श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ जिस की तिस की करि मानु ॥ आपन लाहि गुमानु ॥ जिस का तू तिस का सभु कोइ ॥ तिसहि अराधि सदा सुखु होइ ॥१॥

पद्अर्थ: जिस की = जिसकी देह, जिसका दिया हुआ शरीर। करि = कर के, समझ के। मानु = मान ले, यकीन बना। गुमानु = अहंकार। लाहि = दूर कर। सभु कोइ = (सभ कोय), हरेक जीव। अराधि = याद करता रह।1।

नोट: ‘ तिस की, जिस की’ में से ‘तिसु’ और ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का दिया हुआ (ये शरीर आदि) है, उसीका ही मान। (ये शरीर आदि मेरा है मेरा है) अपना (ये अहंकार दूर कर)। हरेक जीव उसी प्रभु का ही बनाया हुआ है जिसका तू पैदा किया हुआ है। उस प्रभु का स्मरण करने से सदा आत्मिक सुख मिलता है।1।

काहे भ्रमि भ्रमहि बिगाने ॥ नाम बिना किछु कामि न आवै मेरा मेरा करि बहुतु पछुताने ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: काहे = क्यों? भ्रमि = भ्रम में, भुलेखे में। भ्रमहि = तू भटकता है। बिगाने = हे बेगाने बने हुए! परमात्मा से विछुड़े हुए हे जीव! कामि = काम में। पछुताने = पछताए हुए।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु से विछुड़े हुए जीव! क्यों (अपनत्व के) भुलेखे में पड़ कर भटक रहा है? परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज किसी के) काम नहीं आती। (ये) मेरा (शरीर है, यह) मेरा (धन है) - ऐसा कह कह के (अनेक ही जीव) बहुत पछताते हुए चले गए।1। रहाउ।

जो जो करै सोई मानि लेहु ॥ बिनु माने रलि होवहि खेह ॥ तिस का भाणा लागै मीठा ॥ गुर प्रसादि विरले मनि वूठा ॥२॥

पद्अर्थ: मानि लेहु = मान ले। रलि = मिल के। भाणा = रजा। प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। वूठा = बसा है।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जो कुछ करता है उसी को ठीक माना कर। (रजा को) माने बिना (मिट्टी में) मिल के मिट्टी हो जाएगा। हे भाई! जिस किसी बंदे को परमात्मा की रजा मीठी लगती है गुरु की किरपा से उसके मन में परमात्मा खुद आ के बसता है।2।

वेपरवाहु अगोचरु आपि ॥ आठ पहर मन ता कउ जापि ॥ जिसु चिति आए बिनसहि दुखा ॥ हलति पलति तेरा ऊजल मुखा ॥३॥

पद्अर्थ: वे परवाहु = बेमुथाज। अगोचरु = (अ+गो+चर। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ता कउ = उस (प्रभु) को। चिति = चिक्त में। चिति आए = चिक्त में बसा। जिसु चिति आए = जिस (प्रभु के हमारे) चिक्त में बसने से, अगर वह प्रभु हमारे चिक्त में आ बसे। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = साफ, बेदाग। मुखा = मुँह।3।

अर्थ: हे मन! जिस परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, जीव की ज्ञान-इन्द्रियों की जिस तक पहुँच नहीं हो सकती, हे मन! आठों पहर उसको जपा कर। अगर वह परमात्मा (तेरे) चिक्त में आ बसे, तो तेरे सारे दुख नाश हो जाएंगे, इस लोक में और परलोक में तेरा मुँह उज्जवल रहेगा।3।

कउन कउन उधरे गुन गाइ ॥ गनणु न जाई कीम न पाइ ॥ बूडत लोह साधसंगि तरै ॥ नानक जिसहि परापति करै ॥४॥३१॥४२॥

पद्अर्थ: उधरे = पार लांघ गए। गाइ = (गाय) गा के। गनणु न जाई = ये लेखा गिना नहीं जा सकता। कीम = (गुण गाने की) कीमत। बूडत = डूबता। लोह = लोहा, कठोर चिक्त व्यक्ति। साधसंगि = गुरु की संगति में। तरै = गाने का उद्यम करता है। जिसहि परापति = जिसको (ये दाति) मिलनी हो।4।

अर्थ: हे भाई! इस बात का लेखा नहीं किया जा सकता कि परमात्मा के गुण गा गा के कौन-कौन संसार-समुंदर से पार लांघ गए। परमात्मा के गुण गाने का मूल्य नहीं पड़ सकता। लोहे जैसा कठोर-चिक्त व्यक्ति भी गुरु की संगति में रह के पार लांघ जाता है। पर, हे नानक! (गुण गाने का उद्यम वही मनुष्य) करता है जिसको धुर से ही ये दाति प्राप्त हुई हो।4।31।42।

रामकली महला ५ ॥ मन माहि जापि भगवंतु ॥ गुरि पूरै इहु दीनो मंतु ॥ मिटे सगल भै त्रास ॥ पूरन होई आस ॥१॥

पद्अर्थ: जापि = जपा कर। भगवंत = भगवान (का नाम)। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। मंतु = उपदेश। भै = भय, डर भय। त्रास = डर, सहम।1।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य को) यह उपदेश दिया कि अपने मन में भगवान का नाम जपा कर, उस मनुष्य के सारे डर-सहम मिट जाते हैं, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है।1।

सफल सेवा गुरदेवा ॥ कीमति किछु कहणु न जाई साचे सचु अलख अभेवा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरदेवा = सबसे बड़ा देवता, प्रभु। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचे कीमति = सदा कायम रहने वाले की कीमत। अलख = जिसका स्वरूप सही बयान ना हो सके।1। रहाउ।

नोट: ‘जिस कउ’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! सबसे बड़े देवते प्रभु की सेवा-भक्ति (अवश्य) फलदायक है। वह प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उस सदा-स्थिर अलख और अभेव प्रभु का रक्ती भर भी मूल्य बताया नहीं जा सकता।1। रहाउ।

करन करावन आपि ॥ तिस कउ सदा मन जापि ॥ तिस की सेवा करि नीत ॥ सचु सहजु सुखु पावहि मीत ॥२॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! नीत = नित्य। सचु सुखु = अटल सुख। सहज = आत्मिक अडोलता। मीत = हे मित्र!।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जो प्रभु खुद सब कुछ करने-योग्य है और औरों से करवा सकता है, उसको सदा स्मरण किया कर। हे मित्र! उस प्रभु की सदा सेवा-भक्ति किया कर, तू अटल सुख पाएगा, तू आत्मिक अडोलता हासिल कर लेगा।2।

साहिबु मेरा अति भारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जन का राखा सोई ॥३॥

पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। अति भारा = गहुत गंभीर। थापि = पैदा कर के। उथापनहारा = नाश करने वाला। जन = दास, सेवक।3।

अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभु बहुत गंभीर है, एक छिन में पैदा करके नाश भी कर सकता है। वह प्रभु अपने सेवक का खुद ही रखवाला है, उसके बिना कोई और रक्षा करने वाला नहीं है।3।

करि किरपा अरदासि सुणीजै ॥ अपणे सेवक कउ दरसनु दीजै ॥ नानक जापी जपु जापु ॥ सभ ते ऊच जा का परतापु ॥४॥३२॥४३॥

पद्अर्थ: करि = कर के। सुणीजै = मेहर करके सुनो जी। कउ = को। दीजै = देओ जी। जापी = जपूँ। जा का = जिस (परमात्मा) का। परतापु = तेज, बल।4।

अर्थ: जिस परमात्मा का तेज-बल सबसे ऊँचा है (उसके दर पे) हे नानक! (अरदास कर और कह: हे प्रभु!) कृपा करके मेरी आरजू सुन, अपने सेवक को दर्शन दे, मैं (तेरा सेवक) सदा तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।4।32।43।

रामकली महला ५ ॥ बिरथा भरवासा लोक ॥ ठाकुर प्रभ तेरी टेक ॥ अवर छूटी सभ आस ॥ अचिंत ठाकुर भेटे गुणतास ॥१॥

पद्अर्थ: बिरथा = वृथा, व्यर्थ। भरवासा = भरोसा, सहायता की आशा। ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभु! टेक = सहारा। छूटी = खत्म हो गई। अचिंत = चिन्ता रहित। ठाकुर भेटे = ठाकुर को मिलने से। गुणतास = गुणों का खाजाना।1।

अर्थ: हे मन! दुनिया की मदद की आशा रखनी व्यर्थ है। हे मेरे ठाकुर! हे मेरे प्रभु! (मुझे तो) तेरा ही आसरा है। हे भाई! जो मनुष्य गुणों के खजाने चिन्ता-रहित मालिक प्रभु को मिल जाता है, (दुनिया से किसी मदद की) हरेक आशा (उसकी) समाप्त हो जाती है।1।

एको नामु धिआइ मन मेरे ॥ कारजु तेरा होवै पूरा हरि हरि हरि गुण गाइ मन मेरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! होवै पूरा = सफल हो जाएगा। कारजु = (स्मरण करने वाला ये) काम।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सिर्फ परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, सदा परमात्मा के गुण गाया कर। तेरा यह काम जरूर सफल हो जाएगा (भाव, अवश्य फलदायक होगा)।1। रहाउ।

तुम ही कारन करन ॥ चरन कमल हरि सरन ॥ मनि तनि हरि ओही धिआइआ ॥ आनंद हरि रूप दिखाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: कारन करन = करने का कारण, किए हुए (जगत) को बनाने वाला। हरि = हे हरि! मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आनंद हरि रूप = आनंद रूप हरि। दिखाइआ = (गुरु ने) दिखा दिया।2।

अर्थ: हे प्रभु! इस जगत-रचना को बनाने वाला तू ही है। (मैं तो सदा) तेरे सुंदर चरणों की शरण में रहता हूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में सिर्फ उस परमात्मा को ही स्मरण किया है, (गुरु ने) उसको आनंद-रूप प्रभु के दर्शन करवा दिए हैं।2।

तिस ही की ओट सदीव ॥ जा के कीने है जीव ॥ सिमरत हरि करत निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥

पद्अर्थ: सदीव = सदा ही। ओट = आसरा। जा के कीने = जिस (प्रभु) के बनाए हुए। हरि करत = हरि हरि करते हुए, हरि नाम स्मरण करते हुए। निधान = खजाने। निदान = समाधान, आखिर में।3।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा ही उसी प्रभु का आसरा लिए रख, जिसके पैदा किए हुए ये सारे जीव हैं। हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए (सारे) खजाने (मिल जाते हैं)। हे मन! (जब और सहारे खत्म हो जाएं, तो) अंत में परमात्मा ही रक्षा कर सकने वाला है।3।

सरब की रेण होवीजै ॥ आपु मिटाइ मिलीजै ॥ अनदिनु धिआईऐ नामु ॥ सफल नानक इहु कामु ॥४॥३३॥४४॥

पद्अर्थ: रेण = चरण धूल। होवीजै = हो जाना चाहिए। आपु = स्वै भाव, अहंकार। मिटाइ = मिटाय, मिटा के। मिलीजै = मिल सकते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। कामु = काम।4।

अर्थ: हे मेरे मन! सबके चरणों की धूल बने रहना चाहिए, (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके ही परमात्मा को मिला जा सकता है। हे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त स्मरणा चाहिए। हे नानक! (स्मरण करने का) ये काम अवश्य फल देता है।4।33।44।

रामकली महला ५ ॥ कारन करन करीम ॥ सरब प्रतिपाल रहीम ॥ अलह अलख अपार ॥ खुदि खुदाइ वड बेसुमार ॥१॥

पद्अर्थ: कारन = सबब, मूल। करन = किया हुआ जगत। कारन करन = जगत को पैदा करने वाला। करमु = बख्शिश। करीम = बख्शिश करने वाला। प्रतिपाल = पालना करने वाला। रहीम = रहम करने वाला। अलह = रब (प्रभु का मुसलमानी नाम)। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना हो सके। खुदि = खुद ही। खुदाइ = (खुदाय) मालिक। बेसुमार = गिणती मिणती से परे।1।

अर्थ: हे जगत के मूल! हे बख्शिश करने वाले! हे सब जीवों को पालने वाले! हे (सब पर) रहम करने वाले! हे अल्लाह! हे अलख! हे अपार! तू स्वयं ही सब का मालिक है, तू बड़ा बेअंत है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh