श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 901

रागु रामकली महला ५ घरु २ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गावहु राम के गुण गीत ॥ नामु जपत परम सुखु पाईऐ आवा गउणु मिटै मेरे मीत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। परम = सबसे ऊँचा। पाईऐ = हासल करते हैं। आवागउणु = जगत में आने और जगत से जाने (का चक्कर), जनम मरण के चक्र। मीत = हे मित्र!।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा के गुणों के गीत (सदा) गाते रहो। परमात्मा का नाम जपने से सबसे श्रेष्ठ सुख हासिल कर लिया जाता है और जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।1। रहाउ।

गुण गावत होवत परगासु ॥ चरन कमल महि होइ निवासु ॥१॥

पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। परगासु = प्रकाश। महि = में। निवासु = टिकाव।1।

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के गुण गाते हुए (मन में सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, और परमात्मा के सुंदर चरणों में मन टिका रहता है।1।

संतसंगति महि होइ उधारु ॥ नानक भवजलु उतरसि पारि ॥२॥१॥५७॥

पद्अर्थ: संत संगति = गुरु की संगति। उधारु = उद्धार, पार उतारा। भवजलु = संसार समुंदर। उतरसि = तू पार हो जाएगा।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे मित्र!) गुरु की संगति में रहने से तेरा पार-उतारा हो जाएगा, तू संसार-समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।1।57।

रामकली महला ५ ॥ गुरु पूरा मेरा गुरु पूरा ॥ राम नामु जपि सदा सुहेले सगल बिनासे रोग कूरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पूरा = सारे गुणों का मालिक, सब ताकतों का मालिक। सुहेले = सुखी। सगल = सारे। रोग कूरा = झूठ का रोग, माया के मोह से पैदा हुए रोग।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु सब गुणों का मालिक है, मेरा गुरु पूरी सामर्थ्य वाला है। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जप के मनुष्य सदा सुखी रहते हैं, माया के मोह से पैदा होने वाले उनके सारे रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

एकु अराधहु साचा सोइ ॥ जा की सरनि सदा सुखु होइ ॥१॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। एकु सोइ = (एक सोय) सिर्फ उस परमात्मा को। जा की सरनि = जिस (प्रभु) का आसरा लेने से।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर पर आ के) सदा कायम रहने वाले उस एक परमात्मा की आराधना किया करो जिसकी शरण पड़ने से सदा आत्मिक आनंद मिलता है।1।

नीद सुहेली नाम की लागी भूख ॥ हरि सिमरत बिनसे सभ दूख ॥२॥

पद्अर्थ: नीद = (प्रभु के चरणों में) लीनता। सुहेली = सुखद। सिमरत = स्मरण करते हुए।2।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा के नाम की लगन पैदा हो जाती है, और नाम में लीनता मनुष्य के लिए सुखदाई हो जाती है। परमात्मा का नाम स्मरण करने से सारे दुखों का नाश हो जाता है।2।

सहजि अनंद करहु मेरे भाई ॥ गुरि पूरै सभ चिंत मिटाई ॥३॥

पद्अर्थ: सहिज = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। भाई = हे भाई! गुरि = गुरु ने। सभ = सारी।3।

अर्थ: हे मेरे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) पूरा गुरु उसकी सारी चिन्ता मिटा देता है, (तुम भी गुरु के द्वारा) आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक खुशियाँ प्राप्त करो।3।

आठ पहर प्रभ का जपु जापि ॥ नानक राखा होआ आपि ॥४॥२॥५८॥

पद्अर्थ: जापि = जपा करो। नानक = हे नानक! राखा = रखवाला।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर) आठों पहर प्रभु के नाम का जाप किया करो। (जो मनुष्य प्रभु का नाम जपता है प्रभु) खुद उसका रखवाला बनता है।4।2।58।

रागु रामकली महला ५ पड़ताल घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नरनरह नमसकारं ॥ जलन थलन बसुध गगन एक एकंकारं ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नरनरह = नरों में से श्रेष्ठ नर, परमात्मा। जलन = जलों में। थलन = थलों में। बसुध = धरती में। गगन = आकाश में। एकंकारं = सर्व व्यापक प्रभु।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा को नमस्कार करते रहो। वह एक सर्व-व्यापक परमात्मा जलों में मौजूद है, थलों में है, धरती में है, और आकाश में है।1। रहाउ।

हरन धरन पुन पुनह करन ॥ नह गिरह निरंहारं ॥१॥

पद्अर्थ: हरन = नाश करने वाला। धरन = पालने वाला। पुन पुनहु = बार बार। करन = पैदा करने वाला। गिरह = गृह, घर। निरंहारं = निर+आहारं, आहार के बिना।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सबका नाश करने वाला है, वही सबको पालने वाला है, वही जीवों को बार-बार पैदा करने वाला है। उसका कोई खास घर नहीं, उसे किसी आहार की आवश्यक्ता नहीं।1।

ग्मभीर धीर नाम हीर ऊच मूच अपारं ॥ करन केल गुण अमोल नानक बलिहारं ॥२॥१॥५९॥

पद्अर्थ: गंभीर = गहरा। धीर = धैर्यवान, बड़े जिगरे वाला। हीर = बहुमूल्य। मूच = बड़ा। करन केल = करिश्मे करने वाला। अमोल = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। बलिहारं = बलिहार, सदके, कुर्बान।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा (मानो) गहरा (समुंदर) है, बड़े जिगरे वाला है, उसका नाम बहुमूल्य है। वह परमात्मा सबसे ऊँचा है, सबसे बड़ा है, बेअंत है। वह सब करिश्मे करने वाला है, अमूल्य गुणों का मालिक है। हे नानक! उससे कुर्बान जाना चाहिए।2।1।59।

रामकली महला ५ ॥ रूप रंग सुगंध भोग तिआगि चले माइआ छले कनिक कामिनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तिआगि चले = छोड़ के चल पड़े। कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सोना-स्त्री आदि माया के ठगे हुए जीव (आखिर दुनिया के सारे) सुंदर रूप-रंग-सुगंधियों और भोग-पदार्थों को छोड़ के (यहाँ से) चल पड़ते हैं।1। रहाउ।

भंडार दरब अरब खरब पेखि लीला मनु सधारै ॥ नह संगि गामनी ॥१॥

पद्अर्थ: भंडार = खजाने। दरब = द्रव्य, धन। अरब खरब = अरबों खरबों की गिनती वाले, बेअंत। पेखि = देख के। लीला = खेल। मनु सधारै = मन ढाढस बनाता है। संगि = साथ। गामनी = जाता।1।

अर्थ: हे भाई! बेअंत धन और खजानों की मौज देख-देख के (मनुष्य का) मन (अपने अंदर) ढारस बनाता रहता है, (पर इनमें से कोई चीज इसके) साथ नहीं जाती।1।

सुत कलत्र भ्रात मीत उरझि परिओ भरमि मोहिओ इह बिरख छामनी ॥ चरन कमल सरन नानक सुखु संत भावनी ॥२॥२॥६०॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। कलत्र = स्त्री। भ्रात = भाई। मीत = मित्र। उरझि परिओ = उलझा पड़ा है, फसा पड़ा है। भरमि = भ्रम में, भुलेखे में। बिरख छामनी = वृक्ष की छाया। संत भावनी = संतो को अच्छा लगता है।2।

अर्थ: हे भाई! पुत्र, स्त्री, भाई, मित्र (आदि के मोह) में जीव फसा रहता है, भुलेखे के कारण मोह में ठगा जाता है; पर ये सब कुछ वृक्ष की छाया की (तरह) है। (इसलिए) हे नानक! परमात्मा के सुंदर चरणों की शरण का सुख ही संत-जनों को अच्छा लगता है।2।2।60।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु रामकली महला ९ तिपदे ॥

रे मन ओट लेहु हरि नामा ॥ जा कै सिमरनि दुरमति नासै पावहि पदु निरबाना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ओट = आसरा। जा कै सिमरनि = जिस हरि-नाम के स्मरण से। दुरमति = दुर्मति। निरबान पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती, वासना रहित अवस्था।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम का आसरा लिया कर, जिस नाम के स्मरण करने से खोटी मति नाश हो जाती है, (नाम की इनायत से) तू वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेगा जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।1। रहाउ।

बडभागी तिह जन कउ जानहु जो हरि के गुन गावै ॥ जनम जनम के पाप खोइ कै फुनि बैकुंठि सिधावै ॥१॥

पद्अर्थ: तिह जन कउ = उस मनुष्य को। जानहु = नाश करके। फुनि = दोबारा, फिर। बैकुंठि = बैकुंठ में। सिधावै = जा पहुँचता है।1।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है उसको बड़े भाग्यों वाला समझ। वह मनुष्य अनेक जन्मों के पाप दूर करके फिर बैकुंठ में जा पहुँचता है।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh