श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 897 ओुं नमो भगवंत गुसाई ॥ खालकु रवि रहिआ सरब ठाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओुं नमो = सर्व व्यापक को नमस्कार। नमो = नमस्कार। गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। खालकु = खलकत को पैदा करने वाला। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। सरब = सारे। ठाई = जगहों में।1। रहाउ। नोट: ‘ओुं नमो’: गुरवाणी मैं इस शब्द को ‘उ’ से बने हुए ‘ਓਂ’ अथवा ‘ओ’ से आरंभ किया गया है। इस प्रकार यहाँ ‘उ’ अक्षर को दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ लगा कर बनाया गया है। असल है ‘ओं’, यहाँ पढ़ना है ‘उं’ व ‘उम’। अर्थ: हे भगवान! हे धरती के पति! तुझे सर्व-व्यापक को नमस्कार है। तू (सारी) सृष्टि को पैदा करने वाला सब जगह मौजूद है।1। रहाउ। जगंनाथ जगजीवन माधो ॥ भउ भंजन रिद माहि अराधो ॥ रिखीकेस गोपाल गुोविंद ॥ पूरन सरबत्र मुकंद ॥२॥ पद्अर्थ: माधो = (मा+धव) माया का पति। अराधो = आराध, स्मरण करने योग्य। रिद = हृदय। रिखीकेस = इन्द्रियों का मालिक। सरबत्र = सब जगह, सर्वत्र। मुकंद = मुकती दाता।2। नोट: ‘गुोविंद’ में से अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ो’ और ‘ु’ हैं। असल शब्द ‘गोविंद’ है, यहाँ ‘गुविंद’ पढ़ना है। अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के जीवन! हे माया के पति! हे (जीवों का हरेक) डर नाश करने वाले! हे हृदय में आराधना के योग्य! हे इन्द्रियों के मालिक! हे गोपाल! हे गोविंद! हे मुक्ति दाते! तू सब जगह व्यापक है।2। मिहरवान मउला तूही एक ॥ पीर पैकांबर सेख ॥ दिला का मालकु करे हाकु ॥ कुरान कतेब ते पाकु ॥३॥ पद्अर्थ: मउला = (अरबी शब्द) निजात (मुक्ति) देने वाला। पैकांबर = पैग़ंबर (पैग़ाम+बर) ईश्वर का संदेश लाने वाला। सेख = शेख। हाकु = हक, न्याय, इन्साफ। करे हाकु = हको हक करता है, न्याय करता है। ते = से। पाकु = (भाव, अलग)।3। नोट: शब्द ‘हाकु’ पुलिंग एकवचन है। शब्द ‘हाक’ स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ है ‘आवाज़’। जैसे, ‘जरा हाक दी सभ मति थाकी ऐक न थाकसि माइआ’। अर्थ: हे मेहरवान! सिर्फ तू ही पीरों-पैगंबरों-शेखों (सबको) निजात देने वाला है। (हे भाई! वही मौला सबके) दिलों का मालिक है, (सबके दिल की जानने वाला वह सदा) न्याय करता है। वह मौला कुरान व अन्य पश्चिमी धार्मिक पुस्तकों के बताए हुए स्वरूप से अलग है।3। नाराइण नरहर दइआल ॥ रमत राम घट घट आधार ॥ बासुदेव बसत सभ ठाइ ॥ लीला किछु लखी न जाइ ॥४॥ पद्अर्थ: नाराइण = जल में निवास रखने वाला, विष्णु, परमात्मा। नरहर = नरसिंघ। रमत = सब मैं रमा हुआ। घट घट आधार = हरेक के हृदय का आसरा। बासुदेव = (श्री कृष्ण) परमात्मा। ठाइ = ठाय, जगह में। लीला = एक करिश्मा, खेल। लखी न जाइ = बयान नहीं हो सकती।4। अर्थ: हे भाई! वह दया का श्रोत परमात्मा स्वयं ही नारायण है स्वयं ही नरसिंह है। वह राम सबमें रमा हुआ है, हरेक हृदय का आसरा है। वही बासुदेव है जो सब जगह बस रहा है। उसका खेल बिल्कुल बयान नहीं की जा सकती।4। मिहर दइआ करि करनैहार ॥ भगति बंदगी देहि सिरजणहार ॥ कहु नानक गुरि खोए भरम ॥ एको अलहु पारब्रहम ॥५॥३४॥४५॥ पद्अर्थ: करनैहार = हे पैदा करने वाले! सिरजणहार = हे विधाता! नानक = हे नानक! गुरि = गुरु ने। खोए = नाश किए। भरम = भुलेखे।5। अर्थ: हे सब जीवों के रचनहार! हे विधाता! मेहर करके दया करके तू स्वयं ही जीवों को अपनी भक्ति देता है अपनी बँदगी देता है। हे नानक! कह: गुरु ने (जिस मनुष्य के) भुलेखे दूर कर दिए, उसको (मुसलमानों का) अल्लाह और (हिन्दुओं का) पारब्रहम एक ही दिखाई दे जाते हैं।5।34।45। रामकली महला ५ ॥ कोटि जनम के बिनसे पाप ॥ हरि हरि जपत नाही संताप ॥ गुर के चरन कमल मनि वसे ॥ महा बिकार तन ते सभि नसे ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़। जपत = जपते हुए। संताप = दुख-कष्ट। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। मानि = मन में। महा बिकार = बड़े बड़े ऐब। ते = से। सभि = सारे।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकते, (पिछले) करोड़ों जन्मों के किए हुए पाप भी नाश हो जाते हैं। हे प्राणी! जिस मनुष्य के मन में गुरु के सोहणे चरण आ बसते हैं, उसके शरीर के बड़े-बड़े विकार (भी) सारे नाश हो जाते हैं।1। गोपाल को जसु गाउ प्राणी ॥ अकथ कथा साची प्रभ पूरन जोती जोति समाणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। गाउ = गाया कर। प्राणी = हे प्राणी! अकथ = पूरे तौर पर ना बताई जा सकने वाली। साची = अटल, सदा टिकी रहने वाली। पूरन = सर्व व्यापक। जोति = रूह, जिंद, जीवात्मा। जोती = ज्योति रूप हरि में।1। रहाउ। अर्थ: हे प्राणी! सृष्टि के पालनहार प्रभु की महिमा के गीत गाया करो। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभु की अटल और कभी ना खत्म करने वाली महिमा करता रहता है, उसकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन रहती है।1। रहाउ। त्रिसना भूख सभ नासी ॥ संत प्रसादि जपिआ अबिनासी ॥ रैनि दिनसु प्रभ सेव कमानी ॥ हरि मिलणै की एह नीसानी ॥२॥ पद्अर्थ: त्रिसना = प्यास, लालच। सभ = सारी। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। रैनि = (रजनि), रात। सेव = सेवा भक्ति। नीसानी = लक्षण।2। अर्थ: हे प्राणी! गुरु-संत की कृपा से जिस मनुष्य ने नाश-रहित प्रभु का नाम जपा, उसके अंदर से (माया की) तृष्णा (माया की) भूख सब नाश हो जाती है (क्योंकि उस से प्रभु का मिलाप हो जाता है, और,) प्रभु के मिलाप का (बड़ा) लक्षण ये है कि वह दिन-रात (हर वक्त) प्रभु की सेवा-भक्ति करता रहता है।2। मिटे जंजाल होए प्रभ दइआल ॥ गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ परा पूरबला करमु बणि आइआ ॥ हरि के गुण नित रसना गाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: जंजाल = माया के मोह के बंधन। देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न, उच्च आत्मिक अवस्था वाले। परा पूरबला = बड़े ही पुराने, पहले जन्मों के। करमु = किया हुआ काम, भाग्य। बणि आइआ = फब गया। रसना = जीभ (से)।3। अर्थ: हे भाई! जिस पर प्रभु जी दयावान होते हैं, उनके माया के मोह के बंधन टूट जाते हैं; गुरु का दर्शन करके वह सदा चढ़दीकला में रहते हैं। उनके पूर्बले जन्मों का किया हुआ काम उनका मददगार बनता है (उनके किए हुए पूर्बले कर्मों के संस्कार जाग उठते हैं)। अपनी जीभ से वह सदा प्रभु के गुण गाते हैं।3। हरि के संत सदा परवाणु ॥ संत जना मसतकि नीसाणु ॥ दास की रेणु पाए जे कोइ ॥ नानक तिस की परम गति होइ ॥४॥३५॥४६॥ पद्अर्थ: संत = भक्ति करने वाले। परवाणु = स्वीकार। मसतकि = माथे पर। नीसाणु = निशान, परवानगी की चिन्ह। रेणु = चरण धूल (‘रेणु’ और ‘रैणि’ का फर्क स्मरणीय है)। कोइ = (कोय) कोई मनुष्य। परम = सबसे ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।4। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! प्रभु की भक्ति करने वाले बंदे (प्रभु की हजूरी में) सदा आदर-सत्कार पाते हैं। उन संत-जनों के माथे पर (नूर चमकता है, जो, मानो, प्रभु दर पर परवानगी का) चिन्ह है। हे नानक! ऐसे प्रभु-सेवक के चरणों की धूल अगर कोई मनुष्य प्राप्त कर ले, तो उसकी बहुत उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।34।46। रामकली महला ५ ॥ दरसन कउ जाईऐ कुरबानु ॥ चरन कमल हिरदै धरि धिआनु ॥ धूरि संतन की मसतकि लाइ ॥ जनम जनम की दुरमति मलु जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जाईऐ = जाना चाहिए। हिरदै = हृदय में। धरि = धर के। संत = गुरु के दर के सत्संगी। मसतकि = माथे पर। दुरमति = खोटी मति। जाइ = (जाए) दूर हो जाती है।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु के) सुंदर चरणों का ध्यान हृदय में धर के (गुरु के) दर्शन से सदके जाना चाहिए (दर्शनों की खातिर स्वै भाव कुर्बान कर देना चाहिए)। (हे भाई! गुरु के दर पर रहने वाले) संत-जनों की चरण-धूल माथे पर लगाया कर, (इस तरह) अनेक जन्मों की खोटी मति की मैल उतर जाती है।1। जिसु भेटत मिटै अभिमानु ॥ पारब्रहमु सभु नदरी आवै करि किरपा पूरन भगवान ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिसु भेटतु = जिस (गुरु) को मिल के। सभु = हर जगह। भगवान = हे भगवान!।1। रहाउ। अर्थ: हे सभ गुणों वाले भगवान! (मेरे पर) कृपा कर (मुझे वह गुरु मिला) जिस गुरु को मिलने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है, और पारब्रहम प्रभु हर जगह दिख जाता है।1। रहाउ। गुर की कीरति जपीऐ हरि नाउ ॥ गुर की भगति सदा गुण गाउ ॥ गुर की सुरति निकटि करि जानु ॥ गुर का सबदु सति करि मानु ॥२॥ पद्अर्थ: कीरति = शोभा। जपीऐ = जपना चाहिए। गाउ = गाते रहो। सुरति = ध्यान, लगन। निकटि = नजदीक। जानु = समझ। सति = सदा कायम रहने वाला, सच्चा। मानु = मान।2। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपना चाहिए- यही है गुरु की शोभा (करनी)। हे भाई! सदा प्रभु के गुण गाया कर- यही है गुरु की भक्ति। हे भाई! परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ- यही है गुरु के चरणों में ध्यान धरना। हे भाई! गुरु के शब्द को (सदा) सच्चा करके मान।2। गुर बचनी समसरि सुख दूख ॥ कदे न बिआपै त्रिसना भूख ॥ मनि संतोखु सबदि गुर राजे ॥ जपि गोबिंदु पड़दे सभि काजे ॥३॥ पद्अर्थ: समसरि = बराबर, एक सा। बचनी = वचन के द्वारा, वचन पर चल के। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। मनि = मन में। सबदि = शब्द से। राजे = तृप्त हो जाता है। सभि = सारे। काजे = ढक जाते हैं।3। अर्थ: हे भाई! गुरु के वचन के द्वारा (सारे) सुख-दुख एक समान प्रतीत होने लगते हैं, माया की तृष्णा माया की भूख कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। गुरु के शब्द के द्वारा मन में संतोख पैदा हो जाता है, (मन) तृप्त हो जाता है। परमात्मा का नाम जप के सारे पर्दे ढके जाते हैं (लोक-परलोक में इज्जत बन जाती है)।3। गुरु परमेसरु गुरु गोविंदु ॥ गुरु दाता दइआल बखसिंदु ॥ गुर चरनी जा का मनु लागा ॥ नानक दास तिसु पूरन भागा ॥४॥३६॥४७॥ पद्अर्थ: चरनी = चरणों में। जा का = जिस (मनुष्य) का। दास तिसु = उस दास के।4। अर्थ: हे भाई! गुरु परमात्मा (का रूप) है, गुरु गोबिंद (का रूप) है। गुरु दातार (प्रभु का रूप) है, गुरु दया के श्रोत बख्शणहार प्रभु (का रूप) है। हे नानक! जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में टिक जाता है, उस दास के पूरे भाग्य जाग उठते हैं।4।36।47। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |