श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 895 तारण तरण हरि सरण ॥ जीवन रूप हरि चरण ॥ संतन के प्राण अधार ॥ ऊचे ते ऊच अपार ॥३॥ पद्अर्थ: तरण = जहाज। प्राण अधार = जिंद का आसरा। ऊचे ते ऊच = ऊँचे से ऊँचा, सबसे ऊँचा। अपार = (अ+पार) जिसकी हस्ती का परला छोर ना मिल सके, बेअंत।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का आसरा (संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज़ है। प्रभु के चरणों की ओट आत्मिक जीवन देने वाली है। परमात्मा संत जनों की जिंद का आसरा है, वह सबसे ऊँचा और बेअंत है।3। सु मति सारु जितु हरि सिमरीजै ॥ करि किरपा जिसु आपे दीजै ॥ सूख सहज आनंद हरि नाउ ॥ नानक जपिआ गुर मिलि नाउ ॥४॥२७॥३८॥ पद्अर्थ: सारु = संभाल, ग्रहण कर। जितु = जिस (मति) के द्वारा। सिमरीजै = स्मरण किया जा सकता है। करि = कर के। सहज = आत्मिक अडोलता। नाउ = नाम।4। अर्थ: हे भाई! वह मति ग्रहण कर, जिससे परमात्मा का स्मरण किया जा सके, (पर वही मनुष्य ऐसी बुद्धि ग्रहण करता है) जिसको प्रभु कृपा करके खुद दे देता है। परमात्मा का नाम सुख आत्मिक अडोलता और आनंद (का श्रोत) है। हे नानक! (जिसने) यह नाम (जपा है) गुरु को मिल के ही जपा है।4।27।38। रामकली महला ५ ॥ सगल सिआनप छाडि ॥ करि सेवा सेवक साजि ॥ अपना आपु सगल मिटाइ ॥ मन चिंदे सेई फल पाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सगल सिआनप = सारी चतुराईयाँ, एसे विचार कि तू बड़ा समझदार है। सेवक साजि = सेवक की मर्यादा से, सेवक बन के। आपु = स्वै भाव। मन चिंदे = मन के चितवे हुए। पाइ = (पाय) पाता है।1। अर्थ: हे भाई! इस तरह के सारे ख्याल छोड़ दे कि (संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए) तू बड़ा समझदार है, सेवक वाली भावना से (गुरु के दर पर) सेवा किया कर। (जो मनुष्य गुरु के दर पर) अपना सारा स्वै भाव मिटा देता है, वही मन के चितवे हुए फल पा लेता है।1। होहु सावधान अपुने गुर सिउ ॥ आसा मनसा पूरन होवै पावहि सगल निधान गुर सिउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सावधान = (स+अवधान) अवधान सहित, ध्यान सहित। गुर सिउ = गुरु के साथ। मनसा = मन का फुरना। पावहि = तू प्राप्त करेगा। निधान = खजाना।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने गुरु के उपदेश की तरफ, पूरा ध्यान रखा कर, तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरा (हरेक) मन का फुरना पूरा हो जाएगा। अपने गुरु से तू सारे खजाने हासिल कर लेगा।1। रहाउ। दूजा नही जानै कोइ ॥ सतगुरु निरंजनु सोइ ॥ मानुख का करि रूपु न जानु ॥ मिली निमाने मानु ॥२॥ पद्अर्थ: जानै = जानता। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया रहित प्रभु को। न जानु = ना समझ। मिली = मिलता है। मानु = आदर।2। अर्थ: हे भाई! गुरु उस माया रहित निर्लिप प्रभु को ही (हर जगह) जानता है, प्रभु के बिना और किसी को (अलग हस्ती) नहीं जानता, (इस वास्ते गुरु को) निरा मनुष्य का रूप ही ना समझ। (गुरु के दर पर उसी मनुष्य को) आदर मिलता है जो (अपनी समझदारी का) अहंकार छोड़ देता है।2। गुर की हरि टेक टिकाइ ॥ अवर आसा सभ लाहि ॥ हरि का नामु मागु निधानु ॥ ता दरगह पावहि मानु ॥३॥ पद्अर्थ: टेक = आसरा। टेक टिकाइ = आसरा ले। लाहि = दूर कर के। मागु = मांग। निधानु = खजाना।3। अर्थ: हे भाई! प्रभु के रूप गुरु का ही ओट-आसरा पकड़, अन्य (आसरों की) सभी आशाएं (मन में से) दूर कर दे। (गुरु के दर से ही) परमात्मा का नाम खजाना मांगा कर, तब ही तू प्रभु की हजूरी में आदर-सत्कार प्राप्त करेगा।3। गुर का बचनु जपि मंतु ॥ एहा भगति सार ततु ॥ सतिगुर भए दइआल ॥ नानक दास निहाल ॥४॥२८॥३९॥ पद्अर्थ: मंतु = मंत्र, उपदेश। जपि = जपा कर। सार = श्रेष्ठ। ततु = अस्लियत। निहाल = प्रसन्न।4। अर्थ: हे भाई! गुरु का वचन, गुरु का शब्द-मंत्र (सदा) जपा कर, यही बढ़िया भक्ति है, यही है भक्ति की अस्लियत। हे नानक! जिस मनुष्यों पर सतिगुरु जी दयावान होते हैं, वह दास सदा निहाल अवस्था (चढ़दीकला) में रहते हैं।4।28।39। रामकली महला ५ ॥ होवै सोई भल मानु ॥ आपना तजि अभिमानु ॥ दिनु रैनि सदा गुन गाउ ॥ पूरन एही सुआउ ॥१॥ पद्अर्थ: होवै = जो कुछ प्रभु की रजा अनुसार हो रहा है। सोई = उसी को। भल = भला। मानु = मान। तजि = छोड़। रैनि = रात। गाउ = गाता रह। सुआउ = जीवन उद्देश्य। पूरन = पूर्ण, ठीक।1। अर्थ: हे भाई! जो कुछ प्रभु की रजा में हो रहा है उसी को भला मान, अपनी (समझदारी) का गुमान छोड़ दे। दिन-रात हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रह; बस! यही है ठीक जीवन का लक्ष्य।1। आनंद करि संत हरि जपि ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई गुर का जपि मंतु निरमल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संत हरि जपि = संत प्रभु का नाम जपता रह। मंतु = मंत्र, शब्द। निरमल = पवित्र।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! ये ख्याल छोड़ दे कि गुरु की अगुवाई के बिना संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए तू बहुत समझदार और चतुर है। गुरु का पवित्र शब्द-मंत्र जपा कर, (शांति के श्रोत) संत-हरि का नाम जपा कर और (इस तरह) आत्मिक आनंद (सदा) ले।1। रहाउ। एक की करि आस भीतरि ॥ निरमल जपि नामु हरि हरि ॥ गुर के चरन नमसकारि ॥ भवजलु उतरहि पारि ॥२॥ पद्अर्थ: भीतरि = अपने अंदर। नमसकारि = सिर झुकाया कर। भवजलु = संसार समुंदर।2। अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा की (सहायता की) आस अपने मन में टिकाए रख, परमात्मा का पवित्र नाम सदा जपता रह; गुरु के चरणों पर अपना सिर झुकाए रख, (इस तरह) तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।2। देवनहार दातार ॥ अंतु न पारावार ॥ जा कै घरि सरब निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥ पद्अर्थ: देवनहार = सब कुछ देने की ताकत वाला। पारावार = पार+अवार, परला उरला छोर। जा कै घरि = जिस (प्रभु) के घर में। सरब = सारे। निदान = आखिर को, जब और सारी आशाएं समाप्त हो जाएं।3। अर्थ: (हे भाई! ये याद रख कि) दातें देने वाला प्रभु (सब कुछ) देने के समर्थ है, उसका अंत नहीं पड़ सकता, उसका इस पार उस पार का छोर नहीं मिल सकता। हे भाई! जिस प्रभु के घर में सारे खजाने मौजूद हैं, वही आखिर रक्षा करने के योग्य है।3। नानक पाइआ एहु निधान ॥ हरे हरि निरमल नाम ॥ जो जपै तिस की गति होइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥४॥२९॥४०॥ पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। करमि = (प्रभु की) कृपा से।4। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा के पवित्र नाम का ये खजाना पा लिया, जो मनुष्य इस नाम को (सदा) जपता है उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है। पर, हे नानक! ये नाम-खजाना परमात्मा की मेहर से ही मिलता है।4।29।40। रामकली महला ५ ॥ दुलभ देह सवारि ॥ जाहि न दरगह हारि ॥ हलति पलति तुधु होइ वडिआई ॥ अंत की बेला लए छडाई ॥१॥ पद्अर्थ: दुलभ = दुर्लभ, जो मुश्किल से मिली है। देह = शरीर। सवारि = सवार ले, सफल कर ले। हारि = हार के। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। बेला = समय।1। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के गुण गा के) इस मानव शरीर को सफल कर ले जो बड़ी मुश्किल से मिलता है, (महिमा की इनायत से यहाँ से मानव जनम की बाजी) हार के दरगाह में नहीं जाएगा; तुझे इस लोक में और परलोक में शोभा मिलेगी। (परमात्मा की महिमा) तुझे आखिरी वक्त भी (माया के मोह के बंधनो से) छुड़ा लेगी।1। राम के गुन गाउ ॥ हलतु पलतु होहि दोवै सुहेले अचरज पुरखु धिआउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गाउ = गाता रह। हलतु = ये लोक। पलतु = परलोक। होहि = हो जाए। सुहेले = आसान। धिआउ = ध्यान धरा कर।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के गुण गाया कर, आश्चर्य-रूप अकाल-पुरख का ध्यान धरा कर, (इस तरह तेरा) ये लोक (और तेरा) परलोक दोनों सुखी हो जाएंगे।1। रहाउ। ऊठत बैठत हरि जापु ॥ बिनसै सगल संतापु ॥ बैरी सभि होवहि मीत ॥ निरमलु तेरा होवै चीत ॥२॥ पद्अर्थ: जापु = भजन कर। सगल = सारा। संतापु = दुख-कष्ट। सभि = सारे। चीत = चिक्त।2। अर्थ: (हे भाई!) उठते-बैठते (हर वक्त) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम की इनायत से) सारा दुख-कष्ट मिट जाता है। (नाम जपने से तेरे) सारे वैरी (तेरे) मित्र बन जाएंगे, तेरा अपना मन (वैर आदि से) पवित्र हो जाएगा।2। सभ ते ऊतम इहु करमु ॥ सगल धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि सिमरनि तेरा होइ उधारु ॥ जनम जनम का उतरै भारु ॥३॥ पद्अर्थ: ते = से। सिमरनि = स्मरण के द्वारा। उधारु = पार उतारा।3। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरणा ही) सारे कामों से अच्छा काम है, सारे धर्मों से यही बढ़िया धर्म है। हे भाई! परमात्मा का स्मरण करने से तेरा पार उतारा हो जाएगा। (नाम-जपने की इनायत से) अनेक जन्मों (के विकारों की मैल) का भार उतर जाता है।3। पूरन तेरी होवै आस ॥ जम की कटीऐ तेरी फास ॥ गुर का उपदेसु सुनीजै ॥ नानक सुखि सहजि समीजै ॥४॥३०॥४१॥ पद्अर्थ: कटीऐ = काटीजाती है। सुनीजै = सुनना चाहिए। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समीजै = टिक जाना है।4। अर्थ: (हे भाई! स्मरण करते हुए) तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरी जमों वाली फाँसी (भी) काटी जाएगी। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु का (ये नाम-स्मरण का) उपदेश (सदा) सुनना चाहिए, (इसकी इनायत से) आत्मिक सुख में आत्मिक अडोलता में टिका जाता है।4।30।41। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |