श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुंन समाधि गुफा तह आसनु ॥ केवल ब्रहम पूरन तह बासनु ॥ भगत संगि प्रभु गोसटि करत ॥ तह हरख न सोग न जनम न मरत ॥३॥

पद्अर्थ: सुंन = शून्य, फुरनों का अभाव, जहाँ कोई मायावी विचार ना उठें। तह = वहाँ, उस हृदय में। गुफा आसनु = गुफा में ठिकाना। बासनु = वास। संगि = साथ। गोसटि = मिलाप। हरख = खुशी। सोग = ग़म। मरत = मौत।3।

अर्थ: (हे भाई! जिस हृदय-घर में वह खजाना आ बसता है) वहाँ ऐसी समाधि बनी रहती है जिसमें कोई मायावी विचार नहीं उठते, (पहाड़ों की कंद्रों की जगह उस हृदय-) गुफा में मनुष्य की तवज्जो टिकी रहती है, उस हृदय-घर में सिर्फ पूरन परमात्मा का निवास बना रहता है। (जिस भक्त के हृदय में वह खजाना प्रगट हो जाता है उस) भक्त से प्रभु मिलाप बना लेता है, उस हृदय में खुशी-ग़मी, जनम-मरण (के चक्करों का डर) का कोई असर नहीं होता।3।

करि किरपा जिसु आपि दिवाइआ ॥ साधसंगि तिनि हरि धनु पाइआ ॥ दइआल पुरख नानक अरदासि ॥ हरि मेरी वरतणि हरि मेरी रासि ॥४॥२४॥३५॥

पद्अर्थ: करि = कर के। जिसु = जिस मनुष्य को। साध संगि = गुरु की संगति में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। दइआल = हे दया के घर प्रभु! नानक अरदासि = नानक की प्रार्थना। वरतणि = हर वक्त इस्तेमाल की जाने वाली चीज़। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।

अर्थ: (पर, हे भाई! सिर्फ) उस मनुष्य ने गुरु की संगति में रह के वह नाम-धन पाया है जिसको प्रभु ने खुद किरपा करके ये धन दिलवाया है। हे दया के श्रोत अकाल-पुरख! (तेरे सेवक) नानक की भी यही आरजू है कि तेरा नाम मेरी संपत्ति बना रहे, तेरा नाम मेरी हर वक्त की इस्तेमाल वाली चीज़ बनी रहे।4।24।35।

रामकली महला ५ ॥ महिमा न जानहि बेद ॥ ब्रहमे नही जानहि भेद ॥ अवतार न जानहि अंतु ॥ परमेसरु पारब्रहम बेअंतु ॥१॥

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई। न जानहि = नहीं जानते (बहुवचन)। बेद = चारों वेद (बहुवचन)। ब्रहमे = अनेक ब्रहमा (बहुवचन)। भेद = (परमात्मा के) दिल की बात।1।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु कितना बड़ा है; ये बात) (चारों) वेद (भी) नहीं जानते। अनेक ब्रहमा भी (उसके) दिल की बात नहीं जानते। सारे अवतार भी उस (परमात्मा के गुणों) का अंत नहीं जानते। हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर बेअंत है।1।

अपनी गति आपि जानै ॥ सुणि सुणि अवर वखानै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गति = हालत। जानै = जानता है। सुणि = सुन के। अवर = औरों से। वखानै = (जगत) बयान करता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा कैसा है - ये बात वह खुद ही जानता है। (जीव) औरों से सुन-सुन के ही (परमात्मा के बारे में) वर्णन करता रहता है।1। रहाउ।

संकरा नही जानहि भेव ॥ खोजत हारे देव ॥ देवीआ नही जानै मरम ॥ सभ ऊपरि अलख पारब्रहम ॥२॥

पद्अर्थ: संकर = अनेक शिव। भेव = भेद। हारे = थक गए। जानै = जानते। मरम = भेद। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके।2।

अर्थ: (हे भाई!) अनेक शिव जी परमात्मा के दिल की बात नहीं जानते, अनेक देवते उसकी खोज करते-करते थक गए। देवियों में से भी कोई उसका भेद नहीं जानती। हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा है, उसके सही स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता।2।

अपनै रंगि करता केल ॥ आपि बिछोरै आपे मेल ॥ इकि भरमे इकि भगती लाए ॥ अपणा कीआ आपि जणाए ॥३॥

पद्अर्थ: अपनै रंगि = अपनी मौज में। करता = करता रहता है। केल = खेल, करिश्मे, तमाशे। बिछोरै = विछोड़ता है। आपे = आप ही। इकि = अनेक जीव। भरमे = भ्रम में ही। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। जणाए = सूझ देता है।3।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपनी मौज में (जगत के सारे) करिश्मे कर रहा है, प्रभु खुद ही (जीवों को अपने चरणों से) विछोड़ता है, खुद ही मिलाता है। अनेक जीवों को उसने भटकनों में डाला हुआ है, और अनेक जीवों को अपनी भक्ति में जोड़ा हुआ है। (ये जगत उसका) अपना ही पैदा किया हुआ है, (इसको वह) खुद ही सूझ बख्शता है।3।

संतन की सुणि साची साखी ॥ सो बोलहि जो पेखहि आखी ॥ नही लेपु तिसु पुंनि न पापि ॥ नानक का प्रभु आपे आपि ॥४॥२५॥३६॥

पद्अर्थ: साची साखी = सदा कायम रहने वाली बात। सो = वह कुछ। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पेखहि = देखते हैं। आखी = (अपनी) आँखों से। लेपु = प्रभाव, असर। पुंनि = पुण्य ने। पापि = पाप ने। आपे आपि = अपने जैसा स्वयं ही स्वयं।4।

अर्थ: (हे भाई!) संत-जनों के बारे में सच्ची बात सुन। संत जन वह कुछ कहते हैं जो वे अपनी आँखों से देखते हैं। (संतजन कहते हैं कि) उस परमात्मा पर ना किसी पून्य और ना ही किसी पाप ने (कभी अपना) कोई असर किया है। हे भाई! नानक का परमात्मा (अपने जैसा) स्वयं ही स्वयं है।4।25।36।

रामकली महला ५ ॥ किछहू काजु न कीओ जानि ॥ सुरति मति नाही किछु गिआनि ॥ जाप ताप सील नही धरम ॥ किछू न जानउ कैसा करम ॥१॥

पद्अर्थ: किछहू काजु = कोई भी (अच्छा) काम। कीओ = किया। जानि = जान के। गिआनि = ज्ञान चर्चा में। सुरति = ध्यान, लगन। सील = अच्छा स्वभाव। न जानउ = मैं नहीं जानता। करम = कर्मकांड।1।

अर्थ: हे प्रभु! मुझे कोई समझ नहीं कि कर्मकांड किस तरह के होते हैं; जपों तपों सील धर्म को भी मैं नहीं जानता। हे प्रभु! ज्ञान-चर्चा में भी मेरी तवज्जो मेरी मति नहीं टिकती। मैं इस तरह का कोई काम मिथ के नहीं करता।1।

ठाकुर प्रीतम प्रभ मेरे ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई भूलह चूकह प्रभ तेरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! भूलह = (यदि) हम भूलें करते हैं। चूकह = (अगर) हम चूक करते हैं। प्रभ = हे प्रभु!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे मेरे ठाकुर! यदि हम भूलें करते हैं, अगर हम (जीवन-राह में) चूकते हैं, तो भी हे प्रभु! हम तेरे ही हैं, तेरे बिना हमारा और कोई नहीं है।1। रहाउ।

रिधि न बुधि न सिधि प्रगासु ॥ बिखै बिआधि के गाव महि बासु ॥ करणहार मेरे प्रभ एक ॥ नाम तेरे की मन महि टेक ॥२॥

पद्अर्थ: रिधि = (Supernatural Power) करामाती ताकत जिससे मन-इच्छित पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। सिधि = करामाती ताकत। बुधि = ऊँची सूझ बूझ। बिखै = विषौ। बिआधि = (व्याधि) शारीरिक रोग। गाव महि = गाँव में (शब्द ‘गाउ’ से संबंधक के कारण ‘गाव’ बन गया है)। टेक = आसरा।2।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! करामाती ताकतों की सूझ-बूझ और रौशनी मेरे अंदर नहीं है। विकारों और रोगों के इस शरीर-पिंड में मेरा बसेरा है। हे मेरे विधाता! मेरे मन में सिर्फ तेरे नाम का सहारा है।2।

सुणि सुणि जीवउ मनि इहु बिस्रामु ॥ पाप खंडन प्रभ तेरो नामु ॥ तू अगनतु जीअ का दाता ॥ जिसहि जणावहि तिनि तू जाता ॥३॥

पद्अर्थ: जीवउ = मैं जीता हूँ। मनि = मन में। बिस्रामु = विश्राम, धरवास। पाप खंडन = पापों का नाश करने वाला। प्रभ = हे प्रभु! अगनतु = (अ+गनतु) लेखे से परे। जीअ का = जीवात्मा का। जिसहि = जिसको। जणावहि = तू समझ बख्शता है। तिनि = उस मनुष्य ने। तू = तुझे।3।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! मेरे मन में (सिर्फ) एक धरवास है कि तेरा नाम पापों का नाश करने वाला है; (तेरा नाम) सुन-सुन के ही मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। प्रभु! तेरी ताकतें गिनी नहीं जा सकतीं, तू ही जीवात्मा देने वाला है। जिस मनुष्य को तू समझ बख्शता है, उसने ही तेरे साथ जान-पहचान डाली है।3।

जो उपाइओ तिसु तेरी आस ॥ सगल अराधहि प्रभ गुणतास ॥ नानक दास तेरै कुरबाणु ॥ बेअंत साहिबु मेरा मिहरवाणु ॥४॥२६॥३७॥

पद्अर्थ: उपाइओ = (तूने) पैदा किया है। सगल = सारे जीव। अराधहि = आराधना करते हैं, याद करते हैं। गुणतास = गुणों का खजाना। तेरै = तुझसे। साहिबु = मालिक।4।

अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! सारे जीव तेरी ही आराधना करते हैं, जिस-जिस जीव को तूने पैदा किया है, उसको तेरी (सहायता की) ही आस है। तेरा दास नानक तुझसे बलिहार जाता है (और कहता है:) तू मेरा मालिक है, तू बेअंत है, तू सदा दया करने वाला है।4।26।37।

भाव: परमात्मा का नाम ही सारे पापों का नाश करने वाला है। कोई कर्म-धर्म, कोई ज्ञान-चर्चा, कोई रिद्धियाँ-सिद्धियाँ इसकी बराबरी नहीं कर सकती।

रामकली महला ५ ॥ राखनहार दइआल ॥ कोटि भव खंडे निमख खिआल ॥ सगल अराधहि जंत ॥ मिलीऐ प्रभ गुर मिलि मंत ॥१॥

पद्अर्थ: दइआल = दया का घर। कोटि = करोड़ों। भव = जनम, जन्मों के चक्कर। खंडे = नाश हो जाते हैं। निमख = (निमेष) आँख के झपकने जितना समय। खिआल = ध्यान। सगल जंत = सारे जीव। मिलिऐ प्रभ = प्रभु को मिल सकते हैं। गुर मिलि = गुरु को मिल के। गुर मंत = गुरु का उपदेश (ले के)।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ है, दया का श्रोत है। अगर आँख फरकने जितने समय के लिए भी उसका ध्यान धरें, तो करोड़ों जन्मों के चक्कर काटे जाते हैं। सारे जीव उसीकी आराधना करते हैं। हे भाई! गुरु को मिल के, गुरु का उपदेश ले के उस प्रभु को मिला जा सकता है।1।

जीअन को दाता मेरा प्रभु ॥ पूरन परमेसुर सुआमी घटि घटि राता मेरा प्रभु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। पूरन = सर्व व्यापक। सुआमी = मालिक। घटि घटि = हरेक शरीर में। राता = रमा हुआ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सब जीवों को दातें देने वाला है। वह मेरा मालिक परमेश्वर प्रभु सबमें व्यापक है, हरेक शरीर में रमा हुआ है।1। रहाउ।

ता की गही मन ओट ॥ बंधन ते होई छोट ॥ हिरदै जपि परमानंद ॥ मन माहि भए अनंद ॥२॥

पद्अर्थ: ता की = उस (प्रभु) की। गही = पकड़ी। मन = हे मन! ओट = आसरा। ते = से। छोट = मुक्ति। हिरदै = हृदय में। जपि = जप के। माहि = में।2।

अर्थ: हे मन! जिस व्यक्ति ने उस परमात्मा का आसरा ले लिया, (माया के मोह के) बंधनो से उसकी मुक्ति हो गई। सबसे ऊँचे सुख के मालिक प्रभु को हृदय में जप के मन में खुशियां ही खुशियां बन जाती हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh