श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली महला ३ घरु १ ॥

सतजुगि सचु कहै सभु कोई ॥ घरि घरि भगति गुरमुखि होई ॥ सतजुगि धरमु पैर है चारि ॥ गुरमुखि बूझै को बीचारि ॥१॥

पद्अर्थ: सतजुगि = सतयुग में। कहै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कहै सभु कोई = हरेक जीव कहता है, ये आम प्रचलित ख्याल है। घरि घरि = हरेक घर में (‘सचु’ प्रधान है)। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पैर है चारि = चार पैरों वाला।

(नोट: आम लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि धरती को बैल ने उठाया हुआ है। गुरमति के अनुसार ‘धरम’ ही जगत का सहारा है। ‘धरम’ ही धरती का ‘बैल’ है)।

को = कोई विरला। बीचारि = विचार करके।1।

अर्थ: हे भाई! ये प्रचलित ख्याल है कि सतियुग में ‘सत्य’ (बोलने के कर्म को प्रधानता) है, हरेक घर में (सच बोलना ही प्रधान है), और सतियुग में (धरती को सहारा देने वाला) धर्म (-बैल) चार पैरों वाला रहता है (धर्म अपने संपूर्ण स्वरूप वाला होता है)। (पर, हे भाई!) कोई विरला मनुष्य ही गुरु के माध्यम से विचारवान हो के यह समझता है कि (सतियुग में भी) गुरु की शरण पड़ कर ही प्रभु की भक्ति हो सकती है (और सतियुग में भी परमात्मा की भक्ति ही प्रधान कर्म है)।1।

जुग चारे नामि वडिआई होई ॥ जि नामि लागै सो मुकति होवै गुर बिनु नामु न पावै कोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। नामि = नाम से। जि = जो मनुष्य। नामि = नाम में। लागै = लगता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! चारों ही युगों में जीव को (परमात्मा के) नाम में जुड़ने के कारण ही आदर मिलता है। जो भी मनुष्य प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ता है, उसको विकारों से मुक्ति मिल जाती है। (पर, ये भी याद रखो कि) कोई जीव भी गुरु (की शरण) के बिना (परमात्मा का नाम) प्राप्त नहीं कर सकता।1। रहाउ।

त्रेतै इक कल कीनी दूरि ॥ पाखंडु वरतिआ हरि जाणनि दूरि ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होई ॥ अंतरि नामु वसै सुखु होई ॥२॥

पद्अर्थ: त्रेतै = त्रेते युग में। कल = कला। वरतिआ = प्रधान हो गया। जाणनि = जानते हैं। सोझी = (अस्लियत की) समझ। अंतरि = हृदय में।2।

अर्थ: (हे भाई ये विचार भी आम प्रचलित है कि) त्रेते युग में एक कला दूर कर दी गई (धरम बैल का एक पैर नकारा हो गया)। (जगत में) पाखण्ड का बोलबाला हो गया, लोग परमात्मा को कहीं दूर बसता समझने लग पड़े। (पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (जीवन-युक्ति का) ज्ञान प्राप्त करता है, उसको समझ आ जाती है (कि बनाए हुए त्रेते युग में भी तब ही) सुख मिलता है यदि मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता हो।2।

दुआपुरि दूजै दुबिधा होइ ॥ भरमि भुलाने जाणहि दोइ ॥ दुआपुरि धरमि दुइ पैर रखाए ॥ गुरमुखि होवै त नामु द्रिड़ाए ॥३॥

पद्अर्थ: दुआपरि = द्वापर में। दूजै = द्वैत भाव में। दुबिधा = मेरे तेर। भरमि = भटकना में। भुलाने = गलत रास्ते पर गए। जाणहि = जानते हैं। दोइ = मेर तेर। धरमि = धरम (-बैल) ने। गुरमुखि होवै = (जब मनुष्य) गुरु के सन्मुख होता है। त = तब। द्रिढ़ाए = हृदय में पक्का करता है।3।

अर्थ: (हे भाई! ये विचार आम प्रचलित है कि) द्वापर युग में लोग द्वैत में फंस गए, लोगों के हृदय में भेदभाव प्रभावी हो गया, भटकन में पड़ कर लोग गलत राह पर चल पड़े, मेर-तेर को ही (अच्छाई) मानने लगे, द्वापर में धरम (बैल) ने (अपने) दो ही पैर टिकाए हुए थे। पर जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह (इस कच्चे ख्याल को त्याग के परमात्मा का) नाम अपने दिल में पक्की तरह बैठाता है।3।

कलजुगि धरम कला इक रहाए ॥ इक पैरि चलै माइआ मोहु वधाए ॥ माइआ मोहु अति गुबारु ॥ सतगुरु भेटै नामि उधारु ॥४॥

पद्अर्थ: कलजुगि = कलजुग में। इक पैरि = एक पैर से। चलै = (धरम बैल) चलता है। अति गुबारु = घोर अंधेरा। भेटै = मिलता है। नामि = नाम से। उधारु = पार उतारा।4।

अर्थ: (हे भाई! आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि) कलियुग में धरम की एक ही कला रह गई है, (धरम-बैल) एक ही पैर के भार पर चलता है, (जगत में) माया (जीव के हृदय में अपना) मोह बढ़ा रही है, (दुनिया में) माया के मोह का घोर अंधकार बना हुआ है। (पर, हे भाई! जिस मनुष्य को) गुरु मिल जाता है, उसको प्रभु के नाम में जोड़ कर (कलियुग में भी माया के घोर अंधेरे से) बचा लेता है।4।

सभ जुग महि साचा एको सोई ॥ सभ महि सचु दूजा नही कोई ॥ साची कीरति सचु सुखु होई ॥ गुरमुखि नामु वखाणै कोई ॥५॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। एको = एक ही। कीरति = महिमा। साची कीरति = सदा कायम रहने वाली महिमा। कोई = जो मनुष्य।5।

अर्थ: हे भाई! सारे युगों में वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है। सब जीवों में भी वह सदा स्थिर प्रभु ही बसता है, उसके बिना कहीं भी कोई और नहीं है। (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की) सदा कायम रहने वाली महिमा बसती है, उसको हरेक सुख प्राप्त है। (पर, हाँ) गुरु की शरण पड़ कर ही मनुष्य परमात्मा का नाम जप सकता है।5।

सभ जुग महि नामु ऊतमु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ हरि नामु धिआए भगतु जनु सोई ॥ नानक जुगि जुगि नामि वडिआई होई ॥६॥१॥

पद्अर्थ: जुगि जुगि = हरेक युग में। नामि = नाम से।6।

अर्थ: हे भाई! सारे युगों में प्रभु का नाम जपना ही (सब कर्मों से) श्रेष्ठ कर्म है; इस बात को कोई वह विरला मनुष्य ही समझता है जो गुरु की शरण पड़ता है। (युग कोई भी हो) वही मनुष्य भक्त है जो परमात्मा का नाम जपता है। हे नानक! (ये बात पक्की जान लो कि) हरेक युग में प्रभु के नाम की इनायत से ही आदर मिलता है।6।1।

जरूरी नोट: शब्द का केन्द्रिया भाव ‘रहाउ’ की पंक्तियों में होता है। सारे शब्द में उस केन्द्रिया भाव की व्याख्या होती है। इस शब्द के केन्द्रिया भाव को ध्यान से देखें। इस विचार को रद्द किया गया है कि अलग-अलग युग में अलग-अलग कर्म को प्रधानता मिलती है।

रामकली महला ४ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जे वड भाग होवहि वडभागी ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपत नामे सुखु पावै हरि नामे नामि समावै ॥१॥

पद्अर्थ: होवहि = हों। ता = तब। धिआवै = ध्याता है। नामे = नाम में ही। नामि = नाम में। समावै = लीन रहता है।1।

अर्थ: यदि कोई मनुष्य भाग्यशाली हो, यदि किसी मनुष्य की अति भाग्यशाली किस्मत हो जाए, तो वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है। नाम जपने से वह मनुष्य नाम में ही आनंद प्राप्त करता है, प्रभु के नाम में ही लीन रहता है।1।

गुरमुखि भगति करहु सद प्राणी ॥ हिरदै प्रगासु होवै लिव लागै गुरमति हरि हरि नामि समाणी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सद = सदा। प्राणी = हे प्राणी! हिरदै = हृदय में। प्रगासु = उच्च आत्मिक जीवन की रोशनी। लिव = लगन, ध्यान। समाणी = लीनता।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (गुरु के बताए हुए जीवन-राह पर चल कर) सदा परमात्मा की भक्ति किया करो। (भक्ति की इनायत से) हृदय में (ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो जुड़ जाती है, गुरु के उपदेश से परमात्मा के नाम में लीनता हो जाती है।1। रहाउ।

हीरा रतन जवेहर माणक बहु सागर भरपूरु कीआ ॥ जिसु वड भागु होवै वड मसतकि तिनि गुरमति कढि कढि लीआ ॥२॥

पद्अर्थ: सागर = समुंदर, हृदय सरोवर। भरपूर = नाको नाक भरा हुआ। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कढि कढि = (हर वक्त) निकाल के।2।

अर्थ: (परमात्मा के गुण, जैसे) हीरे-रतन-जवाहर-मोती हैं। (परमात्मा ने हरेक मनुष्य का) हृदय-सरोवर इनसे लबालब भर रखा है। (पर सिर्फ) उस मनुष्य ने ही गुरु के उपदेश की इनायत से इनको (अंदर छुपे हुओं को) निकाल के संभाल रखा है, जिसके माथे पर बहुत भाग्य जाग उठे हैं।2।

रतनु जवेहरु लालु हरि नामा गुरि काढि तली दिखलाइआ ॥ भागहीण मनमुखि नही लीआ त्रिण ओलै लाखु छपाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। काढि = निकाल के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। त्रिण = तीला। लाखु = लाख (रुपया)।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रतन जवाहर लाल (जैसा कीमती) है (हरेक मनुष्य के अंदर छुपा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसको) गुरु ने (उसके अंदर से ही) निकाल के (उसकी) तली पर (रख के) दिखा दिया है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बद्-किस्मत मनुष्य ने वह रतन नहीं पाया, (उसकी जानिब तो) लाख रुपया तीले के पीछे छुपा हुआ है।3।

मसतकि भागु होवै धुरि लिखिआ ता सतगुरु सेवा लाए ॥ नानक रतन जवेहर पावै धनु धनु गुरमति हरि पाए ॥४॥१॥

पद्अर्थ: धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। सेवा = भक्ति (में)। पावै = प्राप्त करता है। धनु धनु = भाग्यशाली।4।

अर्थ: (हे भाई!) अगर धुर-दरगाह से लिखे हुए लेख किसी मनुष्य के माथे पर जाग जाएं तो गुरु उसको प्रभु की भक्ति से जोड़ देता है। हे नानक! (वह मनुष्य अंदर छुपे हुए गुण-रूपी) रतन-जवाहर ढूँढ लेता है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाता है, गुरु की मति ले के वह मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है।4।1।

रामकली महला ४ ॥ राम जना मिलि भइआ अनंदा हरि नीकी कथा सुनाइ ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकलि सतसंगति मिलि बुधि पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। नीकी = अच्छी। दुरमति = दुर्मति। गई नीकलि = निकल गई। बुधि = अकल। पाइ = (पाय) पाता है, सीखता है।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवक को मिल के (मन में) आनंद पैदा होता है। (प्रभु का सेवक) प्रभु की सुंदर महिमा सुना के (सुनने वाले के दिल में आनंद पैदा कर देता है)। साधु-संगत में मिल के मनुष्य (श्रेष्ठ) मति सीख लेता है, (उसके अंदर से) बुरी बुद्धि वाली सारी मैल दूर हो जाती है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh