श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 904 माइआ मोहु बिवरजि समाए ॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए ॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा ॥ तितु राता मेरा मनु धीरा ॥२॥ पद्अर्थ: बिवरजि = रोक के। भेटै = मिलता है। मेलि = संगति में। निरमोलकु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। तितु = उस (नाम) में। राता = रंगा हुआ। धीरा = टिक गया।2। अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु मिलता है गुरु उसको संगति से मिलाता है और वह माया का मोह रोक के प्रभु-नाम में लीन हो जाता है। परमात्मा का नाम (मानो, एक) रतन है (एक ऐसा) हीरा है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। (गुरु की शरण पड़ के) मेरा मन भी उस नाम में रंगा गया है उस नाम में टिक गया है।2। हउमै ममता रोगु न लागै ॥ राम भगति जम का भउ भागै ॥ जमु जंदारु न लागै मोहि ॥ निरमल नामु रिदै हरि सोहि ॥३॥ पद्अर्थ: जम = मौत। जंदारु = अवैड़ा, भयानक। मोहि = मुझे। सोहि = सोहे, शोभा देता है।3। अर्थ: (गुरु के द्वारा) परमात्मा की भक्ति करने से मौत का डर दूर हो जाता है, अहंकार-रोग, माया की ममता वाला रोग (मन को) नहीं चिपकता। (गुरु की कृपा से) भयानक जम भी मुझे नहीं छूता (क्योंकि) परमात्मा का पवित्र नाम मेरे हृदय में सुशोभित है।3। सबदु बीचारि भए निरंकारी ॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी ॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई ॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई ॥४॥ पद्अर्थ: बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में ला के। निरंकारी = निरंकार वाले। परहारी = दूर कर दी। अनदिनु = हर रोज। जागि = सचेत रह के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: गुरु के शब्द को सोच-मण्डल में टिका के परमात्मा के ही (सेवक) हो जाना है, मन में गुरु की शिक्षा प्रबल हो जाती है और दुर्मति दूर हो जाती है। जो मनुष्य प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ के हर वक्त (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हैं, वे अपने अंदर वह ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं जिससे (वे) माया में कार्य-व्यवहार करते हुए भी (उन्हें) माया के बंधनो से आजाद कर देती है।4। अलिपत गुफा महि रहहि निरारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए ॥ सहज निरंतरि रहउ समाए ॥५॥ पद्अर्थ: अलिपत = निर्लिप। निरारे = निराले, निर्मोह। तसकर = चोर। पंच = (कामादिक) पाँच। संघारे = मार दिए। रहउ = मैं रहता हूँ।5। अर्थ: (गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग) शरीर-गुफा के अंदर ही माया से निर्लिप रहते हैं माया के प्रभाव से अलग रहते हैं। गुरु के शब्द द्वारा वे कामादिक पाँच चोरों को मार लेते हैं। (गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करने वाला सख्श) अपने मन को पराए घर की ओर जा के डोलने नहीं देता। (गुरु की कृपा से ही स्मरण करके) मैं अडोल आत्मिक अवस्था मेंएक रस लीन रहता हूँ।5। गुरमुखि जागि रहे अउधूता ॥ सद बैरागी ततु परोता ॥ जगु सूता मरि आवै जाइ ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ ॥६॥ पद्अर्थ: अउधूता = त्यागी। ततु = जगत का मूल प्रभु। मरि = आत्मिक मौत मर के।6। अर्थ: असल त्यागी वही है जो गुरु की शरण पड़ कर (स्मरण के द्वारा माया के हमलों की ओर से) सचेत रहता है। जो मनुष्य जगत के मूल परमात्मा को अपने हृदय में परोए रखता है वह सदा ही (माया से) वैरागवान रहता है।6। अनहद सबदु वजै दिनु राती ॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती ॥ तउ जानी जा सबदि पछानी ॥ एको रवि रहिआ निरबानी ॥७॥ पद्अर्थ: अनहद = एक रस। वजै = बजता है, प्रभाव डाले रखता है। अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट प्रभु। तउ = तब। जा = जब। निरबानी = वासना रहित।7। अर्थ: जगत माया के मोह की नींद में (परमात्मा की याद की ओर से) सोया रहता है, और, आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। (माया की नींद में सोए हुए को) गुरु के शब्द के बिना ये समझ नहीं पड़ती।7। सुंन समाधि सहजि मनु राता ॥ तजि हउ लोभा एको जाता ॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ ॥८॥३॥ पद्अर्थ: सुंन समाधि = वह एकाग्र अवस्था जहाँ माया का कोई विचार ना चले, जहाँ मायावी विचार शून्य रहे। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। तजि = त्याग के। हउ = अहंकार। दूजा = प्रभु के बिना और झाक। मेटि = मिटा के।8। अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करता है उसका) मन उस एकाग्रता में टिका रहता है जहाँ माया के विचारों की शून्यता बनी रहती है (अफुर अवस्था, सुंन समाधि) और (मन) अडोल आत्मिक अवस्था (के रंग) में रंगा जाता है। अहंकार और लोभ को त्याग के वह मनुष्य एक परमात्मा के साथ ही गहरी सांझ डाले रखता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़े हुए सिख का अपना मन गुरु की शिक्षा में पतीज जाता है, वह परमात्मा के बिना और झाक मिटा के परमात्मा में ही लीन रहता है।8।3। रामकली महला १ ॥ साहा गणहि न करहि बीचारु ॥ साहे ऊपरि एकंकारु ॥ जिसु गुरु मिलै सोई बिधि जाणै ॥ गुरमति होइ त हुकमु पछाणै ॥१॥ पद्अर्थ: साहा = (सु+अहर) शुभ दिन, अच्छा महूरत। गणहि = गिनता है (हे पांडे!)। एकंकारु = परमात्मा। सोई = वही मनुष्य। बिधि = तरीका। त = तो।1। अर्थ: हे पण्डित! तू (विवाह आदि समय में जजमानों के लिए) शुभ-लगन गिनता है, पर तू ये विचार नहीं करता कि शुभ-समय बनाने, ना बनाने वाला परमात्मा (स्वयं ही) है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए वह जानता है (कि विवाह आदि का समय किस) ढंग (से शुभ बन सकता है)। जब मनुष्य को गुरु की शिक्षा प्राप्त हो जाए तब वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है (और रज़ा को समझना ही शुभ-महूरत का मूल है)।1। झूठु न बोलि पाडे सचु कहीऐ ॥ हउमै जाइ सबदि घरु लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पाडे = हे पण्डित! सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। घरु = आत्मिक आनंद का ठिकाना।1। रहाउ। अर्थ: हे पण्डित! (अपनी आजीविका की खातिर जजमानों को खुश करने के लिए विवाह आदि के समय में शुभ-महूरत आदि ढूँढने का) झूठ ना बोल। सच बोलना चाहिए। जब गुरु के शब्द में जुड़ के (अंदर ही) अहंकार दूर हो जाता है तब वह घर (सहज ही) मिल जाता है (जहाँ आत्मिक और सांसारिक सारे पदार्थ मिलते हैं)।1। रहाउ। गणि गणि जोतकु कांडी कीनी ॥ पड़ै सुणावै ततु न चीनी ॥ सभसै ऊपरि गुर सबदु बीचारु ॥ होर कथनी बदउ न सगली छारु ॥२॥ पद्अर्थ: गणि = गिन के। जोतकु = ज्योतिष। कांडी = जनम पत्री। सभसै ऊपरि = सारी विचारों से श्रेष्ठ। बदउ न = मैं नहीं मानता। छारु = राख।2। अर्थ: (पण्डित) ज्योतिष (के लेखे) गिन-गिन के (किसी जजमान के पुत्र की) जनम-पत्री बनाता है, (ज्योतिष का हिसाब खुद) पढ़ता है और (जजमान को) सुनाता है पर अस्लियत को नहीं पहचानता। (शुभ-महूरत आदि के) सारे विचारों से उत्तम श्रेष्ठ विचार ये है कि मनुष्य गुरु के शब्द को मन में बसाए। मैं (गुरु-शब्द के मुकाबले में शुभ-महूरत व जनम-पत्री आदि किसी) और बात की परवाह नहीं करता, और सारी विचारें व्यर्थ हैं।2। नावहि धोवहि पूजहि सैला ॥ बिनु हरि राते मैलो मैला ॥ गरबु निवारि मिलै प्रभु सारथि ॥ मुकति प्रान जपि हरि किरतारथि ॥३॥ पद्अर्थ: सैला = पत्थर, पत्थर की मूर्तियां। गरबु = अहंकार। सारथि = सारथी, रथवाह, जीवन रथ को चलाने वाला। किरतारथि = सफल करने वाला।3। अर्थ: (हे पण्डित!) तू (तीर्थ आदि पर) स्नान करता है (शरीर मल-मल के) धोता है, और पत्थर (के देवी-देवते) पूजता है, पर परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाए बिना (मन विकारों से) सदा मैला रहता है। (हे पण्डित!) जीवात्मा को विकारों से निजात दिलाने वाले और जीवन को सफल करने वाले परमात्मा का नाम जप, (नाम जप के) अहंकार दूर करने से (जीवन-रथ का) रथ-वाह (सारथी) प्रभु मिल जाता है।3। वाचै वादु न बेदु बीचारै ॥ आपि डुबै किउ पितरा तारै ॥ घटि घटि ब्रहमु चीनै जनु कोइ ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होइ ॥४॥ पद्अर्थ: वादु = झगड़ा, चर्चा। कोइ = कोई विरला।4। अर्थ: (पण्डित) वेद (आदिक धर्म-पुस्तकों) को (जीवन की अगुवाई के लिए) नहीं बिचारता, (अर्थ व कर्मकांड आदि की) बहस को ही पढ़ता है (इस तरह संसार-समुंदर की विकार-लहरों में डूबा रहता है), जो मनुष्य खुद डूबा रहे वह अपने (गुजर चुके) बुर्जुगों को (संसार-समुंदर में से) कैसे पार लंघा सकता है? कोई विरला मनुष्य ही पहचानता है कि परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाए, उसको ये (बात) समझ में आ जाती है।4। गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ ॥ गुर की सरणि पवै सुखु थीऐ ॥ करि अपराध सरणि हम आइआ ॥ गुर हरि भेटे पुरबि कमाइआ ॥५॥ पद्अर्थ: सहसा = सहम। जीऐ = जीवात्मा को। भेटे = मिले। पुरबि = पूर्बले समय में।5। अर्थ: जैसे जैसे शुभ-अशुभ-महूरतों के लेखे गिनते रहें वैसे-वैसे जीवात्मा को हमेशा सहम का रोग लगा रहता है। जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब इसको आत्मिक आनंद मिलता है। पाप-अपराध करके भी जब हम परमात्मा की शरण आते हैं, तो परमात्मा हमारे पूर्बले कर्मों के अनुसार गुरु को मिला देता है (और गुरु सही जीवन-राह दिखाता है)।5। गुर सरणि न आईऐ ब्रहमु न पाईऐ ॥ भरमि भुलाईऐ जनमि मरि आईऐ ॥ जम दरि बाधउ मरै बिकारु ॥ ना रिदै नामु न सबदु अचारु ॥६॥ पद्अर्थ: मरि = आत्मिक मौत मर के। दरि = दर पर। बाधउ = बंधा हुआ। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिकारु = व्यर्थ। अचारु = आचरण।6। अर्थ: जब तक गुरु की शरण ना आएं तब तक परमात्मा नहीं मिलता, भटकना में गलत रास्ते पड़ के आत्मिक मौत ले के बार-बार जनम में आते रहते हैं। (गुरु की शरण के बिना जीव) जम के दर से बँधा हुआ व्यर्थ ही आत्मिक मौत मरता है, उसके हृदय में ना प्रभु का नाम बसता है ना गुरु का शब्द बसता है, ना ही उसका अच्छा आचरण बनता है।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |