श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ किसु भरवासै बिचरहि भवन ॥ मूड़ मुगध तेरा संगी कवन ॥ रामु संगी तिसु गति नही जानहि ॥ पंच बटवारे से मीत करि मानहि ॥१॥

पद्अर्थ: किसु भरवासै = (प्रभु के बिना और) किस के भरोसे? बिचरहि = विचरता है। भवन = जगत (में)। मूढ़ = हे मूर्ख! मुगध = हे मूरख! संगी = (असल) साथी। गति = हाल, अवस्था। नही जानहि = तू नहीं जानता। पंच = पाँच (कामादिक)। बटवारे = राहजन, डाकू। से = उनको। मानहि = तू मानता है।1।

अर्थ: हे मूर्ख! (प्रभु के बिना और) किस के सहारे तू जगत में चलता फिरता है हे मूर्ख! (प्रभु के बिना और) तेरा साथी कौन (बन सकता है)? हे मूर्ख! परमात्मा (ही तेरा असल) साथी है, उसके साथ तू जान-पहचान नहीं बनाता। (ये कामादिक) पाँच डाकू हैं, इनको तू अपने मित्र समझ रहा है।1।

सो घरु सेवि जितु उधरहि मीत ॥ गुण गोविंद रवीअहि दिनु राती साधसंगि करि मन की प्रीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सेवि = सेवा कर। जिसु = जिससे। उधरहि = (संसार समुंदर से) तू पार लांघ सके। मति = हे मित्र! रवीअहि = याद करने चाहिए। साध संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्र! उस दर-घर में बना रह, जिससे तू (संसार-समुंदर से) पार लांघ सके। हे भाई! गुरु की संगति में अपने मन का प्यार जोड़, (वहाँ टिक के) गोबिंद के गुण (सदा) दिन-रात गाने चाहिए।1। रहाउ।

जनमु बिहानो अहंकारि अरु वादि ॥ त्रिपति न आवै बिखिआ सादि ॥ भरमत भरमत महा दुखु पाइआ ॥ तरी न जाई दुतर माइआ ॥२॥

पद्अर्थ: जनम बिहानो = मानव जनम गुजरता जा रहा है। वादि = वाद विवाद में, झगड़े बखेड़े में। त्रिपति = तसल्ली, तृप्ति, अघेवां। बिखिआ = माया। सादि = स्वाद में। भरमत = भटकते हुए। दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है।2।

अर्थ: जीव की उम्र अहंकार और झगड़े-बखेड़े में गुजरती जाती है, माया के स्वाद में (इसकी कभी) तसल्ली नहीं होती (कभी तृप्त नहीं होता)। भटकते-भटकते इसने बड़ा कष्ट पाया है। माया (मानो, एक समुंदर है, इस) से पार लांघना बहुत मुश्किल है। (प्रभु के नाम के बिना) इससे पार नहीं लांघा जा सकता।2।

कामि न आवै सु कार कमावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ राखन कउ दूसर नही कोइ ॥ तउ निसतरै जउ किरपा होइ ॥३॥

पद्अर्थ: कामि = काम में। बीजि = बीज के। तउ = तब। निसतरै = पार लांघता है। जउ = जब।3।

अर्थ: जीव सदा वही काम करता रहता है जो (आखिर इसके) काम नहीं आती, (बुरे कामों के बीज) खुद बीज के (फिर) खुद ही (उनका दुख-फल) खाता है। (इस बिपता में से) बचाने-योग्य (परमात्मा के बिना) और कोई दूसरा नहीं है। जब (परमात्मा की) मेहर होती है, तब ही इसमें से पार लंघता है।3।

पतित पुनीत प्रभ तेरो नामु ॥ अपने दास कउ कीजै दानु ॥ करि किरपा प्रभ गति करि मेरी ॥ सरणि गही नानक प्रभ तेरी ॥४॥३७॥४८॥

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। प्रभ = हे प्रभु! कीजै = देह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गही = पकड़ी।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तेरा नाम विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला है, (मुझे) अपने सेवक को (अपना नाम-) दान दे। हे प्रभु! मैंने तेरा आसरा लिया है, मेहर कर, मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना।4।37।48।

रामकली महला ५ ॥ इह लोके सुखु पाइआ ॥ नही भेटत धरम राइआ ॥ हरि दरगह सोभावंत ॥ फुनि गरभि नाही बसंत ॥१॥

पद्अर्थ: इह लोके = इस लोक में, संसार में। भेटत = मिलते हुए। फुनि = दोबारा। गरभि = गर्भ में, जन्मों के चक्कर में। नाही बसंत = नहीं बसता, नहीं पड़ता।1।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की मित्रता प्राप्त होती है उसने) इस जगत में (आत्मिक) सुख भोगा, (परलोक में) उसका सामना धर्मराज से नहीं हुआ। वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में शोभा वाला बनता है, बार-बार जन्मों के चक्कर में (भी) नहीं पड़ता।1।

जानी संत की मित्राई ॥ करि किरपा दीनो हरि नामा पूरबि संजोगि मिलाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संत की = गुरु की। जानी = मैं इस तरह समझती हूँ। करि = कर के। दीनो = दिया। पूरबि संजोगि = पूर्बले संयोगों के द्वारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूर्बले संजोगों के कारण (तुझे गुरु की मित्रता) प्राप्त हुई है। (गुरु ने) कृपा करके (मुझे) परमात्मा का नाम दे दिया है। (सो अब) मैंने गुरु की कद्र समझ ली है।1। रहाउ।

गुर कै चरणि चितु लागा ॥ धंनि धंनि संजोगु सभागा ॥ संत की धूरि लागी मेरै माथे ॥ किलविख दुख सगले मेरे लाथे ॥२॥

पद्अर्थ: कै चरणि = के चरण में। धंनि = मुबारिक। संजोगु = मिलाप का अवसर। सभागा = भाग्यवाला। किलविख = पाप। सगले = सारे।2।

अर्थ: हे भाई! वह संजोग मुबारक थे, मुबारक थे, भाग्यशाली थे, जब गुरु के चरणों में, मेरा चिक्त जुड़ा था। हे भाई! गुरु की चरण-धूल मेरे माथे पर लगी, मेरे सारे पाप और दुख दूर हो गए।2।

साध की सचु टहल कमानी ॥ तब होए मन सुध परानी ॥ जन का सफल दरसु डीठा ॥ नामु प्रभू का घटि घटि वूठा ॥३॥

पद्अर्थ: सचु = निष्चय करके। परानी = हे प्राणी! सफल = फल देने वाला। दरसु = दर्शन। घटि = शरीर में। घटि घटि = हरेक शरीर में। वूठा = बसा हुआ।3।

अर्थ: हे प्राणी! (वैसे तो) परमात्मा का नाम हरेक हृदय में बस रहा है, पर जिसने गुरु के दर्शन कर लिए, उसको इस नाम-फल की प्राप्ती हुई। हे प्राणी! जब जीव श्रद्धा धार के गुरु की सेवा-टहल करते हैं, तब उनके मन पवित्र हो जाते हैं।3।

मिटाने सभि कलि कलेस ॥ जिस ते उपजे तिसु महि परवेस ॥ प्रगटे आनूप गुोविंद ॥ प्रभ पूरे नानक बखसिंद ॥४॥३८॥४९॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। जिस ते = जिस (प्रभु) से। परवेस = लीनता। आनूप = जिस जैसा और कोई नहीं (अन+ऊप), बेअंत सुंदर। बखसिंद = बख्शिशें करने वाला।4।

नोट: ‘जिस ते’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे नानक! (गुरु के मिलाप की इनायत से) सारे (मानसिक) झगड़े और दुख मिट जाते हैं। जिस प्रभु से जीव पैदा हुए हैं उसी में उनकी लीनता हो जाती है। वह बख्शनहार पूरन प्रभु सुंदर गोबिंद (हृदय में) प्रकट हो जाता है।4।38।49।

रामकली महला ५ ॥ गऊ कउ चारे सारदूलु ॥ कउडी का लख हूआ मूलु ॥ बकरी कउ हसती प्रतिपाले ॥ अपना प्रभु नदरि निहाले ॥१॥

पद्अर्थ: गऊ = गाय, ज्ञान-इंद्रिय। कउ = को। चारे = चराता है, वश में रखता है। सारदूलु = शेर, विकारों के भार के तले से निकल के बलवान हो चुका मन। मूलु = मूल्य, कीमत। बकरी = गरीबी स्वभाव। हसती = हाथी, जो मन पहले अहंकारी था। नदरि = मेहर की निगाह। निहाले = देखता है, देखता है।1।

अर्थ: (हे भाई! दुनियाँ के धन-पदार्थों के कारण मनुष्य का मन आम तौर पर अहंकार से हाथी बना रहता है, पर) जब प्यारा प्रभु मेहर की निगाह से देखता है तो (पहले अहंकारी) हाथी (मन) बकरी (वाले गरीबी स्वभाव) को (अपने अंदर) संभालता है। (प्रभु की कृपा से विकारों की मार से बच के) शेर (हो चुका मन) ज्ञान-न्द्रियों को अपने वश में रखने लग जाता है। (विकारों में फसा हुआ जीव पहले) कौड़ी (की तरह तुच्छ हस्ती वाला हो गया था, अब उस) का मूल्य (जैसे) लोखों रुपए हो गया।1।

क्रिपा निधान प्रीतम प्रभ मेरे ॥ बरनि न साकउ बहु गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निधान = खजाना। क्रिपा निधान = हे दया के खजाने! प्रभ = हे प्रभु! बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मैं (सारे) बयान नहीं कर सकता।1। रहाउ।

दीसत मासु न खाइ बिलाई ॥ महा कसाबि छुरी सटि पाई ॥ करणहार प्रभु हिरदै वूठा ॥ फाथी मछुली का जाला तूटा ॥२॥

पद्अर्थ: दीसत = (सामने) दिख रहा। बिलाई = बिल्ली, मन की तृष्णा। कसाबि = कसाब ने, कसाई ने, निर्दयी मन ने। सटि पाई = हाथों से फेंक दी है। करणहार प्रभू = सब तरह की समर्थता रखने वाला प्रभु। हिरदै = हृदय में। वूठा = आ बसा। फाथी = फसी हुई।2।

अर्थ: (हे भाई! जब अपना प्रभु मेहर की निगाह से देखता है तब) बिल्ली दिखाई दे रहे माँस को नहीं खाती (मायावी तृष्णा समाप्त हो जाती है, मन मायावी पदार्थों की तरफ़ नहीं देखता)। प्रभु (की कृपा से) बड़े कसाई (निर्दयी मन) ने अपने हाथों से छुरी फेंक दी (निर्दयता वाला स्वभाव त्याग दिया)। सब कुछ कर सकने वाला प्रभु जब (अपनी कृपा से जीव के) हृदय में आ बसा, तब (माया के मोह के जाल में) फसी हुई (जीव-) मछली का (माया के मोह का) जाल टूट गया।2।

सूके कासट हरे चलूल ॥ ऊचै थलि फूले कमल अनूप ॥ अगनि निवारी सतिगुर देव ॥ सेवकु अपनी लाइओ सेव ॥३॥

पद्अर्थ: कासट = काठ। हरे चलूल = चुह चुह करते हरे। ऊचै थलि = ऊँचे थल में।, अहंकार भरे मन में। अनूप = सुंदर, बेमिसाल। अगनि = आग, तृष्णा की आग। निवारि = दूर कर दी। सेव = सेवा।3।

अर्थ: (जब मेहर हुई तो) सूखे हुए काठ चुह-चुह करते हरे हो गए (मन का रूखापन दूर हो के जीव के अंदर दया पैदा हो गई), ऊँचे टिब्बे पर सुंदर कमल फूल खिल उठे (जिस अहंकार भरे मन पर पहले हरि-नाम की बरखा का कोई असर नहीं होता था, वह अब खिल उठा है)। प्यारे सतिगुरु ने तृष्णा की आग दूर कर दी, सेवक को अपनी सेवा में जोड़ लिया।3।

अकिरतघणा का करे उधारु ॥ प्रभु मेरा है सदा दइआरु ॥ संत जना का सदा सहाई ॥ चरन कमल नानक सरणाई ॥४॥३९॥५०॥

पद्अर्थ: अकिरतघण = किए हुए उपकार को भुलाने वाला, अकृतज्ञ, कृतघ्न। उधारु = पार उतारा, उद्धार। दइआरु = दयालु। सहाई = मददगार। नानक = हे नानक!

अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा दया का घर है, वह एहसान-फरामोशों (का भी) पार-उतारा करता है। हे नानक! प्रभु अपने संतों का सदा मददगार होता है, संत-जन सदा उसके सुंदर चरणों की शरण में पड़े रहते हैं।4।39।50।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh