श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 903 आखु गुणा कलि आईऐ ॥ तिहु जुग केरा रहिआ तपावसु जे गुण देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आख गुणा = (परमात्मा के) गुण कह। कलि आईऐ = (अगर) कलियुग (भी) आया मान लिया जाए। केरा = का। तिहु जुग केरा = तीनों ही युगों का। रहिआ = रह गया है, समाप्त हो गया है। तपावसु = न्याय, प्रभाव। देहि = (हे प्रभु!) तू दे। त पाईऐ = तो (ये गुण ही) प्राप्त करने योग्य हैं।1। रहाउ। अर्थ: (हे पण्डित! तेरे कहने के मुताबिक अगर अब) कलियुग का समय ही आ गया है (तो भी तीर्थ-व्रत आदि कर्मकांड के रास्ते छोड़ के) परमात्मा की महिमा कर (क्योंकि तेरे धर्म-शस्त्रों के अनुसार कलियुग में महिमा ही स्वीकार है, और) पहले तीन युगों का प्रभाव अब समाप्त हो चुका है। (सो, हे पण्डित! परमात्मा के आगे ये अरदास कर- हे प्रभु! अगर कृपा करनी है तो अपने) गुणों की बख्शिश कर, यह ही प्राप्त करने योग्य है।1। रहाउ। कलि कलवाली सरा निबेड़ी काजी क्रिसना होआ ॥ बाणी ब्रहमा बेदु अथरबणु करणी कीरति लहिआ ॥५॥ पद्अर्थ: कलि = (यही) कलियुग (है)। कल वाली = कलह वाली, झगड़े बढ़ाने वाली। सरा = शरह, धार्मिक कानून। निबेड़ी = निबेंड़ा करने वाली, फैसला देने वाली, न्याय करने वाली। क्रिशना = काला, काले दिल वाला, रिश्वतखोर। करणी = ऊँचा आचरण। कीरति = परमात्मा की महिमा। लहिआ = (लोगों के मनों से) उतर गए हैं।5। अर्थ: (हे पण्डित!) कलियुग ये है (कि मुसलमानी हकूमत में जोर-जबरदस्ती के साथ) झगड़े बढ़ाने वाला इस्लामी कानून ही फैसले करने वाला बना हुआ है, और न्याय करने वाला काजी-हाकम रिश्वतखोर हो चुका है। (जादू-टूणों के प्रचारक) अथर्वेद ब्रहमा की वाणी प्रधान है। ऊँचा आचरण और महिमा लोगों के मनों से उतर चुके हैं; यही है कलियुग।5। पति विणु पूजा सत विणु संजमु जत विणु काहे जनेऊ ॥ नावहु धोवहु तिलकु चड़ावहु सुच विणु सोच न होई ॥६॥ पद्अर्थ: पूजा = देव पूजा, देवताओं की पूजा। पति = प्रभु पति। सत = ऊँचा आचरण। संजमु = इन्द्रियों को रोकने के यत्न। जत = काम-वासना को रोकना। काहे = क्या लाभ? व्यर्थं सुच = पवित्रता।6। अर्थ: पति-परमात्मा को बिसार के ये देव-पूजा किस काम की? किसी ऊँचे आचरण से वंचित रह के इस संयम का भी कया लाभ? यदि विकारों से रोकथाम नहीं तो ये जनेऊ भी क्या सँवारता है? (हे पण्डित!) तुम (तीर्थों पे) स्नान करते हो, (शरीर मल मल के) धोते हो, (माथे पर) तिलक लगाते हो (और इसको पवित्र कर्म समझते हो), पर पवित्र आचरण के बिना बाहरी पवित्रता के कोई मूल्य नहीं रह जाते। (दरअसल, ये भुलेखा भी कलियुग ही है)।6। कलि परवाणु कतेब कुराणु ॥ पोथी पंडित रहे पुराण ॥ नानक नाउ भइआ रहमाणु ॥ करि करता तू एको जाणु ॥७॥ पद्अर्थ: कलि = यह है कलियुग। परवाणु = (जो ‘धिङाणा करहि’, ‘जोर जबरदस्ती’ करते है उनके दबाव को) माने जा रहे हैं। रहे = रह गए हैं।7। अर्थ: (इस्लामी हकूमत के धक्के के जोर पर) शरई किताबों और कुरान को मंजूरी (वरीयता) दी जा रही है, पण्डितों के पुराण आदि पुस्तकें (बेमतलब बन के) रह गई हैं। हे नानक! (इस जोर-जबरदस्ती के चलते ही) परमात्मा का नाम ‘रहमान’ कहा जा रहा है; ये भी, हे पण्डित! कलियुग (के लक्षण) हैं (किसी के धार्मिक विश्वास को ज़बरन दबाना कलियुग का प्रभाव है)। हे पण्डित! हरि एक ही कर्तार को सब कुछ करने वाला समझ।7। नानक नामु मिलै वडिआई एदू उपरि करमु नही ॥ जे घरि होदै मंगणि जाईऐ फिरि ओलामा मिलै तही ॥८॥१॥ पद्अर्थ: एदू उपरि = इससे श्रेष्ठ। ओलामा = गिला, शर्मसारी। तही = वहाँ।8। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसको (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, नाम जपने से ज्यादा अच्छा और कोई कर्म नहीं है (पंडित तीर्थ व्रत आदि कर्मों को ही सलाहता रहता है)। (परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, उसका नाम भुला के ये समझ नहीं रहती और मनुष्य और-और ही आसरे तलाशता फिरता है) परमात्मा दातार हृदय-घर में हो, और भूला हुआ जीव बाहर देवी-देवताओं आदि से माँगता फिरे, ये दोष जीव के सिर पर ही आता है।8।1। रामकली महला १ ॥ जगु परबोधहि मड़ी बधावहि ॥ आसणु तिआगि काहे सचु पावहि ॥ ममता मोहु कामणि हितकारी ॥ ना अउधूती ना संसारी ॥१॥ पद्अर्थ: परबोधहि = तू जगाता है, तू उपदेश करता है (हे जोगी!)। मढ़ी = शरीर। बधावहि = (पाल पाल के) बढ़ाता है, मोटा करता है। आसणु = मन का आसन, चिक्त की अडोलता। काहे = कैसे? कामणि = स्त्री। हित कारी = प्रेम करने वाला। अउधूती = त्यागी। संसारी = गृहस्थी।1। अर्थ: (हे जोगी!) तू जगत को उपदेश करता है (इस उपदेश के बदले में घर-घर भिक्षा माँग के अपने) शरीर को (पाल-पाल के) मोटा कर रहा है। (दर-दर भटकने से) मन की अडोलता गवा के तू सदा अडोल परमात्मा को कैसे मिल सकता है? जिस मनुष्य को माया की ममता लगी हो माया का मोह चिपका हो जो स्त्री का भी प्रेमी हो वह ना त्यागी रहा ना गृहस्थी बना।1। जोगी बैसि रहहु दुबिधा दुखु भागै ॥ घरि घरि मागत लाज न लागै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जोगी = हे योगी! बैसि रहहु = बैठा रह, स्वै स्वरूप में टिका रह, मन को टिकाओ। दुबिधा = दुचिक्तापन, दूसरे आसरे की ताक। भागै = दूर हो जाए। लाज न लागै = शर्म ना उठानी पड़े।1। रहाउ। अर्थ: हे जोगी! अपने मन को प्रभु चरणों में जोड़ (इस तरह) अन्य आसरों को तलाशने की झाक का दुख दूर हो जाएगा। घर-घर (माँगने की) शर्म भी नहीं उठानी पड़ेगी।1। रहाउ। गावहि गीत न चीनहि आपु ॥ किउ लागी निवरै परतापु ॥ गुर कै सबदि रचै मन भाइ ॥ भिखिआ सहज वीचारी खाइ ॥२॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। न चीनहि = तू नहीं पहचानता। लागी = लगी हुई। निवरै = दूर हो। परतापु = तपश, तृष्णा आग। सबदि = शब्द में। मन भाइ = (मन भाय) मन के प्रेम से। सहज वीचारी = सहज का विचारवान हो के, अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के। भिखिआ = (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा। खाइ = (खाय) खाता है।2। (नोट: शब्द ‘खाहि’ व ‘खाय’ का फर्क याद रखने योग्य है) अर्थ: (हे जोगी! तू लोगों को सुनाने के लिए) भजन गाता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं देखता। (तेरे अंदर माया की) तपश लगी हुई है (लोगों को गीत सुनाने से) ये कैसे दूर हो? जो मनुष्य मन के प्यार से गुरु के शब्द में लीन होता है, वह अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा (ले के) खाता है।2। भसम चड़ाइ करहि पाखंडु ॥ माइआ मोहि सहहि जम डंडु ॥ फूटै खापरु भीख न भाइ ॥ बंधनि बाधिआ आवै जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: भसम = राख। चढ़ाइ = (चढ़ाय) चढ़ा के। सहहि = तू सहता है। डंडु = दण्ड, सजा। खापरु = खप्पर, हृदय। फूटै = टूट जाता है, अडोलता नहीं रह जाती। भीख = नाम की भिक्षा। भाइ = (प्रभु के) प्रेम से। बंधनि = बंधन में।3। अर्थ: (हे जोगी!) तू (अपने शरीर पर) राख मल के (त्यागी होने का,) पाखण्ड करता है (पर तेरे अंदर) माया का मोह (प्रबल) है। (अंतरात्मे) तू जम की सजा भुगत रहा है। जिस मनुष्य का हृदय-खप्पर टूट जाता है (भाव, माया के मोह के कारण जिसका हृदय अडोल नहीं रह जाता) उसमें (नाम की) भिक्षा नहीं ठहर सकती जो (प्रभु चरणों में जुड़ के) प्रेम के द्वारा ही मिलती है। ऐसा मनुष्य माया की जंजीर में बँधा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।3। बिंदु न राखहि जती कहावहि ॥ माई मागत त्रै लोभावहि ॥ निरदइआ नही जोति उजाला ॥ बूडत बूडे सरब जंजाला ॥४॥ पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। माई = माया। त्रै = (माया के) तीन गुणों में। लोभावहि = तू ग्रसा हुआ है। उजाला = प्रकाश। बूडत बूडे = डूबता डूब गया।4। अर्थ: हे जोगी! तू काम-वासना से अपने आप को नहीं बचाता, पर (फिर भी लोगों से) जती कहलवा रहा है। माया माँगते-माँगते तू (खुद) त्रैगुणी माया में फंस रहा है। जिस मनुष्य के अंदर कठोरता हो उसके हृदय में परमात्मा की ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता, (धीरे-धीरे) डूबता-डूबता वह (माया के) सारे जंजालों में डूब जाता है।4। भेख करहि खिंथा बहु थटूआ ॥ झूठो खेलु खेलै बहु नटूआ ॥ अंतरि अगनि चिंता बहु जारे ॥ विणु करमा कैसे उतरसि पारे ॥५॥ पद्अर्थ: खिंथा = गोदड़ी। बटूआ = थाट, बनावट। नटूआ = मदारी। अगनि = तृष्णा की आग। जारे = जलाती है। करमा = बख्शिश, मेहर। उतरसि = उतरेगा।5। अर्थ: (हे जोगी!) गुदड़ी आदिक का बहुत आडंबर रचा के तू (दिखावे के लिए) धार्मिक पहरावा कर रहा है, पर तेरा ये आडम्बर उस मदारी के तमाशे की तरह है जो (लोगों से पैसा कमाने के लिए) झूठा खेल ही खेलता है (भाव, जो कुछ वह दिखाता है वह दरअसल नज़र का धोखा ही होता है)। जिस मनुष्य को तृष्णा और चिन्ता की आग अंदर ही अंदर से जला रही हो, वह परमात्मा की मेहर के बिना (आग के इस शोले से) पार नहीं लांघ सकता।5। मुंद्रा फटक बनाई कानि ॥ मुकति नही बिदिआ बिगिआनि ॥ जिहवा इंद्री सादि लुोभाना ॥ पसू भए नही मिटै नीसाना ॥६॥ पद्अर्थ: फटक = कच्चा। कानि = कान में। गिआनि = ज्ञान में। बिगिआनि = ज्ञानहीनता में। बिदिआ = आत्मिक विद्या। बिदिआ बिगिआनी = आत्मिक विद्या की सूझ के बिना। सादि = स्वाद में, चस्के में। लुोभाना = फसा हुआ। नीसाना = निशान, लक्षण।6। नोट: अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं; ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘लोभाना’ है, यहाँ ‘लुभाना’ पढ़ना है। अर्थ: (हे जोगी!) तूने काँच की मुँद्राएं बनाई हुई हैं और हरेक कान में डाली हुई हैं, पर आत्मिक विद्या की सूझ के बिना (अंदर बसते) माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती। जो मनुष्य जीभ और इन्द्रियों के चस्के में फसा हुआ हो (वह देखने में तो मनुष्य है, पर असल में) पशू है, (बाहरी दिखावे के त्यागी भेस से) उसका ये पशू-वृति का (अंदरूनी स्वभाव) लक्षण मिट नहीं सकता।6। त्रिबिधि लोगा त्रिबिधि जोगा ॥ सबदु वीचारै चूकसि सोगा ॥ ऊजलु साचु सु सबदु होइ ॥ जोगी जुगति वीचारे सोइ ॥७॥ पद्अर्थ: त्रिबिधि = माया की तीन किस्मों में, तीन गुणों में। लोगा = साधारण जगत। जोगा = जोगी, जोगाधारी। सोगा = चिन्ता। ऊजलु होइ = पवित्र हो जाता है। जुगति = जीवन की युक्ति।7। अर्थ: (हे जोगी! खिंथा, मुंद्रों आदि से त्यागी नहीं बन जाते। शब्द के बिना जैसे) साधारण जगत त्रैगुणी माया में ग्रसा हुआ है वैसे ही (भेस धारण करने वाला) जोगी है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में बसाता है, (माया के मोह से पैदा होने वाली) उसकी चिन्ता मिट जाती है। वही मनुष्य पवित्र हो सकता है जिसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभु और उसकी महिमा का शब्द बसता है, वही असल जोगी है वही जीवन की जुगति को समझता है।7। तुझ पहि नउ निधि तू करणै जोगु ॥ थापि उथापे करे सु होगु ॥ जतु सतु संजमु सचु सुचीतु ॥ नानक जोगी त्रिभवण मीतु ॥८॥२॥ पद्अर्थ: पहि = पास। नउनिध = नो खजाने, नौ खजानों का मालिक प्रभु। उथापे = नाश करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सुचीतु = पवित्र हृदय वाला।8। अर्थ: (हे जोगी!) तू सब कुछ कर सकने में समर्थ परमात्मा को समझ, सारी दुनिया की माया का मालिक वह प्रभु तेरे अंदर बसता है। वह खुद ही जगत-रचना करके खुद ही नाश करता है, जगत में वही कुछ होता है जो वह प्रभु करता है। हे नानक! उसी जोगी के अंदर जत है, सत है, संजम है उसी का हृदय पवित्र है जिसके अंदर सदा-स्थिर प्रभु बसता है, वह जोगी तीन भवनों का मित्र है (उस जोगी को सारा जगत प्यार करता है)।8।2। रामकली महला १ ॥ खटु मटु देही मनु बैरागी ॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी ॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा ॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा ॥१॥ पद्अर्थ: खटु = छह (चक्र)। नोट: योग मत के अनुसार शरीर के छह चक्र हैं जिनमें से श्वास हो के दसवाँ द्वार तक पहुँचता है: 1. मूला धार (गुदा मण्डल का चक्र); 2. स्वाधिष्ठान (लिंग की जड़ में); 3. मणिपुर चक्र (नाभि के पास); 4. अनाहत (दिल में); 5. विसुद्ध चक्र (गले में); 6. आज्ञा चक्र (आँखों के भवरों के बीच)। मटु = (जोगियों का) मठ। देही = शरीर। धुनि = लगन। बाजै = बजता है। अनहदु = बिना बजाए, एक रस। सचि = सदा स्थिर हरि में।1। अर्थ: (हे जोगी! गुरु की शरण पड़ कर) मेरा छह-चक्रिय शरीर ही (मेरे लिए) मन बन गया है और (इस मन में टिक के) मेरा मन बैरागी हो गया है। गुरु का शब्द मेरे मन में टिक गया है, परमात्मा के नाम की लगन मेरे अंदर जाग उठी है। (मेरे अंदर) गुरु का शब्द एक-रस (अखण्ड निरंतर) प्रबल प्रभाव डाल रहा है, और उसमें मेरा मन मस्त हो रहा है। गुरु की वाणी की इनायत से (मेरा मन) सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ गया है।1। प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। नामि = नाम में।1। रहाउ। अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा की भक्ति करने से आत्मिक आनंद मिलता है। गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, और परमात्मा के नाम में लीन हो जाया जाता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |