श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 892 जब उस कउ कोई देवै मानु ॥ तब आपस ऊपरि रखै गुमानु ॥ जब उस कउ कोई मनि परहरै ॥ तब ओह सेवकि सेवा करै ॥२॥ पद्अर्थ: कउ = को। मानु = आदर। आपस ऊपरि = अपने आप पर। गुमानु = मान, अहंकार। मनि = मन में से। परहरै = त्याग देता है, दूर कर देता है। सेवकि = दासी (बन के)।2। अर्थ: हे संत जनो! जब कोई मनुष्य उस (माया) को आदर देता है (संभाल-संभाल के रखने का यत्न करता है) तब वह अपने ऊपर बहुत मान करती है (रूठ-रूठ के भाग जाने का प्रयत्न करती है)। पर जब कोई मनुष्य उसको अपने मन से उतार देता है, तब वह उसकी दासी बन के सेवा करती है।2। मुखि बेरावै अंति ठगावै ॥ इकतु ठउर ओह कही न समावै ॥ उनि मोहे बहुते ब्रहमंड ॥ राम जनी कीनी खंड खंड ॥३॥ पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। बेरावै = परचाती है। अंति = आखिर को। ठगावै = धोखा करती है। इकतु = एक में। इकति ठउर = (किसी) एक जगह में। कही = कहीं भी। उनि = उस ने। राम जनी = संत जनों ने। जनी = जनीं, जनों नें। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े।3। अर्थ: हे संत जनो! (वह माया हरेक प्राणी को) मुँह से परचाती है, पर आखिर धोखा दे जाती है; किसी एक जगह वह कतई नहीं टिकती। उस माया ने अनेक ब्रहमण्डों (के जीवों) को अपने मोह में फसाया हुआ है। पर संत जनों ने (उसके मोह को) टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।3। जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥ इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥४॥१८॥२९॥ पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। इसु संगी = इस (माया) के साथ। रचै = मस्त रहता है। इसहि = इस (माया के मोह) को। ओहु = वह मनुष्य (पुलिंग)।4। अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य (हर वक्त माया की मांग ही) मांगता रहता है, वह तृप्त नहीं होता, (उसकी भूख उसकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती), जो मनुष्य इस माया (के मोह) में ही मस्त रहता है, उसको (आत्मिक जीवन के धन में से) कुछ नहीं मिलता। पर हे नानक! इस (माया के मोह) को छोड़ के जो मनुष्य भले लोगों की संगति करता है, वह बहुत भाग्यशाली मनुष्य (माया के मोह की रुकावटों से) पार लांघ जाता है।4।18।29। रामकली महला ५ ॥ आतम रामु सरब महि पेखु ॥ पूरन पूरि रहिआ प्रभ एकु ॥ रतनु अमोलु रिदे महि जानु ॥ अपनी वसतु तू आपि पछानु ॥१॥ पद्अर्थ: आतमरामु = सर्व व्यापक आत्मा। रामु = सब में रमा हुआ। सरब महि = सबमें। पेखु = देख। पूरन = पूरे तौर पर। पूरि रहिआ = व्यापक है। अमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके।1। अर्थ: (हे भाई!) सर्व-व्यापक परमात्मा को सब जीवों में (बसता) देख। एक परमात्मा ही पूर्ण तौर पर सबमें मौजूद है। हे भाई! हरि-नाम एक एैसा रतन है जिसका मूल्य नहीं पाया जा सकता, यह रत्न जिसके हृदय में बस रहा है, उसके साथ सांझ डाल। (दुनिया के सारे पदार्थ बेगाने हो जाते हैं, ये हरि-नाम ही) तेरी अपनी चीज है, तू खुद ही इस चीज को पहचान।1। पी अम्रितु संतन परसादि ॥ वडे भाग होवहि तउ पाईऐ बिनु जिहवा किआ जाणै सुआदु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। परसादि = कृपा से। होवहि = (अगर) हो। तउ = तब, तो। पाईऐ = प्राप्त करते हैं। बिनु जिहवा = जीभ (नाम जपे) बिना। किआ = क्या।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! संत जनों की संगति में टिका रह, और) संत-जनों की मेहर से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया कर। पर ये अमृत तब ही मिलता है यदि (मनुष्य के) बड़े भाग्य हैं। इस नाम को जीभ से जपे बिना कोई (इस अमृत-नाम का) क्या स्वाद जान सकता है?।1। रहाउ। अठ दस बेद सुने कह डोरा ॥ कोटि प्रगास न दिसै अंधेरा ॥ पसू परीति घास संगि रचै ॥ जिसु नही बुझावै सो कितु बिधि बुझै ॥२॥ पद्अर्थ: अठ दस = अठारह। बेद = चार वेद। सुने कह = कहाँ सुन सकता है? कोटि = करोड़ों (सूर्य)। अंधेरा = (जिसकी आँखों के आगे) अंधेरा है, अंधा। संगि = साथ। रचै = मस्त रहता है। बुझावै = समझ देता। कितु बिधि = किस तरीके से? बुझै = समझ सके।2। अर्थ: (पर हे भाई!) बहरा मनुष्य अठारह पुराण और चार वेद कैसे सुन सकता है? अंधे व्यक्ति को करोड़ों सूरजों की रौशनी भी नहीं दिखाई देती। पशु का प्यार घास से ही होता है, पशु घास से ही खुश रहता है। (जीव माया के मोह में पड़ कर अंधा-बहरा हुआ रहता है, पशू के समान हो जाता है, इसको अपने-आप हरि-नाम की समझ नहीं पड़ सकती, और) जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे, वह किसी तरह भी समझ नहीं सकता।2। जानणहारु रहिआ प्रभु जानि ॥ ओति पोति भगतन संगानि ॥ बिगसि बिगसि अपुना प्रभु गावहि ॥ नानक तिन जम नेड़ि न आवहि ॥३॥१९॥३०॥ पद्अर्थ: जानणहारु = जान सकने वाला। जानि रहिआ = हर वक्त जानता है। ओतु = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ। ओति पोति = जैसे उना हुआ परोया हुआ हो, ताने पेटे में। संगानि = संग, साथ। बिगसि = खिल के, खुश हो के। गावहि = (जो लोग) गाते हैं। तिन नेड़ि = उनके नजदीक। जम = धर्मराज के दूत (बहुवचन)।3। अर्थ: हे भाई! सबके दिल की जानने वाला परमात्मा हमेशा हरेक के दिल की जानता है। वह अपने भक्तों से इस तरह मिला रहता है जैसे ताना-पेटा। हे नानक! जो मनुष्य खुश हो-हो के अपने प्रभु (के गुणों) को गाते रहते हैं, जम दूत उनके नजदीक नहीं आते।3।19।30। रामकली महला ५ ॥ दीनो नामु कीओ पवितु ॥ हरि धनु रासि निरास इह बितु ॥ काटी बंधि हरि सेवा लाए ॥ हरि हरि भगति राम गुण गाए ॥१॥ पद्अर्थ: दीनो = दिया। रासि = राशि, पूंजी। निरास = निर+आस, आशा के बिना, उपराम चिक्त। बितु = धन। बंधि = रुकावट। गाए = गाता है।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का) नाम दे दिया, (उसका जीवन) पवित्र बना दिया। (जिसको गुरु ने) हरि-नाम-धन राशि-पूंजी (बख्शी, दुनिया वाला) ये धन (देख के), वह (इस दुनियावी धन की लालच में नहीं फंसता और) उपराम-चिक्त रहता है। (गुरु ने जिस मनुष्य के जीवन-राह में से माया के मोह की) रुकावट काट दी, उसको उसने परमात्मा की भक्ति में जोड़ दिया, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा की भक्ति करता है, (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है। बाजे अनहद बाजा ॥ रसकि रसकि गुण गावहि हरि जन अपनै गुरदेवि निवाजा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गबाजे = बजते हैं, बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। रसकि = आनंद से। गावहि = गाते हैं। गुरदेवि = गुरदेव ने। निवाजा = मेहर की, निवाजश की।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों पर) अपने (प्यारे) गुरदेव ने मेहर की, हरि के वह सेवक बड़े आनंद से हरि के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर (इस तरह खिलाव बना रहता है, जैसे उनके अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं।1। रहाउ। आइ बनिओ पूरबला भागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥ गई गिलानि साध कै संगि ॥ मनु तनु रातो हरि कै रंगि ॥२॥ पद्अर्थ: पूरबला = पहले जनम का। भाग = अच्छी किस्मत। सोइआ = सोया, सोए हुए। गिलानि = ग्लानि, नफरत। कै संगि = की संगत में। रातो = रंगा हुआ। कै रंगि = के प्रेम रंग में।2। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में (रहने से मनुष्य के अंदर से दूसरों के लिए) नफरत दूर हो जाती है, मनुष्य का मन और तन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है। (गुरु की संगति की इनायत से माया के मोह की नींद में से) कई जन्मों से सोया हुआ (मन) जाग जाता है, (संगति के सदका) उसका पहले जन्मों के अच्छे भाग्य मिलने का सबब आ बनता है।2। राखे राखनहार दइआल ॥ ना किछु सेवा ना किछु घाल ॥ करि किरपा प्रभि कीनी दइआ ॥ बूडत दुख महि काढि लइआ ॥३॥ पद्अर्थ: घाल = मेहनत। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। बूडत = डूब रहा।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु की संगति में रहने से जिस मनुष्य पर) प्रभु ने कृपा की, दया की, उसको दुखों में डूबते को (प्रभु ने बाँह से पकड़ कर) बचा लिया, प्रभु ने उसकी की हुई सेवा नहीं देखी, कोई मेहनत नहीं देखी, (दुखों से) बचाने में सामर्थ्य वाले ने दया के श्रोत से उसकी रक्षा की।3। सुणि सुणि उपजिओ मन महि चाउ ॥ आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ गावत गावत परम गति पाई ॥ गुर प्रसादि नानक लिव लाई ॥४॥२०॥३१॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सुणि सुणि = बार बार सुन के। उपजिओ = पैदा हुआ। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। गुर प्रसादि = गुरु की किरपा से। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! (गुरु की संगति में रह के परमात्मा की महिमा) बार-बार सुन के (जिस मनुष्य के) मन में (महिमा करने का) चाव पैदा हो गया, वह आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा। (गुण) गाते हुए उसने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली। गुरु की कृपा से उसने (प्रभु के चरणों में) तवज्जो जोड़ ली।4।20।31। रामकली महला ५ ॥ कउडी बदलै तिआगै रतनु ॥ छोडि जाइ ताहू का जतनु ॥ सो संचै जो होछी बात ॥ माइआ मोहिआ टेढउ जात ॥१॥ पद्अर्थ: कउडी = तुच्छ सी चीज। बदलै = बदले में, की खातिर। छोडि जाइ = जो साथ छोड़ जाती है। ताहू का = उसी (माया) का ही। संचै = इकट्ठी करता है। होछी = तुच्छ सी। टेडउ = टेढ़ी, अकड़ अकड़ के।1। अर्थ: (परमात्मा का नाम अमूल्य रत्न है, इसके मुकाबले में माया कौड़ी के बराबर है; पर साकत मनुष्य) कौड़ी की खातिर (कीमती) रतन को छोड़ देता है, उसी की ही प्राप्ति का यत्न करता है जो साथ छोड़ जाती है, उसी (माया) को ही इकट्ठी करता रहता है जिसकी पूछ-प्रतीति थोड़ी सी ही है, माया के मोह में फंसा हुआ (साकत) अकड़-अकड़ के चलता है।1। अभागे तै लाज नाही ॥ सुख सागर पूरन परमेसरु हरि न चेतिओ मन माही ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अभागे = हे भाग्यहीन! तै = तुझे। लाज = शर्म। सुख सागर = सुखों का समुंदर। माही = में।1। रहाउ। अर्थ: हे बद्-नसीब (साकत)! तुझे (कभी ये) शर्म नहीं आती कि जो सर्व-व्यापक परमात्मा सारे सुखों का समुंदर है उसको तू अपने मन में याद नहीं करता।1। रहाउ। अम्रितु कउरा बिखिआ मीठी ॥ साकत की बिधि नैनहु डीठी ॥ कूड़ि कपटि अहंकारि रीझाना ॥ नामु सुनत जनु बिछूअ डसाना ॥२॥ पद्अर्थ: कउरा = कड़वा। बिखिआ = माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। बिधि = हालत। नैनहु = आँखों से। कूड़ी = झूठ में, नाशवान पदार्थ में। कपटि = कपट में। रीझाना = रीझता है, खुश होता है। जनु = जैसे कि। बिदूअ = बिच्छू। डसाना = डंक मार गया।2। अर्थ: (हे भाई!) रब से टूटे हुए मनुष्य की (बुरी) हालत (हमने) देखी है, इसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अमृत) कड़वा लगता है और माया मीठी लगती है। (साकत हमेशा) नाशवान पदार्थ में, ठगी (करने) में और अहंकार में ही खुश रहता है। परमात्मा का नाम सुनते ही ऐसे होता है जैसे इसको बिच्छू डस गया हो।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |