श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राम जन गुरमति रामु बोलाइ ॥ जो जो सुणै कहै सो मुकता राम जपत सोहाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम जन = हे प्रभु के सेवक! रामु बोलाइ = (राम बोलाय) हरि नाम जपने की प्रेरणा कर। कहै = उचारता है। मुकता = विकारों से स्वतंत्र। सोहाइ = (सोहाय) सुंदर हो जाता है, सुंदर जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु के भक्तजनो! (मुझे) गुरु की शिक्षा दे के प्रभु का नाम स्मरण करने की सहायता करो। जो जो मनुष्य प्रभु का नाम सुनता है (अथवा) उचारता है, वह (दुर्मति से) स्वतंत्र हो जाता है। प्रभु का नाम जप-जप के वह सुंदर जीवन वाला हो जाता है।1। रहाउ।

जे वड भाग होवहि मुखि मसतकि हरि राम जना भेटाइ ॥ दरसनु संत देहु करि किरपा सभु दालदु दुखु लहि जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: मुखि = मुँह पर। मसतकि = माथे पर। भेटाइ = (भेटाय) मिलाता है। दालदु = कंगालता।2।

अर्थ: हे भाई! जिस किसी मनुष्य के माथे के अच्छे भाग्य जाग उठें, तो परमात्मा उसको संतजनों से मिलाता है। हे प्रभु! कृपा करके (मुझे) संतजनों के दर्शन बख्श, (संतजनों के दर्शन करके) सारा दुख-दरिद्र दूर हो जाता है।2।

हरि के लोग राम जन नीके भागहीण न सुखाइ ॥ जिउ जिउ राम कहहि जन ऊचे नर निंदक डंसु लगाइ ॥३॥

पद्अर्थ: नीके = अच्छे। न सुखाइ = (न सुखाय) अच्छा नहीं लगता। कहहि = कहते हैं। डंसु = डंक।3।

अर्थ: हे भाई्! प्रभु की भक्ति करने वाले व्यक्ति सुंदर (जीवन वाले) होते हैं, पर दुर्भाग्य भरे मनुष्यों को (उनके दर्शन) अच्छे नहीं लगते। हे भाई! संत जन ज्यों-ज्यों हरि-नाम स्मरण करते हैं, त्यों-त्यों ऊँचे जीवन वाले बनते जाते हैं, पर उनकी निंदा करने वालों को उनका जीवन ऐसे लगता है जैसे डंक बज जाता है।3।

ध्रिगु ध्रिगु नर निंदक जिन जन नही भाए हरि के सखा सखाइ ॥ से हरि के चोर वेमुख मुख काले जिन गुर की पैज न भाइ ॥४॥

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार। भाए = अच्छे लगे। सखा सखाइ = (सखा सखाय) मित्र, साथी। वेमुख = उलटाए हुए मुँह वाले। पैज = इज्जत।4।

अर्थ: हे भाई! निंदक मनुष्य धिक्कारयोग्य (जीवन वाले) हो जाते हैं, क्योंकि उनको परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने वाले संत जन अच्छे नहीं लगते। जिस मनुष्यों को गुरु इज्जत (होती) पसंद नहीं आती, वे गुरु से मुँह मोड़े रखते हैं, वे ईश्वर के भी चोर बन जाते हैं (प्रभु को भी मुँह दिखलाने के काबिल नहीं रहते, विकारों के कारण) वे भ्रष्टे हुए मुँह वाले हो जाते हैं।4।

दइआ दइआ करि राखहु हरि जीउ हम दीन तेरी सरणाइ ॥ हम बारिक तुम पिता प्रभ मेरे जन नानक बखसि मिलाइ ॥५॥२॥

पद्अर्थ: दीन = गरीब। बारिक = बच्चे, अंजान। बखसि = बख्शिश करके, कृपा करके।5।

अर्थ: हे प्रभु! हम गरीब (जीव) तेरी शरण आए हैं, कृपा करके (हमें अपनी) शरण में रखे रखो। हे मेरे प्रभु! तू हमारा पिता है, हम तेरे बच्चे हैं। दास नानक पर बख्शिश कर के अपने चरणों में टिकाए रख।5।2।

रामकली महला ४ ॥ हरि के सखा साध जन नीके तिन ऊपरि हाथु वतावै ॥ गुरमुखि साध सेई प्रभ भाए करि किरपा आपि मिलावै ॥१॥

पद्अर्थ: सखा = मित्र। नीके = अच्छे। वतावै = फेरता है। सेई = वही। प्रभ भाए = (जो) प्रभु को प्यारे लगते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के चरणों में सदा रहने वाले साधु-जन सुंदर जीवन वाले होते हैं, प्रभु खुद उन पर कृपा का हाथ रखता है। गुरु की शरण रहने वाले साधु-जन प्रभु को प्यारे लगते हैं। प्रभु अपनी मेहर करके खुद (उनको अपने चरणों में) जोड़े रखता है।1।

राम मो कउ हरि जन मेलि मनि भावै ॥ अमिउ अमिउ हरि रसु है मीठा मिलि संत जना मुखि पावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! मो कउ = मुझे। मेलि = मिला। मनि भावै = (मेरे) मन में (यही) अच्छा लगता है। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मुखि पावै = (तेरा यह दास) मुँह में डाले।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे राम! मुझे अपने संत जन मिला, (मेरे) मन में यही चाहत है। हे राम! तेरा नाम-रस आत्मिक जीवन देने वाला मीठा जल है। (तेरा यह दास तेरे) संत जनों को मिल के (यही अमृत) मुँह में डालना चाहता है।1। रहाउ।

हरि के लोग राम जन ऊतम मिलि ऊतम पदवी पावै ॥ हम होवत चेरी दास दासन की मेरा ठाकुरु खुसी करावै ॥२॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पदवी = आत्मिक दर्जा। चेरी = दासी। खुसी करावै = मेहर करता है।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के साथ प्यार करने वाले संत जन ऊँचे जीवन वाले होते हैं, उनको मिल के मनुष्य उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। हे भाई! जिस मनुष्यों पर मेरा मालिक प्रभु मेहर की निगाह करता है, मैं उनके दासों का दास हूँ।2।

सेवक जन सेवहि से वडभागी रिद मनि तनि प्रीति लगावै ॥ बिनु प्रीती करहि बहु बाता कूड़ु बोलि कूड़ो फलु पावै ॥३॥

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा भक्ति करते हैं। से = वह (बहुवचन)। रिद = हृदय में। मनि = मन में। तनि = तन में। कूड़ो फलु = झूठ ही फल (के तौर पर)।3।

अर्थ: हे भाई! जो सेवक प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं वे बहुत भाग्यशाली होते हैं! प्रभु उनके हृदय में उनके मन में उनके तन में अपने चरणों की प्रीति पैदा करता है। पर, कई मनुष्य इस प्रीत (की दाति) के बिना ही बहुत बातें करते हैं। (कि हमारे दिल में प्रभु की प्रीति बस रही है) ऐसा मनुष्य झूठ बोल के (उसका) झूठा ही फल प्राप्त करता है (उसके दिल में प्रीति की जगह झूठ ही सदा बसा रहता है)।3।

मो कउ धारि क्रिपा जगजीवन दाते हरि संत पगी ले पावै ॥ हउ काटउ काटि बाढि सिरु राखउ जितु नानक संतु चड़ि आवै ॥४॥३॥

पद्अर्थ: जग जीवन = हे जगत के जीवन! दाते = हे दातार! संत पगी = संतों के चरणों में। हउ = मैं। काटउ = मैं काट दूँ। काटि बाढि = टुकड़े टुकड़े करके। राखउ = मैं रख दूँ। जितु चढ़ि = जिस पर चढ़ के।4।

अर्थ: हे जगत को जिंदगी देने वाले हरि! मेरे पर मेहर कर, (ताकि कोई गुरमुखि मनुष्य मुझे तेरे) संत जनों के चरणों से लगा दे। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं अपना सिर काट दूँ, टुकड़े-टुकड़े करके रख दूँ, जिस पर चढ़ के कोई संत जन मुझे आ मिले (भाव, मैं सदके कुर्बान जाऊँ उस रास्ते पर, जिस रास्ते कोई संत आ के मुझे मिले)।4।3।

रामकली महला ४ ॥ जे वड भाग होवहि वड मेरे जन मिलदिआ ढिल न लाईऐ ॥ हरि जन अम्रित कुंट सर नीके वडभागी तितु नावाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: होवहि = हो जाएं (बहुवचन)। जन मिलदिआ = संत जनों को मिलने में। कुंट = चश्मे, सरोवर। सर = तालाब। नीके = अच्छे, सुंदर। तितु = उस (चश्मे) में, उस (सरोवर) में।1।

अर्थ: हे भाई! संत जनों को मिलने में रंच मात्र भी ढील नहीं करनी चाहिए। अगर मेरे अहो भाग्य जाग उठें (तब ही संत जनों को मिलने का अवसर मिलता है)। हे भाई! प्रभु के सेवक आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सुंदर चश्मे हैं, सुंदर सरोवर हैं। उस चश्में में उस सरोवर में बड़ी किस्मत से ही स्नान किया जा सकता है।1।

राम मो कउ हरि जन कारै लाईऐ ॥ हउ पाणी पखा पीसउ संत आगै पग मलि मलि धूरि मुखि लाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! मो कउ = मुझे। कारै = कार में, सेवा में। हउ = मैं। पीसउ = पीसूँ, चक्की पीसूँ। पग = पैर (बहुवचन)। मलि = मल के। धूरि = चरणों की धूर। मुखि = मुँह पर, माथे पर।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) राम! मुझे (अपने) संत जनों की सेवा में लगाए रख। मैं संत जनों के दर पर पानी ढोऊँ, पंखा फेरूँ, (आटा) पीसूँ। मैं संत जनों के पैर मल-मल के धोऊँ, उनके चरणों की धूल अपने माथे पर लगाता रहूँ।1। रहाउ।

हरि जन वडे वडे वड ऊचे जो सतगुर मेलि मिलाईऐ ॥ सतगुर जेवडु अवरु न कोई मिलि सतगुर पुरख धिआईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: सतिगुर मेलि = गुरु की संगति में। ऊचे = ऊँचे जीवन वाले। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। धिआईऐ = ध्याया जा सकता है।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के सेवक बड़े ऊँचे जीवन वाले होते हैं, उनका मिलाप सतिगुरु की संगति में बना रहता है। गुरु जितना बड़ा और कोई नहीं है। गुरु को मिल के ही परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है।2।

सतगुर सरणि परे तिन पाइआ मेरे ठाकुर लाज रखाईऐ ॥ इकि अपणै सुआइ आइ बहहि गुर आगै जिउ बगुल समाधि लगाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: परे = पड़े। तिन पाइआ = (तिन पाया) उन्होंने (प्रभु का मिलाप) डाल लिया। लाज = इज्जत। इकि = कई, अनेक। सुआइ = (सुआय) स्वार्थ की खातिर। आइ = आ के। बहहि = बैठ जाते हैं।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ गए, उन्होंने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया, मेरे मालिक-प्रभु ने उनकी (लोक-परलोक में) इज्जत रख ली। पर अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपने किसी मतलब की खातिर गुरु के दर पर आ बैठते हैं और बगुले की तरह समाधि लगा लेते हैं।3।

बगुला काग नीच की संगति जाइ करंग बिखू मुखि लाईऐ ॥ नानक मेलि मेलि प्रभ संगति मिलि संगति हंसु कराईऐ ॥४॥४॥

पद्अर्थ: काग = कौआ। जाइ = (जाए) जा के। करंग = मुर्दा। बिखू = विष्ठा (जहर)। मुखि = मुँह में। मेलि = मिला ले।4।

अर्थ: हे भाई! बगुला और कौए नीच की संगति ही पसंद करते हैं (यदि वे किसी स्वार्थ की खातिर गुरु की संगत में आते भी हैं, तो यहाँ से) उठ के किसी मुर्दे व गंदगी को ही मुँह में डालते हैं। हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर, और कह:) हे प्रभु! मुझे गुरु की संगति में मिलाए रख। गुरु की संगति में मिल के (कौए से) हंस बन जाया जाता है।4।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh