श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 902 अजामल कउ अंत काल महि नाराइन सुधि आई ॥ जां गति कउ जोगीसुर बाछत सो गति छिन महि पाई ॥२॥ पद्अर्थ: काल = समय। महि = में। नाराइन सुधि = परमात्मा की सूझ (पौराणिक कथा ये है कि पापी अजामल ने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा था। अंत के समय अपने पुत्र नारायण को याद करते करते उसको प्रभु नारायण की सूझ आ गई)। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। कउ = को। जोगीसुर = बड़े बड़े जोगी।2। अर्थ: (हे मेरे मन! देख, पुरानी प्रसिद्ध कथा है कि) आखिरी समय में (पापी) अजामल को परमात्मा के नाम की सूझ आ गई, उसने वह ऊँची आत्मिक अवस्था एक पल में हासिल कर ली, जिस आत्मिक अवस्था को बड़े-बड़े जोगी तरसते रहते हैं।2। नाहिन गुनु नाहिन कछु बिदिआ धरमु कउनु गजि कीना ॥ नानक बिरदु राम का देखहु अभै दानु तिह दीना ॥३॥१॥ पद्अर्थ: नाहिन = नहीं। गजि = हाथी ने। (भागवत अनुसार कथा: एक गंधर्व किसी ऋषि के श्राप से हाथी बन गया। इस हाथी को वरुण के तालाब में किसी तेंदुए ने पकड़ लिया। प्रभु के नाम की इनायत से वह बच निकला)। बिरदु = मुढ कदीमों का स्वभाव। अभै = निरभयता का। अभै दानु = निर्भयता की कृपा। तिह = उसको।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे मेरे मन! गज की कथा भी सुन। गज में) ना कोई गुण था, ना ही उसको कोई विद्या प्राप्त हुई थी। (उस विचारे) हाथी ने कौन सा धार्मिक कर्म करना था? पर देख परमात्मा का बिरद भरा स्वभाव, परमात्मा ने उस गज को निर्भयता की पदवी बख्श दी।3।1। रामकली महला ९ ॥ साधो कउन जुगति अब कीजै ॥ जा ते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! कउन जुगति = कौन सी तरतीब? कीजै = करनी चाहिए। जा ते = जिस (तरतीब) से। दुरमति सगल = सारी दुर्मति। भीजै = भीग जाए।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! अब (इस मनुष्य जनम में वह) कौन सी तरतीब अपनाई जाए, जिसके करने से (मनुष्य के अंदर की) सारी दुर्मति नाश हो जाए, और (मनुष्य का) मन परमात्मा की भक्ति में रच-मिच जाए?।1। रहाउ। मनु माइआ महि उरझि रहिओ है बूझै नह कछु गिआना ॥ कउनु नामु जगु जा कै सिमरै पावै पदु निरबाना ॥१॥ पद्अर्थ: महि = में। उरझि रहिओ है = फसा हुआ है, उलझा हुआ है। गिआना = समझदारी की बात। कउनु नामु = वह कौन सा नाम है? जा कै सिमरै = जिसके स्मरण करने से। पदु निरबान = वासना रहित दर्जा, वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया की वासना छू नहीं सकती।1। अर्थ: हे संत-जनो! (आम तौर पर मनुष्य का) मन माया (के मोह) में उलझा रहता है, मनुष्य रक्ती भर भी समझदारी की ये बात नहीं विचारता कि वह कौन सा नाम है जिसका स्मरण करने से जगत वासना-रहित आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1। भए दइआल क्रिपाल संत जन तब इह बात बताई ॥ सरब धरम मानो तिह कीए जिह प्रभ कीरति गाई ॥२॥ पद्अर्थ: दइआल = दयावान। बात = बातचीत। बताई = कही। मानो = ये मान लो कि। तिह = उस मनुष्य ने। जिह = जिस मनुष्य ने। प्रभ कीरति = प्रभु की महिमा (का गीत)।2। अर्थ: हे भाई! जब संत जन (किसी भाग्यशाली पर) दयावान होते हैं, कृपा करते हैं, तब वह (उस मनुष्य को) ये बात बताते हैं कि- जिस मनुष्य ने परमात्मा की महिमा का गीत गाना आरम्भ कर दिया, ऐसे समझ लें कि उसने सारे ही धार्मिक कर्म कर डाले।2। राम नामु नरु निसि बासुर महि निमख एक उरि धारै ॥ जम को त्रासु मिटै नानक तिह अपुनो जनमु सवारै ॥३॥२॥ पद्अर्थ: नरु = (जो) मनुष्य। निसि = रात। बासरु = दिन। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। उरि धारै = हृदय में टिकाता है। उरि = हृदय में। को = का। त्रासु = डर, सहम। तिह = उस (मनुष्य) का। सवारै = सफल कर लेता है।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो) मनुष्य दिन-रात में एक निमेष मात्र समय के लिए भी परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाता है, वह मनुष्य अपना (मानव) जन्म सफल कर लेता है, उस मनुष्य के दिल में से मौत का सहम दूर हो जाता है।3।2। रामकली महला ९ ॥ प्रानी नाराइन सुधि लेहि ॥ छिनु छिनु अउध घटै निसि बासुर ब्रिथा जातु है देह ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रानी = हे प्राणी! नाराइन सुधि = परमात्मा की याद। लेहि = (हृदय में) टिकाए रख। छिनु छिनु = एक-एक छिन करके। अउध = उम्र। निसि = रात। बासुर = दिन। ब्रिथा = व्यर्थ। देह = शरीर।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की याद हृदय में बसाए रख। (प्रभु की याद के बिना तेरा मनुष्य) शरीर व्यर्थ जा रहा है। दिन-रात एक-एक छिन करके तेरी उम्र घटती जा रही है।1। रहाउ। तरनापो बिखिअन सिउ खोइओ बालपनु अगिआना ॥ बिरधि भइओ अजहू नही समझै कउन कुमति उरझाना ॥१॥ पद्अर्थ: तरनापो = (तरुण = जवान) जवानी। बिखिअन सिउ = विषियों से। खोइओ = तूने गवा लिया। बालपनु = बाल उम्र। अगिआना = अज्ञानता। बिरधि = बुड्ढा। अजहू = अभी भी। कउन कुमति = कौन से कुमति में? उरझाना = उलझा हुआ है।1। अर्थ: (जीव का भी अजब दुर्भाग्य है कि इसने) जवानी (की उम्र) विषौ-विकारों में गवा ली, बाल-उम्र अंजान-पने में (गवा ली। अब) वृद्ध हो गया है, पर अभी भी नहीं समझता। (पता नहीं यह) किस कुमति में फसा पड़ा है।1। मानस जनमु दीओ जिह ठाकुरि सो तै किउ बिसराइओ ॥ मुकतु होत नर जा कै सिमरै निमख न ता कउ गाइओ ॥२॥ पद्अर्थ: मानव जनमु = मनुष्य जन्म। जिह ठाकुरि = जिस ठाकुर ने। तै = तू (हे प्राणी!)। मुकतु = माया के बंधनो से खलासी। नर = हे मनुष्य! जा कै सिमरै = जिसका स्मरण करने से। निमख = आँख झपकने जितना समय। ता कउ = उस (परमात्मा) को।2। अर्थ: हे प्राणी! जिस ठाकुर प्रभु ने (तुझे) मानव जनम दिया हुआ है, तू उसको क्यों भुला रहा है? हे नर! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से माया के बंधनो से निजात मिलती है तू एक निमख मात्र भी उस (की महिमा) को नहीं गाता।2। माइआ को मदु कहा करतु है संगि न काहू जाई ॥ नानकु कहतु चेति चिंतामनि होइ है अंति सहाई ॥३॥३॥८१॥ पद्अर्थ: को = का। मदु = नशा, गुमान। कहा = क्यों? काहू संगि = किसी के भी साथ। चेति = याद करता रह, स्मरण करता रह। चिंतामनि = परमात्मा, (वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी कर देती है। स्वर्ग में माना गया उत्तम पदार्थ)। अंति = आखिरी समय में। होइ है = होगा। सहाई = मददगार।3। अर्थ: हे प्राणी! तू क्यों माया का इतना गुमान कर रहा है? (ये तो) किसी के साथ भी (आखिर में) नहीं जाती। नानक कहता है: हे भाई! परमात्मा का स्मरण करता रह आखिर में वह तेरा मददगार होगा।3।3।81। नोट: अंक 81 का वेरवा:
रामकली महला १ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सोई चंदु चड़हि से तारे सोई दिनीअरु तपत रहै ॥ सा धरती सो पउणु झुलारे जुग जीअ खेले थाव कैसे ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वही। चढ़हि = चढ़ते हैं। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। सा = वही। झुलारे = झूलती है। जुग जीअ खेले = जुग (का प्रभाव) जीवों (के मन) में खेल रहा है। थाव कैसे = जगहों पर कैसे (खेल सकता है)?।1। नोट: सर्वनाम ‘सा’ स्त्रीलिंग है तथा ‘सो’ पुलिंग है। नोट: ‘थाव’ शब्द ‘थाउ’ का बहुवचन है। अर्थ: (जिस असल कलियुग का वर्णन हमने किया है उस) कलियुग का प्रभाव ही जीवों के मनों में (खेलें) खेलता है किसी विशेष जगहों पर नहीं खेल सकता (क्योंकि सतियुग त्रेता द्वापर आदि सारे ही समय में) वही चंद्रमा चढ़ता आया है, वही तारे चढ़ते आ रहे हैं, वही सूरज चमकता आ रहा है, वही धरती है और वही हवा झूलती आ रही है।1। जीवन तलब निवारि ॥ होवै परवाणा करहि धिङाणा कलि लखण वीचारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीवन तलब = जीवन की तलब, स्वार्थ। तलब = जरूरत, इच्छा। निवारि = दूर कर। होवै परवाणा = (न्याय) माना जाता है। धिङाणा = जोर, धक्का, जुल्म। लखण = लक्षण, निशानियाँ। वीचारि = समझ।1। रहाउ। अर्थ: (हे पण्डित! अपने मन में से) खुद-गर्जी दूर कर (यह स्वार्थ ही कलियुग है। इस खुद-गर्जी के असर तले शक्तिशाली लोग कमजोरों के ऊपर) धक्केशाही करते हैं और (उनकी नजरों में) ये जोर-जबरदस्ती जायज़ समझी जाती है। खुद-गर्जी और दूसरों पर जोर-ज़बर - हे पण्डित! इनको कलियुग के लक्षण समझ।1। रहाउ। कितै देसि न आइआ सुणीऐ तीरथ पासि न बैठा ॥ दाता दानु करे तह नाही महल उसारि न बैठा ॥२॥ पद्अर्थ: कितै देसि = किसी भी देश में। तह = वहाँ, उस जगह। उसारि = उसार के, बना के।2। अर्थ: किसी ने कभी नहीं सुना कि कलियुग किसी खास देश में आया हुआ है, किसी विशेष तीर्थ के पास बैठा हुआ है। जहाँ कोई दानी दान करता है वहाँ भी बैठा हुआ किसी ने सुना नहीं, किसी जगह कलियुग महल बना के नहीं बैठा हुआ।2। जे को सतु करे सो छीजै तप घरि तपु न होई ॥ जे को नाउ लए बदनावी कलि के लखण एई ॥३॥ पद्अर्थ: सतु = ऊँचा आचरन। छीजै = छिजता है, (लोगों की नजरों में) गिरता है। तप घरि = तप के घर में, जिसके घर में तप है, तपस्वी। नाउ = परमात्मा का नाम। एई = यही (हैं)।3। अर्थ: जो कोई मनुष्य अपना आचरण ऊँचा बनाता है तो वह (बल्कि लोगों की नजरों में) गिरता है, अगर कोई तपस्वी होने का दावा करता है तो उसकी इन्द्रियाँ उसके अपने वश में नहीं हैं, अगर कोई परमात्मा का नाम स्मरण करता है तो (लोगों में बल्कि उसकी) बदनामी होती है। (हे पण्डित! बुरा आचरण, इन्द्रियों का वश में ना होना, प्रभु के नाम से नफ़रत -) ये हैं कलियुग के लक्षण।3। जिसु सिकदारी तिसहि खुआरी चाकर केहे डरणा ॥ जा सिकदारै पवै जंजीरी ता चाकर हथहु मरणा ॥४॥ पद्अर्थ: सिकदारी = सरदारी, चौधर। खुआरी = जिल्लत, दुर्गति। केहे = किस लिए? सिकदारै = सिकदार को।4। अर्थ: (पर, ये खुद-गर्जी और कमजोरों पर जोर-ज़बरदस्ती सुखी जीवन का रास्ता नहीं) जिस मनुष्य को दूसरों पर सरदारी मिलती है (और वह कमजोरों पर धक्का करता है) उसकी ही (इस धक्के-जुल्म के कारण आखिर) दुर्गति होती है। नोकरों को (उस दुर्गति से कोई) खतरा नहीं होता। जब उस सरदार के गले में फंदा पड़ता है, तब वह उन नौकरों के हाथों से ही मरता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |