श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 879 ऐसा गिआनु बीचारै कोई ॥ तिस ते मुकति परम गति होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। तिस ते = उस से, उस परमात्मा से, उस परमात्मा की महिमा से। मुकति = विकारों से मुक्ति। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। होई = हो जाती है।1। रहाउ। अर्थ: उस (सरब-विधाता के सर्व-व्यापक प्रभु की महिमा) की इनायत से मनुष्य को विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल होती है; ऐसा ज्ञान कोई विरला (गुरमुखि) ही विचारता है।1। रहाउ। दिन महि रैणि रैणि महि दिनीअरु उसन सीत बिधि सोई ॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै गुर बिनु समझ न होई ॥२॥ पद्अर्थ: रैणि = रात। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। उसन = ऊष्णता, गर्मी। सीत = ठंढ। बिधि = तरीका, जुगति। ता की = उस (परमात्मा) की। गति = हालत। मिति = माप, मर्यादा। ता की गति मिति = वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है।2। अर्थ: दिन (की रौशनी) में रात (का अंधकार) लीन हो जाता है, रात (के अंधेरे) में सूरज (का प्रकाश) खत्म हो जाता है। यही हालत है गर्मी की और ठंड की (कभी गर्मी और कभी ठंड, कहीं गर्मी है तो कहीं ठंड) - (ये सारी खेल उस परमात्मा की कुदरत की है)। वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है (परमात्मा के बिना) कोई और नहीं जानता। गुरु के बिना ये समझ नहीं आती (कि अकाल-पुरख बेअंत है और अकथनीय है)।2। पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रहम गिआनी ॥ धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी ॥३॥ पद्अर्थ: ब्रहम गिआनी = हे ब्रहम के ज्ञान वाले! हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! धुनि = महिमा के शब्द। धिआनु = तवज्जो, ध्यान। अकथ कहानी = अकथ की कहानी, बेअंत प्रभु की महिमा। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।3। अर्थ: हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! देख आश्चर्यजनक खेल कि मनुष्य के वीर्य से स्त्रीयां पैदा होती हैं और स्त्रीयों से मनुष्य पैदा होते हैं। परमात्मा की प्रकृति की कहानी बयान नहीं हो सकती। पर, जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है वह प्रभु की महिमा की वाणी में अपनी तवज्जो जोड़ता है और उस तवज्जो में से परमात्मा के साथ जान-पहचान बना लेता है।3। मन महि जोति जोति महि मनूआ पंच मिले गुर भाई ॥ नानक तिन कै सद बलिहारी जिन एक सबदि लिव लाई ॥४॥९॥ पद्अर्थ: पंच = पाँचों ज्ञान-इंद्रिय। गुर भाई = एक ही गुरु वाले। मिले = इकट्ठे हो गए, एक जगह टिक गए, भटकने से हट गए। तिन कै = उनसे। सद = सदा। एक सबदि = एक प्रभु की महिमा की वाणी मैं।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं उन गुरमुखों पर से बलिहार जाता हूँ जिन्होंने परमात्मा की महिमा की वाणी में तवज्जो जोड़ी है। उनके मन में अकाल-पुरख की ज्योति प्रकट हो जाती है, परमात्मा की याद में उनका मन सदा लीन रहता है, उनकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एक-ईष्ट वाली हो के भटकने से हट जाती हैं।4।9। रामकली महला १ ॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी ॥ ता हउमै विचहु मारी ॥ सो सेवकि राम पिआरी ॥ जो गुर सबदी बीचारी ॥१॥ पद्अर्थ: जा = जब। प्रभि = प्रभु ने। ता = तब। सेवकि = दासी। गुर सबदी = गुरु के शब्द में जुड़ के। बीचारी = विचारवान, अच्छे बुरे की परख करने योग्य।1। अर्थ: (पर, लोक-सम्मान छोड़नी कोई आसान खेल नहीं) जब हरि प्रभु ने खुद (किसी जीव पर) मेहर की, तब ही जीव ने अपने अंदर से अहंम को दूर किया। गुरु के शब्द में जुड़ के जो (जीवात्मा-) दासी विचारवान हो गई (और अपने अंदर से लोकलाज मार सकी) वह दासी परमात्मा को अच्छी लगने लगी।1। सो हरि जनु हरि प्रभ भावै ॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जनु = दास। प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। अहि = दिन। निसि = रात। लाज = लोक-सम्मान। छोडि = छोड़ के।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा का वह सेवक परमात्मा को प्यारा लगता है जो लोक-सम्मान (अहंकार) छोड़ के दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ। धुनि वाजे अनहद घोरा ॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा ॥ गुर पूरै सचु समाइआ ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: धुनि = ध्वनि, आवाज, मीठी सुर। अनहद = (अन हद, अन हत, बिना बजाए बजने वाले) एक रस, लगातार। घोरा = गंभीर। रसि = रस में, आनंद में। मोरा = मेरा। गुर पूरै = पूरे गुरु से। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।2। अर्थ: (मेरे पर गुरु ने मेहर की, मेरा मन गुरु के शब्द में जुड़ा, अंदर ऐसा आनंद बना, मानो,) एक-रस बज रहे बाजों की गंभीर मीठी सुर सुनाई देने लग पड़ी। मेरा मन परमात्मा की महिमा के स्वाद में मगन हो गया है। पूरे गुरु के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु (मेरे मन में) रच गया है, मुझे सबसे बड़ी हस्ती वाला सबका आदि सबमें व्यापक प्रभु मिल गया है।2। सभि नाद बेद गुरबाणी ॥ मनु राता सारिगपाणी ॥ तह तीरथ वरत तप सारे ॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे ॥३॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। नाद = जोगियों सिंगी आदि बाजे। बेद = हिन्दू मत की धर्म पुस्तक। सारिगपाणी = परमात्मा। तह = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरु को मिल गया।3। अर्थ: गुरु की वाणी से जिस मनुष्य का मन परमात्मा (के प्यार) में रंगा जाता है उसको जोगियों के सिंगी आदि सारे बाजे व हिन्दू मत के वेद आदि धर्म-पुस्तकें सब गुरु की वाणी में ही आ जाते हैं (भाव, गुरूबाणी के मुकाबले उसे इन चीजों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)। (जिस आत्मिक अवस्था में वह पहुँचता है) वहाँ सारे तीर्थ-स्नान, सारे व्रत और तप भी उसे मिले हुए के बराबर हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरु को मिल जाता है उसको परमात्मा (संसार-समुंदर में से) पार लंघा लेता है।3। जह आपु गइआ भउ भागा ॥ गुर चरणी सेवकु लागा ॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ ॥४॥१०॥ पद्अर्थ: जह = जिस हृदय में। आपु = स्वै भाव। गुरि = गुरु ने। सतिगुरि = सतिगुरु ने। भरमु = भटकना। सबदि = गुरु के शब्द में।4। अर्थ: जिस हृदय में से स्वै भाव दूर हो गया, वहाँ से और सब डर-सहम भाग गए, वह सेवक गुरु के चरणों में लीन हो गया। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को गुरु ने अपने शब्द में जोड़ लिया, उसकी (माया आदि की सारी) भटकना गुरु ने दूर कर दी।4।10। रामकली महला १ ॥ छादनु भोजनु मागतु भागै ॥ खुधिआ दुसट जलै दुखु आगै ॥ गुरमति नही लीनी दुरमति पति खोई ॥ गुरमति भगति पावै जनु कोई ॥१॥ पद्अर्थ: छादनु = कपड़ा। मागतु भागै = मांगता फिरता है। खुधिआ = भूख। दुसट = बुरी, चंदरी। आगै = परलोक। पति = इज्जत। खोई = गवा ली। जनु कोई = कोई विरला मनुष्य।1। अर्थ: (पर, जो जोगी) अन्न-वस्त्र (ही) मांगता फिरता है, यहाँ चंदरी भूख (की आग) में जलता रहता है (कोई आत्मिक पूंजी तो बनाता नहीं, इसलिए) आगे (परलोक में भी) दुख पाता है। जिस (जोगी) ने गुरु की मति नहीं ली उसने दुमर्ति में लग के अपनी इज्जत गवा ली। कोई-कोई (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शिक्षा पर चल कर परमात्मा की भक्ति का लाभ कमाता है।1। जोगी जुगति सहज घरि वासै ॥ एक द्रिसटि एको करि देखिआ भीखिआ भाइ सबदि त्रिपतासै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोगी जुगति = असल जोगी की रहत बहत। सहज = अडोलता, शांति। सहज घरि = शांति के घर में। द्रिसटि = नज़र, निगाह। एको करि = एक परमात्मा को ही व्यापक मान के। भीखिआ = भिक्षा (से)। भाइ = (भाय) प्रेम से। भाखिआ भाइ = प्रभु प्यार की भिक्षा से। सबदि = (गुरु के) शब्द में (जुड़ के)। त्रिपतासै = (आत्मिक) भूख मिटाता है, अघाता है।1। रहाउ। अर्थ: असल जोगी की रहिणी-बहिणी ये है कि वह अडोलता के घर में टिका रहता है (उसका मन सदा शांत रहता है)। वह समानता की नजर से (सब जीवों में) एक परमात्मा को ही रमा हुआ देखता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह प्रेम-भिक्षा से अपनी (आत्मिक) भूख मिटाता है (अपने मन को तृष्णा से बचाए रखता है)।1। रहाउ। पंच बैल गडीआ देह धारी ॥ राम कला निबहै पति सारी ॥ धर तूटी गाडो सिर भारि ॥ लकरी बिखरि जरी मंझ भारि ॥२॥ पद्अर्थ: पंच बैल = (पाँचों ज्ञान-इंद्रिय, जैसे) पाँच बैल हैं। गडीआ देह = शरीर गड्डा। धारी = आसरा दिया हुआ है, चला रहे हैं। राम कला = (सर्व व्यापक) प्रभु की सत्ता से, जब तक सर्व व्यापक प्रभु की ज्योति मौजूद है। निबहै = कायम रहती है, बनी रहती है। पति = इज्जत, आदर। धर = धुरा, आसरा। सिर भारि = सिर के बल पर (हो जाता है), गिर पड़ता है, नकारा हो जाता है। बिखरि = बिखर के, सक्ताहीन हो के। जरी = (गाड़ी) जल जाती है। मंझ = बीच के, गड्डे में के, गड्डे में लदे हुए। भारि = भार तले।2। अर्थ: मानव शरीर, जैसे, एक छोटी सी गाड़ी है, जिसको पाँच (ज्ञान-इन्द्रियों रूपी) बैल चला रहे हैं। जब तक इसमें सर्व-व्यापक प्रभु की ज्योति-सत्ता मौजूद है, इसका सारा आदर बना रहता है। (जैसे) जब गाड़ी का धुरा टूट जाता है तो गाड़ी सिर के बल उलट जाती है (नकारा हो जाती है), उसकी लकड़ियां बिखर जाती हैं (उसके अंग अलग-अलग हो जाते हैं), वह अपने ऊपर लदे हुए भार के तले ही दबा हुआ सड़-गल जाता है (वैसे ही जब गुरु-शब्द की अगुवाई के बिना ज्ञान-इंद्रिय मनमानी करने लगती हैं, मानव जीवन की सहज बढ़िया चाल उलट-पलट हो जाती है, स्मरण रूपी धुरा टूट जाता है, आत्मिक जीवन गिर पड़ता है, अपने ही किए कुकर्मों के भार तले मनुष्य जीवन की तबाही हो जाती है)। (जोगी इस भेद को समझने की जगह जोग-मति की जगोटा व मुंद्रें आदि बाहरी चिन्हों तक ही सीमित रह जाता है)।2। गुर का सबदु वीचारि जोगी ॥ दुखु सुखु सम करणा सोग बिओगी ॥ भुगति नामु गुर सबदि बीचारी ॥ असथिरु कंधु जपै निरंकारी ॥३॥ पद्अर्थ: जोगी = हे जोगी! सम = बराबर, एक सा। सोग = किसी की मौत आदि का ग़म, निराशा भरा दुख। बिओग = विछोड़े में विरह, मिलने के चाहत, आशा से मिला हुआ दुख। भुगति = चूरमा, जोगियों का भण्डारा, भोजन। गुर सबदि = गुरु के शब्द से। असथिरु = स्थिर, ठहरा हुआ, टिका हुआ। कंधु = शरीर, (इंद्रिय)।3। अर्थ: हे जोगी! तू गुरु के शब्द को समझ (उस शब्द की अगुवाई में) दुख-सुख को, निराशा भरे ग़म और आशा भरे दुख को एक-समान बर्दाश्त करने (की विधि सीख)। गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु के नाम को चिक्त में बसा- ये तेरा भण्डारा बने (ये तेरी आत्मा की खुराक बने)। निरंकार का नाम जप, (इसकी इनायत से) ज्ञान-इन्द्रियाँ डोलने से बची रहेंगी।3। सहज जगोटा बंधन ते छूटा ॥ कामु क्रोधु गुर सबदी लूटा ॥ मन महि मुंद्रा हरि गुर सरणा ॥ नानक राम भगति जन तरणा ॥४॥११॥ पद्अर्थ: जगोटा = कमर पर बाँधा हुआ ऊन का रस्सा, ऊन की रस्सियों का गूंद के बनाया हुआ रस्सा जो फकीर कमर के चारों तरफ बाँधते हैं।4। अर्थ: जिस जोगी ने मन की अडोलता को अपने कमर से बाँधने वाला ऊन का रस्सा बना लिया है, वह माया के बंधनो से बच गया है; गुरु के शब्द में जुड़ के उसने काम-क्रोध आदि को अपने वश में कर लिया है। जो जोगी परमात्मा की शरण पड़ा रहता है उसने (कानों में मुंद्राएं पहनने की जगह) मन में मुंद्राएं पहन ली हैं (मन को विकारों से बचा लिया है)। हे नानक! (संसार-समुंदर के विकारों की बाढ़ में से) वही मनुष्य पार लांघते हैं जो परमात्मा की भक्ति करते हैं।4।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |