मिटाई ॥ गुर पूरे की बेअंत वडाई ॥२॥

पद्अर्थ: कउ = को। गुरि = गुरु ने। मारगि = रास्ते पर। अवर = और (देवी-देवताओं आदि की भक्ति)। त्रास = डर।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की महिमा का अंत नहीं पाया जा सकता। गलत रास्ते पर जा रहे मनुष्य को गुरु ने (ही सही जीवन के) रास्ते पर (हमेशा) डाला है, औरों की (देवी-देवताओं की भक्ति) छुड़वा के परमातमा की भक्ति से जोड़ा है (और, इस तरह उसके अंदर से) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त कर दिया है।2।

गुर प्रसादि ऊरध कमल बिगास ॥ अंधकार महि भइआ प्रगास ॥ जिनि कीआ सो गुर ते जानिआ ॥ गुर किरपा ते मुगध मनु मानिआ ॥३॥

पद्अर्थ: प्रसादि = कृपा से। ऊरध = उलटा हुआ। बिगास = खिलाव। अंधकार = अंधेरा। प्रगास = प्रकाश। जिनि = जिस (प्रभु) ने। ते = से, से। जानिआ = जान लिआ, सांझ डाल ली। मुगध = मूर्ख। मानिआ = पतीज गया।3।

अर्थ: हे भाई! (माया की ओर) उलटा हुआ हृदय-कमल, गुरु की कृपा से (पलट के सीधा हो के) खिल उठता है। (माया के मोह के) घोर अंधेरे में (सही ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। गुरु के द्वारा उस परमात्मा से जान-पहचान बन जाती है जिसने (यह सारा जगत) पैदा किया है। (ये) मूर्ख मन गुरु की कृपा से (प्रभु के चरणों में जुड़े रह के) पतीज जाता है।3।

गुरु करता गुरु करणै जोगु ॥ गुरु परमेसरु है भी होगु ॥ कहु नानक प्रभि इहै जनाई ॥ बिनु गुर मुकति न पाईऐ भाई ॥४॥५॥७॥

पद्अर्थ: करणै जोग = सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला। होगु = सदा रहेगा। प्रभि = प्रभु ने। इहै = यही बात। जनाई = समझाई है। मुकति = (माया के मोह के अहंकार से) खलासी, मुक्ति। भाई = हे भाई!।4।

अर्थ: हे नानक! कह: गुरु (आत्मिक अवस्था में ईश्वर से एक-सुर होने के कारण) ईश्वर (कर्तार) का ही रूप है जो सब कुछ कर सकने के समर्थ है। गुरु उस परमेश्वर का रूप है, जो (पहले भी मौजूद था) अब भी मौजूद है और सदा कायम रहेगा। हे भाई! गुरु (की शरण पड़े) बिना (माया के मोह के अंधेरे से) मुक्ति नहीं मिल सकती।4।5।7।

गोंड महला ५ ॥ गुरू गुरू गुरु करि मन मोर ॥ गुरू बिना मै नाही होर ॥ गुर की टेक रहहु दिनु राति ॥ जा की कोइ न मेटै दाति ॥१॥

पद्अर्थ: करि = याद किया कर। मन मोर = हे मेरे मन! होर = और (टेक, और ही आसरा)। दाति = नाम की दाति।1।

अर्थ: हे मेरे मन! हर वक्त गुरु (के उपदेश) को याद रख, मुझे गुरु के बिना और कोई आसरा नहीं सूझता। हे मन! जिस गुरु की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की दाति को कोई मिटा नहीं सकता, उस गुरु के आसरे दिन-रात टिका रह।1।

गुरु परमेसरु एको जाणु ॥ जो तिसु भावै सो परवाणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एको = एक रूप। तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। परवाणु = स्वीकार।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु और परमात्मा का एक-रूप समझो। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, वही गुरु भी (सिर-माथे) स्वीकार करता है।1। रहाउ।

गुर चरणी जा का मनु लागै ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागै ॥ गुर की सेवा पाए मानु ॥ गुर ऊपरि सदा कुरबानु ॥२॥

पद्अर्थ: जा का मनु = जिस मनुष्य का मन। पाए = कमाता, पाता। मानु = आदर।2।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में टिका रहता है, उसकी हरेक भटकना हरेक दुख-दर्द दूर हो जाता है। हे मन! गुरु की शरण पड़ के मनुष्य (हर जगह) आदर पाता है। हे मेरे मन! गुरु से सदके हो।2।

गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ गुर के सेवक की पूरन घाल ॥ गुर के सेवक कउ दुखु न बिआपै ॥ गुर का सेवकु दह दिसि जापै ॥३॥

पद्अर्थ: देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न। घाल = मेहनत, कमाई। कउ = को। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। दहदिसि = दसों दिशाओं में (दह = दस। दिस = तरफ, दिशाएं)। जापै = प्रकट हो जाता है।3।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के दर्शन करके (मनुष्य का तन-मन) खिल उठता है। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य की मेहनत सफल हो जाती है। कोई भी दुख गुरु के सेवक पर (अपना) जोर नहीं डाल सकता। गुरु की शरण रहने वाला मनुष्य सारे संसार में प्रकट हो जाता है।3।

गुर की महिमा कथनु न जाइ ॥ पारब्रहमु गुरु रहिआ समाइ ॥ कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ गुर चरणी ता का मनु लाग ॥४॥६॥८॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। रहिआ समाइ = हर जगह मौजूद है।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु की महिमा बयान नहीं की जा सकती। गुरु उस परमात्मा का रूप है, जो हर जगह व्यापक है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य के बड़े भाग्य जागते हैं, उसका मन गुरु के चरणों में टिका रहता है।4।6।8।

गोंड महला ५ ॥ गुरु मेरी पूजा गुरु गोबिंदु ॥ गुरु मेरा पारब्रहमु गुरु भगवंतु ॥ गुरु मेरा देउ अलख अभेउ ॥ सरब पूज चरन गुर सेउ ॥१॥

पद्अर्थ: भगवंतु = समर्थता वाला। देउ = प्रकाश रूप प्रभु। अलख = अ+लख, जिसका स्वरूप बिआन से परे है। अभेउ = अ+भेव, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। सरब पूज चरन गुर = गुरु के चरण जिस की पूजा सारी सृष्टि करती है। सेउ = सेवूँ, मैं सेवता हूँ।1।

अर्थ: हे भाई! (मेरा) गुरु (गुरु की शरण ही) मेरे वास्ते (देव-) पूजा है, (मेरा) गुरु, गोबिंद (का रूप) है। मेरा गुरु परमात्मा (का रूप) है, गुरु बड़ी ही सामर्थ्य का मालिक है। मेरा गुरु उस प्रकाश-रूप प्रभु का रूप है जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता और जिसका भेद पाया नहीं जा सकता। मैं तो उन गुरु-चरणों की शरण पड़ा रहता हूँ जिनको सारी सृष्टि पूजती है।1।

गुर बिनु अवरु नाही मै थाउ ॥ अनदिनु जपउ गुरू गुर नाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अवरु थाउ = और जगह। अनदिनु = हर रोज। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (माया के मोह के घोर अंधकार से बचने के लिए) गुरु के बिना मुझे और कोई जगह नहीं सूझती (जिसका मैं आसरा ले सकूँ। सो) मैं हर वक्त गुरु का नाम जपता हूँ (गुरु की ओट लिए बैठा हूँ)।1। रहाउ।

गुरु मेरा गिआनु गुरु रिदै धिआनु ॥ गुरु गोपालु पुरखु भगवानु ॥ गुर की सरणि रहउ कर जोरि ॥ गुरू बिना मै नाही होरु ॥२॥

पद्अर्थ: गिआनु = धार्मिक चर्चा। रिदै = हृदय में। धिआनु = समाधि। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कर जोरि = (दोनों) हाथ जोड़ के। होरु = और जगह।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु ही मेरे वास्ते धार्मिक चर्चा है, गुरु (सदा मेरे) हृदय में टिका हुआ है, यही मेरी समाधि है। गुरु उस भगवान का रूप है जो सर्व-व्यापक है और सृष्टि का पालनहार है। मैं (अपने) दोनों हाथ जोड़ के (सदा) गुरु की शरण पड़ा रहता हूँ। गुरु के बिना मुझे कोई और आसरा नहीं सूझता।2।

गुरु बोहिथु तारे भव पारि ॥ गुर सेवा जम ते छुटकारि ॥ अंधकार महि गुर मंत्रु उजारा ॥ गुर कै संगि सगल निसतारा ॥३॥

पद्अर्थ: बोहिथु = जहाज। भव = संसार समुंदर। ते = से। छुटकारि = खलासी, मुक्ति। अंधकार = घुप अंधेरा। मंत्रु = उपदेश, शब्द। उजारा = उजाला। कै संगि = की संगति में। सगल = सारे जीव। निसतारा = पार उतारा।3।

अर्थ: हे भाई! गुरु जहाज है जो संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। गुरु की शरण पड़ने से जमों (के डर) से खलासी मिल जाती है। (माया के मोह के) घोर अंधकार में गुरु का उपदेश ही (आत्मिक जीवन का) प्रकाश देता है। गुरु की संगति में रहने से सारे जीवों का पार-उतारा हो जाता है।3।

गुरु पूरा पाईऐ वडभागी ॥ गुर की सेवा दूखु न लागी ॥ गुर का सबदु न मेटै कोइ ॥ गुरु नानकु नानकु हरि सोइ ॥४॥७॥९॥

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों से। पाईऐ = मिलता है।4।

अर्थ: हे भाई! बहुत ही भाग्यों से पूरा गुरु मिलता है। गुरु की शरण पड़ने से कोई दुख छू भी नहीं सकता। (जिस मनुष्य के हृदय में) गुरु का शब्द (बस जाए, उसके अंदर से) कोई मनुष्य (आत्मिक जीवन के उजाले को) मिटा नहीं सकता। हे भाई! गुरु नानक उस परमात्मा का रूप है।4।7।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh