श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माइआ कारणि सद ही झूरै ॥ मनि मुखि कबहि न उसतति करै ॥ निरभउ निरंकार दातारु ॥ तिसु सिउ प्रीति न करै गवारु ॥३॥

पद्अर्थ: सद ही = सदा ही। कारणि = की खातिर। झूरै = चिन्ता करता रहता है। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। तिसु सिउ = उस से। गवारु = मूर्ख।3।

अर्थ: (हे भाई! साकत मनुष्य) सदा ही माया की खातिर चिन्ता-फिक्र करता रहता है, यह कभी भी अपने मन में अपने मुँह से परमात्मा की महिमा नहीं करता। जो परमात्मा सब दातें देने वाला है, जिसको किसी का डर-भय नहीं है, जो शरीरों की कैद से परे है, उससे यह मूर्ख साकत कभी प्यार नहीं डालता।3।

सभ साहा सिरि साचा साहु ॥ वेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ मोह मगन लपटिओ भ्रम गिरह ॥ नानक तरीऐ तेरी मिहर ॥४॥२१॥३२॥

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। साचा = सदा कायम रहने वाला। वेमुहताजु = जिसको किसी की अधीनता नहीं, किसी से गर्ज नहीं। मगन = मस्त, डूबा हुआ। लपटिओ = चिपका हुआ। गिरह = गाँठ। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सब शाहों से बड़ा और सदा कायम रहने वाला शाह है, तुझे किसी की अधीनता नहीं, तू सब ताकतों का मालिक बादशाह है। (तेरा पैदा किया हुआ जीव सदा माया के) मोह में डूबा हुआ (माया के साथ ही) चिपका रहता है, (इसके मन में) भटकना ही बनी रहती है। (हे प्रभु! इस संसार-समुंदर में से) तेरी मेहर से ही पार हुआ जा सकता है।4।21।32।

रामकली महला ५ ॥ रैणि दिनसु जपउ हरि नाउ ॥ आगै दरगह पावउ थाउ ॥ सदा अनंदु न होवी सोगु ॥ कबहू न बिआपै हउमै रोगु ॥१॥

पद्अर्थ: रैणि = रजनि, रात। दिनसु = दिन। जपउ = मैं जपता रहूँ। आगै = परलोक में। पावउ = मैं हासिल करूँ। सोगु = शोक, चिन्ता। होवी = होगा। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1।

अर्थ: (हे प्रभु! कृपा कर) मैं दिन-रात हरि का नाम जपता रहूँ, (और इस तरह) परलोक में तेरी हजूरी में जगह प्राप्त कर लूँ। (जो मनुष्य सदा नाम जपता है, उसको) सदा आनंद बना रहता है, उसे कभी चिन्ता नहीं व्यापती, अहंकार का रोग कभी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1।

खोजहु संतहु हरि ब्रहम गिआनी ॥ बिसमन बिसम भए बिसमादा परम गति पावहि हरि सिमरि परानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! ब्रहम गिआनी = परमात्मा से सांझ रखने वाला। ब्रहम गिआनी संतहु = परमात्मा से सांझ रखने वाले हे संत जनो! खोजहु = तलाश करो। बिसम = आश्चर्य। बिसमन बिसम = बहुत ही हैरान करने वाली। बिसमादा = हैरानी करने वाली ये अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। परानी = हे प्राणी!।1। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले हे संतजनो! सदा परमात्मा की खोज करते रहो। हे प्राणी! (सदा) परमात्मा का स्मरण करता रह; (नाम-जपने की इनायत से) बड़ी ही आश्चर्यजनक आत्मिक अवस्था बन जाएगी, तू सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेगा।1। रहाउ।

गनि मिनि देखहु सगल बीचारि ॥ नाम बिना को सकै न तारि ॥ सगल उपाव न चालहि संगि ॥ भवजलु तरीऐ प्रभ कै रंगि ॥२॥

पद्अर्थ: गनि = गिन के। मिनि = मिण के, नाप के। बीचारि = बिचार के। को = कोई। सकै न तारि = तैरा न सके। उपाव = उपाय। सगल = सारे। संगि = साथ। भवजलु = संसार समुंदर। तरीऐ = तैरा जा सकता है। कै रंगि = के प्रेम में रहने से।2।

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे संत जनो! सारे ध्यान से अच्छी तरह विचार के देख लो, परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी (संसार-समुंदर से) पार नहीं लंघा सकता। (नाम के बिना) और सारे ही उपाय (मनुष्य के) साथ नहीं जाते (सहायता नहीं करते)। प्रभु के प्रेम-रंग में रंगे रहने से संसार-समुंदर में से पार लांघा जा सकता है।2।

देही धोइ न उतरै मैलु ॥ हउमै बिआपै दुबिधा फैलु ॥ हरि हरि अउखधु जो जनु खाइ ॥ ता का रोगु सगल मिटि जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: देही = शरीर। धोइ = (धोय), धो के। दुबिधा = दुचिक्तापन, अंदर से और-और बाहर से और होना। फैलु = बिखराव, पसारा। अउखधु = दवा। ता का = उस (मनुष्य) का।3।

अर्थ: (हे संत जनों! तीर्थ आदि पर) शरीर को धोने से (मन की विकारों वाली) मैल दूर नहीं होती, (बल्कि ये) अहंकार अपना दबाव बना लेता है (कि मैं तीर्थ-स्नान करके आया हूँ। व्यक्ति के अंदर) अंदर से और व बाहर से और होने का पसारा पसर जाता है (मनुष्य पाखण्डी हो जाता है)। हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम की दवाई खाता है, उसका सारा (मानसिक) रोग दूर हो जाता है।3।

करि किरपा पारब्रहम दइआल ॥ मन ते कबहु न बिसरु गुोपाल ॥ तेरे दास की होवा धूरि ॥ नानक की प्रभ सरधा पूरि ॥४॥२२॥३३॥

पद्अर्थ: ते = से। कबहु न = कभी भी ना। गुोपाल = हे गोपाल! (असल शब्द है ‘गोपाल’, यहाँ पढ़ना है ‘गुपाल’)। होवा = होऊँ, मैं हो जाऊँ। सरधा = तमन्ना, इच्छा। पूरि = पूरी कर।4।

अर्थ: हे पारब्रहम! हे दया के घर! (मेरे ऊपर) मेहर कर। हे गोपाल! तू मेरे मन से कभी भी ना बिसर। हे प्रभु! मैं तेरे दासों के चरणों की धूल बना रहूँ- नानक की ये चाहत पूरी कर।4।22।33।

रामकली महला ५ ॥ तेरी सरणि पूरे गुरदेव ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू समरथु पूरन पारब्रहमु ॥ सो धिआए पूरा जिसु करमु ॥१॥

पद्अर्थ: गुरदेव = हे गुरदेव! समरथु = सब ताकतों के मालिक। सो = वह बंदा। जिसु = जिस पर। करमु = बख्शिश।1।

अर्थ: हे सर्व-गुण भरपूर और सबसे बड़े देवते! मैं तेरी शरण आया हूँ। तेरे बिना मुझे कोई और (सहायता करने वाला) नहीं (दिखता)। तू सब ताकतों का मालिक है, तू हर जगह व्यापक परमेश्वर है। वही मनुष्य तेरा ध्यान धर सकता है जिस पर तेरी बख्शिश हो।1।

तरण तारण प्रभ तेरो नाउ ॥ एका सरणि गही मन मेरै तुधु बिनु दूजा नाही ठाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तरण = बेड़ी, नाव। प्रभ = हे प्रभु! गही = पकड़ी। मन मेरै = मेरे मन ने। ठाउ = जगह।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम (जीवों को संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज है। मेरे मन ने एक तेरी ही ओट ली है। हे प्रभु! तेरे बिना मुझे कोई और (आसरे वाली) जगह नहीं सूझती।1। रहाउ।

जपि जपि जीवा तेरा नाउ ॥ आगै दरगह पावउ ठाउ ॥ दूखु अंधेरा मन ते जाइ ॥ दुरमति बिनसै राचै हरि नाइ ॥२॥

पद्अर्थ: जपि = जप के। जपि जपि = बार बार जप के। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। मन ते = मन से। जाइ = चला जाता है। दुरमति = बुरी मति। राचै = रचता है, लीन रहता है। नाइ = नाय, नाम में।2।

अर्थ: हे मेरे गुरदेव! तेरा नाम जप-जप के मैं (यहाँ) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ, आगे भी तेरी हजूरी में मैं (टिकने के योग्य) जगह प्राप्त कर सकूँगा। हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे नाम में लीन होता है, (उसके अंदर से) दुर्मति दूर हो जाती है, उसके मन से दुख-कष्ट और (माया के मोह का) अंधेरा चला जाता है।2।

चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गुर पूरे की निरमल रीति ॥ भउ भागा निरभउ मनि बसै ॥ अम्रित नामु रसना नित जपै ॥३॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ। चरन कमल = कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। निरमल = पवित्र। रीति = मर्यादा। भउ = डर। निरभउ = डर रहित परमात्मा। मनि = मन में। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।3।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम जपना ही) पूरे गुरु की पवित्र जीवन मर्यादा है (जो मनुष्य ये मर्यादा धारण करता है, उसका) प्यार (परमात्मा के) सुंदर चरणों से बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला नाम नित्य जपता है, डर-रहित प्रभु उसके मन में आ बसता है (इसलिए उसका हरेक) डर दूर हो जाता है।3।

कोटि जनम के काटे फाहे ॥ पाइआ लाभु सचा धनु लाहे ॥ तोटि न आवै अखुट भंडार ॥ नानक भगत सोहहि हरि दुआर ॥४॥२३॥३४॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। सचा = सदा कायम रहने वाला। लाहे = नफा। तोटि = घाटा। अखुट = कभी ना खत्म होने वाला। भंडार = खजाने। सोहहि = शोभते हैं। दुआर = द्वार, दरवाजे पर।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पे शोभा पाते हैं। (भक्ति के सदका) उनके पहले करोड़ों जन्मों के (माया के) बंधन काटे जाते हैं (जीव यहाँ जगत में हरि-नाम-धन का व्यापार करने आते हैं। प्रभु की भक्ति करने वाले बंदे) सदा कायम रहने वाला हरि-नाम-धन लाभ कमा लेते हैं (उनके पास इस नाम-धन के) कभी ना खत्म होने वाले खजाने (भर जाते हैं जिनमें) कभी घाटा नहीं पड़ता।4।23।34।

रामकली महला ५ ॥ रतन जवेहर नाम ॥ सतु संतोखु गिआन ॥ सूख सहज दइआ का पोता ॥ हरि भगता हवालै होता ॥१॥

पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। गिआन = परमात्मा से जान पहचान, उच्च आत्मिक जीवन की सूझ। सहज = आत्मिक अडोलता। पोता = पोतह, खजाना। भगता हवालै = भगतों के वश में।1।

अर्थ: (हे भाई! प्यारे प्रभु का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) नाम (ही) रतन और जवाहरात हैं, उसमें सत-संतोख और ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ कीमती पदार्थ हैं। वह खजाना सुख, आत्मिक अडोलता व दया के श्रोत हैं। पर, वह खजाना परमात्मा के भक्तों के सुपुर्द होया हुआ है।1।

मेरे राम को भंडारु ॥ खात खरचि कछु तोटि न आवै अंतु नही हरि पारावारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। भंडार = खजाना। खात = खाते हुए। खरचि = खर्च के। तोटि = कमी। पारावारु = (पार+अवार) परला और उरला छोर।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) प्यारे प्रभु का खजाना (ऐसा है कि उसको) खुद इस्तेमाल करते हुए और-और लोगों को बाँटते हुए (उसमें) कमी नहीं आती। उस परमातमा के खजाने का अंत नहीं मिलता, उसकी हस्ती का उरला-परला छोर नहीं मिलता।1। रहाउ।

कीरतनु निरमोलक हीरा ॥ आनंद गुणी गहीरा ॥ अनहद बाणी पूंजी ॥ संतन हथि राखी कूंजी ॥२॥

पद्अर्थ: निरमोलक = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु। गहीरा = गहरा, समुंदर। अनहद = अनाहत, बिना बजाए बजने वाली, एक रस जारी रहने वाली। बाणी = महिमा की लहर। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। संतन हथि = संतों के हाथ में। कूँजी = कूंजी।2।

अर्थ: (हे भाई! प्यारे प्रभु का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) कीर्तन एक ऐसा हीरा है जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता (उस कीर्तन की इनायत से) गुणों के मालिक समुंदर-प्रभु (के मिलाप) का आनंद (प्राप्त होता है)। (कीर्तन की इनायत से पैदा हुई) एक-रस जारी रहने वाली महिमा की लहर (उस खजाने में मनुष्य के लिए) राशि-पूंजी है। (पर, परमात्मा ने इस खजाने की) कूँजी संतों के हाथ में रखी हुई है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh