श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 905 इकि पाधे पंडित मिसर कहावहि ॥ दुबिधा राते महलु न पावहि ॥ जिसु गुर परसादी नामु अधारु ॥ कोटि मधे को जनु आपारु ॥७॥ पद्अर्थ: इकि = कई। मिसर = मिश्रा, ब्राहमण। आधारु = आसरा। को जनु = कोई विरला मनुष्य। आपारु = अद्वितीय।7। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: अनेक (कुलीन और विद्वान ब्राहमण) अपने आप को पांधे-पण्डित व मिश्र कहलवाते हैं, पर परमात्मा के बिना और ही आसरों की झाक में गलतान रहते हैं, परमात्मा दर-घर नहीं पा सकते। करोड़ों में से कोई ही वह व्यक्ति अद्वितीय है जिसको गुरु की कृपा से परमात्मा का नाम जिंदगी का आसरा मिल गया है।7। एकु बुरा भला सचु एकै ॥ बूझु गिआनी सतगुर की टेकै ॥ गुरमुखि विरली एको जाणिआ ॥ आवणु जाणा मेटि समाणिआ ॥८॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु। टेकै = टेक रख के, आसरा ले के। गिआनी = हे ज्ञानी! विरली = विरलों ने ही। मेटि = मिटा के।8। अर्थ: हे पण्डित! अगर तू ज्ञानवान बनता है तो गुरु का आसरा-परना ले के ये बात समझ ले कि (जगत में) चाहे कोई भला है चाहे बुरा है हरेक में सदा-स्थिर प्रभु ही मौजूद है। उन विरले लोगों ने हर जगह एक परमात्मा को ही व्यापक समझा है जो गुरु की शरण पड़े हैं। (गुरु-शरण की इनायत से) वे अपना जनम-मरण मिटा के प्रभु-चरणों में लीन रहते हैं।8। जिन कै हिरदै एकंकारु ॥ सरब गुणी साचा बीचारु ॥ गुर कै भाणै करम कमावै ॥ नानक साचे साचि समावै ॥९॥४॥ पद्अर्थ: सरब गुणी = सारे गुणों के मालिक। साचा = सदा स्थिर प्रभु। बीचारु = सोच मंडल का धुरा, तवज्जो का निशाना। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।9। अर्थ: (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्यों के हृदय में एक परमात्मा बसता है, सारे जीवों का मालिक सदा-स्थिर-प्रभु उनकी तवज्जो का हमेशा उद्देश्य बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की रज़ा में चल के (अपने) सारे काम करता है (और शुभ-अशुभ महूरतों के वहम में नहीं पड़ता) वह सदा-स्थिर-परमात्मा में लीन रहता है (और उसको आत्मिक व सांसारिक पदार्थ उस दर से मिलते रहते हैं)।9।4। रामकली महला १ ॥ हठु निग्रहु करि काइआ छीजै ॥ वरतु तपनु करि मनु नही भीजै ॥ राम नाम सरि अवरु न पूजै ॥१॥ पद्अर्थ: हठु = धक्का, जोर। हठु जोगु = जबरन शरीर को दुखी करके मन को एकाग्र करने के प्रयत्न (जैसे एक टांग के भार खड़े रहना, बाहें सीधी ऊपर को खड़ी रखना)। निग्रहु = मन के फुरनों को रोकने के प्रयत्न। छीजै = दुखी होता है। करि = कर के, करने से। सरि = बराबर। न पूजै = नहीं पहुँचता।1। अर्थ: व्रत रखने से, तप करने से, मन को एकाग्र करने के लिए जबरदस्ती शरीर को दुख देने से, मन के विचारों को जबरन रोकने के प्रयत्न करने से, शरीर ही दुखी होता है (इन कष्टों का) मन पर असर नहीं पड़ता। (हठ से किया हुआ) कोई भी कर्म परमात्मा के नाम-जपने की बराबरी नहीं कर सकता।1। गुरु सेवि मना हरि जन संगु कीजै ॥ जमु जंदारु जोहि नही साकै सरपनि डसि न सकै हरि का रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि जन संगु = संत जनों की संगति। जंदारु = डरावना। जोहि नही साकै = छू नहीं सकता। सरपनि = माया सपनी।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु की (बताई हुई) सेवा कर, और संत जनों की संगति कर, परमात्मा के नाम का रस पी, (इस तरह) भयानक जम छू नहीं सकेगा और माया-सपनी (मोह का) डंक मार नहीं सकेगी।1। रहाउ। वादु पड़ै रागी जगु भीजै ॥ त्रै गुण बिखिआ जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु दूखु सहीजै ॥२॥ पद्अर्थ: वादु = धार्मिक चर्चा। रागी = रागों में, रंग तमाशों में। भीजै = खुश रहता है। बिखिआ = माया।2। अर्थ: जगत धार्मिक चर्चा (की पुस्तकें) पढ़ता है, दुनिया के रंग-तमाशों में ही खुश रहता है और त्रै-गुणी माया के मोह में फंस के जनम मरन के चक्कर में पड़ता है (और इस चर्चा आदि को धार्मिक कर्म समझता है)। परमात्मा का नाम स्मरण के बिना दुख ही सहना पड़ता है।2। चाड़सि पवनु सिंघासनु भीजै ॥ निउली करम खटु करम करीजै ॥ राम नाम बिनु बिरथा सासु लीजै ॥३॥ पद्अर्थ: पवनु = सांस। भीजै = (पसीने से) भीग जाता है। निउली करम = आँतों को चक्कर दिलाने का कर्म जिससे पेट साफ रहता है। खटु करम = हठ योग के छह कर्म-धोती, नेत्री, निउली, वसती, त्राटक, कपालभाती। धोती = कपड़े की लीर निगल के मेदे में ले जा के फिर बाहर निकाल लेनी। नेत्री = सूत्र की डोरी नाक की नासिका के रास्ते से डाल के गले में से निकालनी। वसती = बाँस की नर्म सी पोरी गुदा में रख के श्वासों के जोर से पोरी में से पानी चढ़ा के आँतें साफ करनी। त्राटक = आँखों की नजर किसी वस्तु पर टिकानी। कपालभाति = लोहार की धौंकनी की तरह सांसे जल्दी जल्दी अंदर बाहर खींचना। बिरथा = व्यर्थ।3। अर्थ: हठ-योगी सांसों को (दसवाँ-द्वार में) चढ़ाता है (इतनी मेहनत करता है कि पसीने से उसका) सिंहासन ही भीग जाता है, (आंतों को साफ रखने के लिए) निउली कर्म और (हठ योग के) छह कर्म करता है, पर परमात्मा का नाम-स्मरण के बिना व्यर्थ जीवन जीता है।3। अंतरि पंच अगनि किउ धीरजु धीजै ॥ अंतरि चोरु किउ सादु लहीजै ॥ गुरमुखि होइ काइआ गड़ु लीजै ॥४॥ पद्अर्थ: पंच अगनि = कामादिक पाँच विकारों की तपश। धीजै = धारी जाए। सादु = स्वाद, आनंद, सुख। काइआ = शरीर। गढ़ु = गढ़, किला। लीजै = काबू करना चाहिए।4। अर्थ: जब तक कामादिक पाँच विकारों की आग अंदर भड़क रही हो, तब तक मन धीरज नहीं धारण कर सकता। जब तक मोह-चोर अंदर बस रहा है आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। गुरु की शरण पड़ के इस शरीर किले को जीतो (इससे बागी हुआ मन वश में आ जाएगा और आत्मिक आनंद मिलेगा)।4। अंतरि मैलु तीरथ भरमीजै ॥ मनु नही सूचा किआ सोच करीजै ॥ किरतु पइआ दोसु का कउ दीजै ॥५॥ पद्अर्थ: भरमीजै = भटकते फिरें। सोच = स्नान। सूचा = पवित्र। किरतु पइआ = किए हुए कर्मों के संस्कार मन में इकट्ठे हो जाने पर। का कउ = किस को?।5। अर्थ: अगर मन में (माया के मोह की) मैल टिकी रहे, तीर्थों पर (स्नान के लिए) भटकते फिरें, इस तरह मन पवित्र नहीं हो सकता (तीर्थ-) स्नान का कोई लाभ नहीं होता। (पर) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का संचय (गलत रास्ते की ओर को ही प्रेरणा देता रहता है, इसलिए) किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।5। अंनु न खाहि देही दुखु दीजै ॥ बिनु गुर गिआन त्रिपति नही थीजै ॥ मनमुखि जनमै जनमि मरीजै ॥६॥ पद्अर्थ: देही = शरीर (को)। थीजै = होती।6। अर्थ: जो लोग अन्न नहीं खाते (इस तरह कोई आत्मिक लाभ भी नहीं कमाते) शरीर को ही कष्ट मिलता है, गुरु को मिले ज्ञान के बिना (माया की ओर से विकारों की) तृप्ति नहीं हो सकती। इस तरह अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है (उसका ये चक्र चलता रहता है)।6। सतिगुर पूछि संगति जन कीजै ॥ मनु हरि राचै नही जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु किआ करमु कीजै ॥७॥ पद्अर्थ: संगति जन = संत जनों की संगति। राचै = रच जाता है, लीन हो जाता है।7। अर्थ: हे भाई! गुरु का उपदेश ले के संत जनों की संगति करनी चाहिए। (संगति में रहने से) मन परमात्मा के नाम में लीन रहता है, और इस तरह जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता। (अगर) परमात्मा का नाम ना स्मरण किया, तो किसी और हठ-कर्म करने का कोई लाभ नहीं होता।7। ऊंदर दूंदर पासि धरीजै ॥ धुर की सेवा रामु रवीजै ॥ नानक नामु मिलै किरपा प्रभ कीजै ॥८॥५॥ पद्अर्थ: ऊंदर = चूहा। दूंदर = (द्वंद्व) शोर। पासि = एक तरफ, अलग। रवीजै = स्मरणा चाहिए।8। अर्थ: चूहे की तरह से अंदर-अंदर से शोर मचाने वाले मन के संकल्प-विकल्प अंदर से निकाल देने चाहिए, परमात्मा के नाम का स्मरण करना चाहिए, यही है धुर से मिली सेवा (जो मनुष्य ने करनी है)। हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर-) हे प्रभु! मेहर कर, मुझे तेरे नाम की दाति मिले।8।5। रामकली महला १ ॥ अंतरि उतभुजु अवरु न कोई ॥ जो कहीऐ सो प्रभ ते होई ॥ जुगह जुगंतरि साहिबु सचु सोई ॥ उतपति परलउ अवरु न कोई ॥१॥ पद्अर्थ: अंतरि = परमात्मा के ही अंदर। उतभुज = (सृष्टि की) उत्पक्ति। जो कहीऐ = जिस भी चीज का नाम लिया जाए। ते = से। जुगह जुगंतरि = जुगों जुगों के अंदर। सचु = सदा स्थिर। परलउ = परलय, नाश।1। अर्थ: (वह परमात्मा ऐसा है कि) सृष्टि की उत्पक्ति (की ताकत) उसके अपने अंदर ही है (उत्पक्ति करने वाला) और कोई भी नहीं है। जिस भी चीज का नाम लिया जाए वह परमात्मा से ही पैदा हुई है। वही मालिक युगों-युगों में सदा-स्थिर चला आ रहा है। जगत की उत्पक्ति और जगत का नाश करने वाला (उसके बिना) कोई और नहीं है।1। ऐसा मेरा ठाकुरु गहिर ग्मभीरु ॥ जिनि जपिआ तिन ही सुखु पाइआ हरि कै नामि न लगै जम तीरु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गहिर = गहरा, जिसका भेद न पाया जा सके। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। जिनि = जिस (भी मनुष्य) ने। नामि = नाम से। जम तीरु = जम का तीर।1। रहाउ। अर्थ: हमारा पालनहार प्रभु बड़ा अथाह है और बड़े जिगरे वाला है। जिस भी मनुष्य ने (उसका नाम) जपा है उसी ने ही आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। परमात्मा के नाम में जुड़ने से मौत का डर नहीं व्यापता।1। रहाउ। नामु रतनु हीरा निरमोलु ॥ साचा साहिबु अमरु अतोलु ॥ जिहवा सूची साचा बोलु ॥ घरि दरि साचा नाही रोलु ॥२॥ पद्अर्थ: निरमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। अमरु = अटल। जिहवा = जीभ। घरि दरि = हृदय में। रोलु = भुलेखा।2। अर्थ: परमात्मा का नाम (एक ऐसा) रतन है हीरा है जिस का मूल्य नहीं पाया जा सकता (जो किसी कीमत से नहीं मिल सकता); वह सदा-स्थिर रहने वाला मालिक है वह कभी मरने वाला नहीं है, उसके बड़प्पन को तोला नहीं जा सकता। जो जीभ (उस अमर अडोल प्रभु की महिमा के) बोल बोलती है वह पवित्र है। महिमा करने वाले बंदे को अंदर-बाहर हर जगह वह सदा स्थिर प्रभु ही दिखता है, इस बारे उसको कोई भुलेखा नहीं होता।2। इकि बन महि बैसहि डूगरि असथानु ॥ नामु बिसारि पचहि अभिमानु ॥ नाम बिना किआ गिआन धिआनु ॥ गुरमुखि पावहि दरगहि मानु ॥३॥ पद्अर्थ: इकि = कई लोग। डूगरि = पहाड़ में। असथानु = गुफा आदि जगह (बना के)। पचहि = दुखी होते हैं। किआ = व्यर्थ।3। अर्थ: अनेक लोग (गृहस्थ त्याग के) जंगलों में जा बैठते हैं, पहाड़ में (गुफा आदि) जगह (बना के) बैठते हैं (अपने इस उद्यम का) गुमान (भी) करते हैं, पर परमात्मा का नाम बिसार के वह दुखी (ही) होते हैं। परमात्मा के नाम से वंचित रह के कोई ज्ञान-चर्चा और कोई समाधि किसी अर्थ का नहीं। जो मनुष्य गुरु के रास्ते चलते हैं (और नाम जपते हैं) वह परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |