श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ४ ॥ सतगुर दइआ करहु हरि मेलहु मेरे प्रीतम प्राण हरि राइआ ॥ हम चेरी होइ लगह गुर चरणी जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! सतगुर मेलहु = गुरु मिला। हरि राइआ = (हरि राया) हे प्रभु पातशाह! चेरी = दासी। होइ = (होय) बन के। लगह = हम लगें, मैं लगूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता।1।

नोट: ‘लगह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन।

अर्थ: हे हरि! हे मेरे प्रीतम! हे मेरी जिंद के पातशाह! मेहर कर, मुझे गुरु मिला। हे भाई! जिस गुरु ने (सदा) परमात्मा के मिलाप का रास्ता दिखाया है, मैं उसका दास बन के उसके चरणों में गिरा रहूँ।1।

राम मै हरि हरि नामु मनि भाइआ ॥ मै हरि बिनु अवरु न कोई बेली मेरा पिता माता हरि सखाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! मै मनि भाइआ = मेरे मन को अच्छा लगता है। बेली = मददगार। सखाइआ = साथी।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) राम! हे हरि! मेरे मन को तेरा नाम अच्छा लगता है। हे भाई! परमात्मा के बिना मुझे और कोई मददगार नहीं दिखता। परमात्मा ही मेरी माँ है, परमात्मा ही मेरा पिता है, परमात्मा ही मेरा साथी है।1। रहाउ।

मेरे इकु खिनु प्रान न रहहि बिनु प्रीतम बिनु देखे मरहि मेरी माइआ ॥ धनु धनु वड भाग गुर सरणी आए हरि गुर मिलि दरसनु पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: न रहहि = नहीं रह सकते (बहुवचन)। प्रान = जिंद। मरहि = (मेरे प्राण) मर जाते हैं। माइआ = हे माँ! मिलि = (गुरु को) मिल के। हरि दरसनु = प्रभु का दर्शन।2।

अर्थ: हे मेरी माँ! प्रीतम (गुरु के मिलाप) के बिना मेरी जिंद एक छिन के लिए भी नहीं रह सकती, गुरु के दर्शन किए बिना मेरी (आत्मिक) मौत होती है। वह मनुष्य धन्य हैं धन्य हैं, बहुत भाग्यों वाले हैं, जो गुरु की शरण आ पड़ते हैं। गुरु को मिल के उन्होंने परमात्मा के दर्शन कर लिए हैं।2।

मै अवरु न कोई सूझै बूझै मनि हरि जपु जपउ जपाइआ ॥ नामहीण फिरहि से नकटे तिन घसि घसि नक वढाइआ ॥३॥

अर्थ: (हे मेरी माँ! प्रभु के नाम के जाप के बिना) मुझे कोई भी और काम नहीं सूझता (अच्छा नहीं लगता)। जैसे गुरु जपने के लिए प्रेरित करता है, मैं अपने मन में प्रभु के नाम का जाप ही जपता हूँ। हे भाई! जो मनुष्य नाम से वंचित रहते हैं, वे बेशर्मों की तरह (दुनियां में) चलते-फिरते हैं, वे अनेक बार बेईज्जती करा के दुखी होते हैं।3।

मो कउ जगजीवन जीवालि लै सुआमी रिद अंतरि नामु वसाइआ ॥ नानक गुरू गुरू है पूरा मिलि सतिगुर नामु धिआइआ ॥४॥५॥

पद्अर्थ: मै = मुझे। अवरु = कोई और (वचन)। मनि = मन में। जपउ = जपूँ। फिरहि = फिरते हैं। से = उस (बहुवचन)। नकटे = नि+लज्ज, बेशर्म। सुआमी = हे स्वामी! रिद = हृदय। मिलि = मिल के।4।

अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे हृदय में अपना नाम बसाए रख, और मुझे आत्मिक जीवन दिए रख। हे नानक! (इस नाम की दाति देने का समर्थ) गुरु पूरा ही है गुरु पूरा ही है। गुरु को मिल के ही प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है।4।5।

रामकली महला ४ ॥ सतगुरु दाता वडा वड पुरखु है जितु मिलिऐ हरि उर धारे ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ हरि अम्रित नामु समारे ॥१॥

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दाति देने वाला। जितु = जिससे। जितु मिलिऐ = जिसको मिलने से। उर = हृदय। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरु ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। समारे = संभालता है।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु के नाम की दाति देने वाला गुरु ही सब से बड़ा व्यक्ति है। गुरु को मिलने से मनुष्य परमात्मा को अपने हृदय में बसा लेता है। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने आत्मिक जीवन की दाति दे दी, वह मनुष्य प्रभु के जीवन देने वाले नाम को (हृदय में) संभाल के रखता है।1।

राम गुरि हरि हरि नामु कंठि धारे ॥ गुरमुखि कथा सुणी मनि भाई धनु धनु वड भाग हमारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! गुरि = गुरु से। कंठि = गले में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। कथा = महिमा। मनि भाई = मन को प्यारी लगी है।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे राम! मैं बहुत भाग्यशाली हो गया हूँ, गुरु के द्वारा, हे हरि! तेरा नाम मैंने अपने गले में परो लिया है। गुरु की शरण पड़ कर मैंने तेरी महिमा सुनी है, और वह मेरे मन को प्यारी लग रही है।1। रहाउ।

कोटि कोटि तेतीस धिआवहि ता का अंतु न पावहि पारे ॥ हिरदै काम कामनी मागहि रिधि मागहि हाथु पसारे ॥२॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। न पावहि = नहीं पा सकते। पारे = पार, परला किनारा। हिरदै = हृदय में। कामनी = स्त्री। मागहि = माँगते हैं। रिधि = धन पदार्थ। पसारे = बिखेर के।2।

अर्थ: हे भाई! तेतीस करोड़ (देवते) परमात्मा का ध्यान धरते रहते हैं, पर उसके गुणों का अंत, गुणों का परला छोर नहीं पा सकते। (अनेक ऐसे भी है जो अपने) हृदय में काम-वासना धार के (परमात्मा के दर से) स्त्री (ही) माँगते हैं, (उसके आगे) हाथ पसार के (दुनिया के) धन पदार्थ (ही) माँगते हैं।2।

हरि जसु जपि जपु वडा वडेरा गुरमुखि रखउ उरि धारे ॥ जे वड भाग होवहि ता जपीऐ हरि भउजलु पारि उतारे ॥३॥

पद्अर्थ: जसु = यश, महिमा। जपि = जपा कर। गुरमुखि = गुरु से। रखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। उरि = हृदय में। धारे = धार के, टिका के। भउजलु = संसार समुंदर।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा किया कर, परमात्मा के नाम का जाप ही सबसे बड़ा काम है। मैं तो गुरु की शरण पड़ कर हरि-नाम ही अपने हृदय में बसाता हूँ। हे भाई! यदि (कोई) अति भाग्यशाली हो तो ही हरि-नाम जपा जा सकता है (जो मनुष्य जपता है उसको) संसार-समुंदर से पार लंघा देता है।3।

हरि जन निकटि निकटि हरि जन है हरि राखै कंठि जन धारे ॥ नानक पिता माता है हरि प्रभु हम बारिक हरि प्रतिपारे ॥४॥६॥१८॥

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। कंठि धारे = गले से लगा के। बारिक = बालक, बच्चे।4।

अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा के नजदीक बसते हैं, परमात्मा संतजनों के पास बसता है। परमात्मा अपने सेवकों को अपने गले से लगा के रखता है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा हमारा पिता है, परमात्मा हमारी माँ है। हमें बच्चों को परमात्मा ही पालता है।4।6।18।

रागु रामकली महला ५ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

किरपा करहु दीन के दाते मेरा गुणु अवगणु न बीचारहु कोई ॥ माटी का किआ धोपै सुआमी माणस की गति एही ॥१॥

पद्अर्थ: दीन = गरीब, कंगाल। दाते = हे दातें देने वाले! किआ धोपै = क्या धुल सकता है? (मिट्टी की मैल) कभी नहीं धुल सकती (मिट्टी को धोते जाईए और मिट्टी सामने आती जाएगी)। सुआमी = हे मालिक! गति = हालत, दशा।1।

अर्थ: हे गरीबों पर बख्शिश करने वाले प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मेरा कोई गुण ना विचारना, मेरा कोई अवगुण ना बिचारना (मेरे अंदर तो अवगुण ही अवगुण हैं)। (जैसे पानी से धोने पर) मिट्टी को धोया नहीं जा सकता, हे मालिक प्रभु! हम जीवों की भी यही हालत है।1।

मेरे मन सतिगुरु सेवि सुखु होई ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि दूखु न विआपै कोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सेवि = शरण पड़ा रह। इछहु = माँगेगा। न विआपे = जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ा रह (गुरु के दर पर रहने से ही) आनंद मिलता है। (गुरु के दर पर रह के) जो कामना (तू) करेगा, वही फल हासिल कर लेगा। (इस तरह) कोई भी दुख अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। रहाउ।

काचे भाडे साजि निवाजे अंतरि जोति समाई ॥ जैसा लिखतु लिखिआ धुरि करतै हम तैसी किरति कमाई ॥२॥

पद्अर्थ: काचे भांडे = नाशवान शरीर। साजि = बना के। निवाजे = बड़ाई महिमा दी है, बड़प्पन दिया हुआ है। समाई = टिकी हुई है। लिखतु = लेख। धुरि = धुर दरगाह से। करतै = कर्तार ने। किरति = कार।2।

अर्थ: हे भाई! (हमारे यह) नाशवान शरीर बना के (परमात्मा ने ही इनको) बड़प्पन दिया हुआ है (क्योंकि इन नाशवान शरीरों के) अंदर उसकी ज्योति टिकी हुई है। हे भाई! (हमारे किए हुए कर्मों के अनुसार) कर्तार ने धुर-दरगाह से जैसे (संस्कारों के) लेख (हमारे अंदर) लिख दिए हैं, हम जीव (अब भी) वैसे ही कर्मों की कमाई किए जाते हैं।2।

मनु तनु थापि कीआ सभु अपना एहो आवण जाणा ॥ जिनि दीआ सो चिति न आवै मोहि अंधु लपटाणा ॥३॥

पद्अर्थ: थापि कीआ = समझ लिया, मिथ लिया। एहो = यह मिथ ही, ये अपनत्व ही। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। चिति = चिक्त में। मोह = (इस जीवात्मा और शरीर के) मोह में। मनु = जिंद, जीवात्मा। अंधु = अंधा मनुष्य।3।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य इस जीवात्मा को, इस शरीर को सदा अपना माने रहता है, यह अपनत्व ही (मनुष्य के लिए) जनम-मरण (के चक्कर का कारण बनी रहती) है। जिस परमात्मा ने ये प्राण (जीवात्मा) दिए हैं ये शरीर दिया है वह उसके चिक्त में (कभी) नहीं बसता, अंधा मनुष्य (जिंद और शरीर के) मोह में फसा रहता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh