श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ ईंधन ते बैसंतरु भागै ॥ माटी कउ जलु दह दिस तिआगै ॥ ऊपरि चरन तलै आकासु ॥ घट महि सिंधु कीओ परगासु ॥१॥

पद्अर्थ: ईधन ते = ईधन से, लकड़ी से। बैसंतरु = आग। कउ = को। दहदिस = दसों तरफ। ऊपरि = ऊपर की ओर। तलै = नीचे की तरफ। आकासु = ऊपर वाला हिस्सा, सिर। घट महि = घड़े में। सिंधु = समुंदर, बेअंत प्रभु।1।

अर्थ: (हे मन! देख उस प्रभु की आश्चर्यजनक ताकतें!) लकड़ी से आग परे भागती है (लकड़ी में आग हर वक्त मौजूद है, पर उसको जलाती नहीं)। (समुंदर का) पानी धरती को हर तरफ से त्यागे रहता है (धरती समुंदर में रहती है, पर समुंदर इसको डुबोता नहीं)। (वृक्ष के) पैर (जड़ें) ऊपर की ओर हैं, और सिर नीचे की तरफ है। घड़े में (छोटे-छोटे शरीरों में) समुंदर-प्रभु अपना आप प्रकाशित करता है।1।

ऐसा सम्रथु हरि जीउ आपि ॥ निमख न बिसरै जीअ भगतन कै आठ पहर मन ता कउ जापि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संम्रथु = समर्थता वाला, सभ ताकतों का मालिक। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। जीअ भगतन कै = भक्तों की जीवात्मा में से। मन = हे मन! ता कउ = उस (प्रभु) को। जापि = जपता रह।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! परमात्मा खुद बहुत सारी ताकतों का मालिक हैं वह परमात्मा अपने भक्तों के मन से आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं बिसरता। हे मन! तू भी उसको आठों पहर जपा कर।1। रहाउ।

प्रथमे माखनु पाछै दूधु ॥ मैलू कीनो साबुनु सूधु ॥ भै ते निरभउ डरता फिरै ॥ होंदी कउ अणहोंदी हिरै ॥२॥

पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। पाछै = पीछे। मैलू = मैल को, माता के लहू को। सूधु = शुद्ध, सफेद (दूध)। भै ते = डरों से। निरभउ = जीव जो असल में डर रहित प्रभु की अंश है। होंदी कउ = अस्तित्व वाली जीवात्मा को। अणहोंदी = जिसकी कोई (अलग) हस्ती नहीं। हिरै = चुरा लेती है, ठग लेती है।2।

अर्थ: (हे भाई! पहले दूध होता है, उस दूध को मथने से उस दूध का तत्व-मक्खन बाद में निकलता है। पर देख! सृष्टि का तत्व-) मक्खन परमात्मा पहले ही मौजूद है, ओर (उसका पसारा-जगत) दूध बाद में (बनता) है (जगत-पसारे रूप दूध में तत्व-प्रभु-मक्खन सर्व-व्यापक है)। (जीवों की पालना के लिए) मैल को (माँ के लहू को) शुद्ध साबन जैसा सफेद दूध बना देता है। निर्भय-प्रभु का अंश जीव दुनिया के अनेक डरों से डरता फिरता है, माया जीव को भगाए फिरती है।2।

देही गुपत बिदेही दीसै ॥ सगले साजि करत जगदीसै ॥ ठगणहार अणठगदा ठागै ॥ बिनु वखर फिरि फिरि उठि लागै ॥३॥

पद्अर्थ: देही = देह के मालिक, शरीर की मालिक आत्मा। बिदेही = जो आत्मा नहीं, शरीर। साजि = सजा के। जगदीसै = जगदीश ही, जगत का मालिक ही। ठगणहार = (सबको) ठगने वाली माया। अणठगदा = (परमात्मा की अंश जीव) जो ठगी नहीं जाना चाहिए। वखर = सौदा, नाम पूंजी। बिनु वखर = नाम की पूंजी से वंचित। फिरि फिरि = बार बार। उठि = उठ के। लागै = माया में फसता है, माया को चिपकता है।3।

अर्थ: हे भाई! शरीर की मालिक आत्मा (शरीर में) छुपी रहती है, सिर्फ शरीर दिखाई देता है। सारे जीवों को पैदा करके जगत का मालिक प्रभु (अनेक करिश्मे) करता रहता है। ठगनी-माया जीव को सदा ठगती रहती है। नाम की पूंजी से वंचित जीव बार-बार माया को चिपकता है।3।

संत सभा मिलि करहु बखिआण ॥ सिम्रिति सासत बेद पुराण ॥ ब्रहम बीचारु बीचारे कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥४॥४३॥५४॥

पद्अर्थ: बखिआण = विचार, व्याख्या। बीचारे कोइ = (बीचारे कोय) जो कोई बिचारता है। ता की = उस मनुष्य की। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) संत-सभा में मिल के स्मृतियों-शास्त्रों-वेद-पुराणों की व्याख्या करके (बेशक) देख लें (इस ठगने वाली माया से बचा नहीं जा सकता)। जो कोई मनुष्य सत्संग में परमात्मा के गुणों की विचार विचारता है उसी की ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था बनती है।4।43।54।

रामकली महला ५ ॥ जो तिसु भावै सो थीआ ॥ सदा सदा हरि की सरणाई प्रभ बिनु नाही आन बीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तिसु = उस (परमात्मा) को। भावै = अच्छा लगता है, पसंद आता है। थीआ = हो रहा है। आन = अन्य। बीआ = दूसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो कुछ प्रभु को अच्छा लगता है वही हो रहा है। (इस वास्ते) सदा ही उस प्रभु की शरण पड़ा रह। प्रभु के बिना कोई और दूसरा (कुछ करने के योग्य) नहीं है।1। रहाउ।

पुतु कलत्रु लखिमी दीसै इन महि किछू न संगि लीआ ॥ बिखै ठगउरी खाइ भुलाना माइआ मंदरु तिआगि गइआ ॥१॥

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। दीसै = (जो कुछ) दिखता है। किछू = कुछ भी। संगि = साथ। बिखै ठगउरी = विषयों भरी ठग-बूटी (धतूरा)। खाइ = (खाय) खा के। भुलाना = सही राह से भटकता रहता है। मंदरु = सुंदर घर।1।

अर्थ: हे भाई! पुत्र, स्त्री, माया - ये जो कुछ दिखाई दे रहा है, इनमें से कुछ भी (अंत के समय जीव) अपने साथ नहीं ले के जाता। विषौ-विकारों की ठग-बूटी खा के जीव गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, आखिर में ये माया, ये सुंदर घर (सब कुछ) छोड़ के चला जाता है।1।

निंदा करि करि बहुतु विगूता गरभ जोनि महि किरति पइआ ॥ पुरब कमाणे छोडहि नाही जमदूति ग्रासिओ महा भइआ ॥२॥

पद्अर्थ: करि करि = बार बार करके। विगूता = ख्वार होता है। किरति = किए अनुसार। पइआ = पड़ गया। पूरब कमाणे = पूर्बले जन्मों के किए काम। जमदूति = जम दूत ने। ग्रासिओ = काबू कर लिया। भइआ = भयानक।2।

अर्थ: हे भाई! जीव दूसरों की निंदा कर कर के बहुत ख्वार होता रहता है, और अपने इस किए अनुसार जनम-मरण के चक्कर में जा पड़ता है। (ये आम असूल की बात है कि) पूर्बले किए कर्मों के संस्कार जीव को छोड़ते नहीं हैं, और बहुत भयानक जमदूत इसे काबू में किए रखता है।2।

बोलै झूठु कमावै अवरा त्रिसन न बूझै बहुतु हइआ ॥ असाध रोगु उपजिआ संत दूखनि देह बिनासी महा खइआ ॥३॥

पद्अर्थ: अवरा = और ही। कमावै = कर्म करता है। हइआ = ‘है है’, हाय हाय (हाय माया हाय माया = ये आग लगी रहती है)। असाध = लाइलाज, जिसका इलाज ना हो सके। दूखनि = निंदा के कारण। देह = शरीर। खइआ = खई रोग, (क्षय रोग)।3।

अर्थ: (माया के मोह की ठग-बूटी खा के माया की खातिर जीव) झूठ बोलता है (मुँह से बोलता और है, और,) करता कुछ और है, इसकी माया की भूख मिटती नहीं, माया की ‘हाय हाय’ सदा इसको लगी रहती है। संत जनों की निंदा करने के कारण (माया की तृष्णा का) ला-इलाज रोग (जीव के अंदर) पैदा हो जाता है इस बड़े क्षय रोग में ही इसका शरीर नाश हो जाता है।3।

जिनहि निवाजे तिन ही साजे आपे कीने संत जइआ ॥ नानक दास कंठि लाइ राखे करि किरपा पारब्रहम मइआ ॥४॥४४॥५५॥

पद्अर्थ: जिनहि = जिस (प्रभु) ने। निवाजे = आदर सत्कार दिया है। तिन ही = (तिनि ही) उस (प्रभु) ने ही। साजे = पैदा किए हुए हैं। आपे = आप ही। जइआ = जयी, जीत के मालिक। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। करि = कर के। मइआ = दया।4।

अर्थ: (पर, हे भाई! संत जनों की निंदा से जीव को कुछ भी हासिल नहीं होता) प्रभु ने स्वयं ही संत जनों को जीत का मालिक बनाया होता है, उन्हें उसी प्रभु ने पैदा किया हुआ है जिसने उनको आदर-सम्मान दिया हुआ है। हे नानक! परमात्मा मेहर करके दया करके अपने दासों को खुद ही अपने गले से लगाए रखता है।4।44।55।

रामकली महला ५ ॥ ऐसा पूरा गुरदेउ सहाई ॥ जा का सिमरनु बिरथा न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरदेव = गुरु। सहाई = सहायता करने वाला, मददगार। जा का सिमरनु = जिसका दिया हुआ हरि स्मरण का उपदेश। बिरथा = व्यर्थ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु ऐसी मदद करने वाला है कि उसका दिया हुआ हरि-स्मरण का उपदेश व्यर्थ नहीं जाता।1। रहाउ।

दरसनु पेखत होइ निहालु ॥ जा की धूरि काटै जम जालु ॥ चरन कमल बसे मेरे मन के ॥ कारज सवारे सगले तन के ॥१॥

पद्अर्थ: पेखत = देखते हुए। निहालु = प्रसन्न। जम जालु = जम की फाही। मेरे = मेरे (ष्गुरू) ने। चरन कमल = सोहणे चरण। मन के तन के सगले कारज = (उस मनुष्य के) मन और शरीर के सारे काम।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु के) दर्शन करने से (मनुष्य तन से मन से) खिल उठता है, उस गुरु के चरणों की धूल जमों की फाँसी काट देती है। हे भाई! प्यारे गुरु के सुंदर चरण (जिस मनुष्य के हृदय में) आ बसते हैं, (उसके) मन के (उसके) शरीर के सारे काम (गुरु) सँवार देता है।1।

जा कै मसतकि राखै हाथु ॥ प्रभु मेरो अनाथ को नाथु ॥ पतित उधारणु क्रिपा निधानु ॥ सदा सदा जाईऐ कुरबानु ॥२॥

पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। अनाथ को नाथु = अनाथों का सहारा (मिल जाता है)। पतित उधारणु = विकारों में गिरे हुओं को बचाने वाला। निधानु = खजाना। कुरबानु = सदके। जाईऐ = जाना चाहिए।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (गुरु अपना) हाथ रखता है उसको मेरा वह प्रभु (मिल जाता है) जो निआसरों का आसरा है। हे भाई! गुरु विकारों में गिरे हुओं को विकारों से बचाने वाला है, गुरु कृपा का खजाना है। हे भाई! गुरु से सदा ही बलिहार जाना चाहिए।2।

निरमल मंतु देइ जिसु दानु ॥ तजहि बिकार बिनसै अभिमानु ॥ एकु धिआईऐ साध कै संगि ॥ पाप बिनासे नाम कै रंगि ॥३॥

पद्अर्थ: निरमल मंतु = पवित्र उपदेश। देइ = (देय) देता है। तजहि = छोड़ जाते हैं। बिनसै = नाश हो जाता है। साध कै संगि = गुरु की संगति में। कै रंगि = के रंग में, की मौज में।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु अपना पवित्र उपदेश बख्शता है, सारे विकार उसको छोड़ जाते हैं उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे भाई! गुरु की संगति में रह के एक परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। (गुरु के द्वारा) परमात्मा के प्रेम-रंग में रहने से सारे पापों का नाश हो जाता है।3।

गुर परमेसुर सगल निवास ॥ घटि घटि रवि रहिआ गुणतास ॥ दरसु देहि धारउ प्रभ आस ॥ नित नानकु चितवै सचु अरदासि ॥४॥४५॥५६॥

पद्अर्थ: सगल = सब जीवों में। घटि घटि = हरेक शरीर में। गुणतास = गुणों का खजाना। देहि = तू दे (शब्द ‘देइ’ और ‘देहि’ का अंतर समझना चाहिए)। धारउ = मैं धरता हूँ, मैं रखता हूँ। प्रभ = हे प्रभु! नानक चितवै = नानक याद करता रहे। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु-परमात्मा सब जीवों में बसता है, सारे गुणों का खजाना हरेक हृदय में मौजूद है। हे प्रभु! मुझे अपने दर्शन दे, मैं तेरे दर्शनों की आस रखे बैठा हूँ। यही मेरी अरदास है कि (तेरा सेवक) नानक सदा-स्थिर प्रभु को याद करता रहे।4।45।56।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh