श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 906 हठु अहंकारु करै नही पावै ॥ पाठ पड़ै ले लोक सुणावै ॥ तीरथि भरमसि बिआधि न जावै ॥ नाम बिना कैसे सुखु पावै ॥४॥ पद्अर्थ: हठु = (मन की ऐकाग्रता के लिए शरीर पर) जबरदस्ती। ले = ले के। भरमसि = (अगर) भटकता फिरेगा। बिआधि = रोग, कामादि रोग।4। अर्थ: (जो मनुष्य एकाग्रता आदि वास्ते शरीर पर कोई) जबरदस्ती करता है (और इस उद्यम का) गुमान (भी) करता है, वह परमात्मा को नहीं मिल सकता। जो मनुष्य (लोक-दिखावे की खातिर) धार्मिक पुस्तकें पढ़ता है, पुस्तकें ले के लोगों को (ही) सुनाता है, किसी तीर्थ पर (भी स्नान वास्ते) जाता है (इस तरह) उसका कामादिक रोग दूर नहीं हो सकता। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।4। जतन करै बिंदु किवै न रहाई ॥ मनूआ डोलै नरके पाई ॥ जम पुरि बाधो लहै सजाई ॥ बिनु नावै जीउ जलि बलि जाई ॥५॥ पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। किवै = किसी तरह भी। बिंदु न रहावै = काम-वासना से नहीं बचता। नरके = नर्क में। लहै = लेता है, सहता है। जीउ = जिंद, जीवात्मा।5। अर्थ: (बनवास, डूगर वास, हठ, निग्रह, तीर्थ स्नान आदि) प्रयत्न मनुष्य करता है, ऐसे किसी भी तरीके से काम-वासना रोकी नहीं जा सकती, मन डोलता ही रहता है और जीव नर्क में ही पड़ा रहता है, काम-वासना आदि विकारों में बँधा हुआ जमराज की पुरी में (आत्मिक कष्टों की) सजा भुगतता है। परमात्मा के नाम के बिना जीवात्मा विकारों में जलती-भुजती रहती है।5। सिध साधिक केते मुनि देवा ॥ हठि निग्रहि न त्रिपतावहि भेवा ॥ सबदु वीचारि गहहि गुर सेवा ॥ मनि तनि निरमल अभिमान अभेवा ॥६॥ पद्अर्थ: सिध = योग साधनों में सिद्ध योगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। हठि = हठ से। निग्रहि = निग्रह से, इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से। न त्रिपतावहि = नहीं मिटा सकते। भेवा = अंदरूनी विक्षेपता। गहहि = पकड़ते हैं, करते हैं। अभिमान अभेवा = अभिमान का अभाव।6। अर्थ: अनेक सिद्ध-साधिक ऋषि-मुनि (हठ निग्रह आदि करते हैं पर) हठ निग्रह से अंदरूनी विक्षेपता को मिटा नहीं सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने विचार-मण्डल में टिका के गुरु की (बताई) सेवा (का उद्यम) ग्रहण करते हैं उनके मन में उनके शरीर में (भाव, इन्द्रियों में) पवित्रता आ जाती है, उनके अंदर अहंकार का अभाव हो जाता है।6। करमि मिलै पावै सचु नाउ ॥ तुम सरणागति रहउ सुभाउ ॥ तुम ते उपजिओ भगती भाउ ॥ जपु जापउ गुरमुखि हरि नाउ ॥७॥ पद्अर्थ: करमि = कृपा से, मेहर से। सचु = सदा स्थिर। रहउ = मैं रहता हूँ। सु भाउ = (तेरे चरणों का) श्रेष्ठ प्रेम। ते = से। भाउ = प्रेम। जापउ = मैं जपता हूँ (गुरु की शरण पड़ के)।7। अर्थ: जिस मनुष्य को अपनी मेहर से परमात्मा मिलाता है वह सदा-स्थिर-प्रभु-नाम (की दाति) प्राप्त करता है। (हे प्रभु!) मैं भी तेरी शरण आ टिका हूँ (ताकि तेरे चरणों का) श्रेष्ठ प्रेम (मैं हासिल कर सकूँ)। (जीव के अंदर) तेरी भक्ति तेरा प्रेम तेरी मेहर से ही पैदा होते हैं। हे हरि! (अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरु की शरण पड़ के तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।7। हउमै गरबु जाइ मन भीनै ॥ झूठि न पावसि पाखंडि कीनै ॥ बिनु गुर सबद नही घरु बारु ॥ नानक गुरमुखि ततु बीचारु ॥८॥६॥ पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। जाइ = (जाए) दूर होता है। मन भीजै = अगर मन भीग जाए। न पावसि = नहीं प्राप्त करेगा। पाखंडि कीनै = अगर पाखण्ड किया जाए, पाखण्ड करने से। घरु बारु = पक्का ठिकाना, परमात्मा का महल। ततु = जगत का मूल परमात्मा। बीचारु = प्रभु के गुणों की विचार।8। अर्थ: अगर जीव का मन परमात्मा के नाम-रस में भीग जाए तो अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, पर (नाम-रस में भीगने की यह दाति) झूठ से अथवा पाखण्ड करके कोई भी नहीं प्राप्त कर सकता। गुरु के शब्द के बिना परमात्मा का दरबार नहीं मिल सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह जगत के मूल प्रभु को मिल जाता है, वह प्रभु के गुणों की विचार (का स्वभाव) प्राप्त कर लेता है।8।6। रामकली महला १ ॥ जिउ आइआ तिउ जावहि बउरे जिउ जनमे तिउ मरणु भइआ ॥ जिउ रस भोग कीए तेता दुखु लागै नामु विसारि भवजलि पइआ ॥१॥ पद्अर्थ: बउरे = हे कमले जीव! मरण = मौत। रस भोग = रसों के भोग। तेता = उतना ही। विसारि = भुला के। भवजलि = जनम मरण के चक्कर में।1। अर्थ: हे पागल जीव! जैसे तू (जगत में) आया है वैसे ही (यहाँ से) चला भी जाएगा, जैसे तुझे जनम मिला है वैसे ही मौत भी हो जाएगी (यहाँ किसी भी हालत में सदा बैठे नहीं रहना)। ज्यों-ज्यों तू दुनिया के रसों को भोग भोगता है, त्यों-त्यों उतना ही (तेरे शरीर को और आत्मा को) दुख-रोग चिपक रहा है। (इन भोगों में मस्त हो के) परमात्मा का नाम बिसार के तू जनम-मरण के चक्कर में पड़ा समझ।1। तनु धनु देखत गरबि गइआ ॥ कनिक कामनी सिउ हेतु वधाइहि की नामु विसारहि भरमि गइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गइआ = फस गया। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। सिउ = साथ। हेतु = मोह। की = क्यों? भरमि = भटकना में।1। रहाउ। अर्थ: (हे जीव!) अपना शरीर और धन देख के तू अहंकार में आया रहता है। सोने और स्त्री से तू मोह बढ़ाए जा रहा है। तू क्यों परमात्मा का नाम बिसार रहा है, और, क्यों भटकना में पड़ रहा है?।1। रहाउ। जतु सतु संजमु सीलु न राखिआ प्रेत पिंजर महि कासटु भइआ ॥ पुंनु दानु इसनानु न संजमु साधसंगति बिनु बादि जइआ ॥२॥ पद्अर्थ: संजमु = संयम, इन्द्रियों को रोकने का उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। जतु = काम-वासना से बचाव। प्रेत पिंजर महि = (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में। कासटु = काष्ठ, लकड़ी, लकड़ी की तरह सूखा हुआ, कोमल भावों से वंचित। बादि = व्यर्थ। जाइआ = (जाया) जन्मा।2। अर्थ: (हे जीव! तूने अपने आप को) काम-वासना से नहीं बचाया, तूने ऊँचा आचरण नहीं बनाया, तूने इन्द्रियों को बुरी तरफ से रोकने का प्रयत्न नहीं किया, तूने मीठा स्वभाव नहीं बनाया। (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में तू लकड़ी (की तरह सूखा हुआ कठोर-दिल) हो चुका है। तेरे अंदर ना दूसरों की भलाई का ख्याल है, ना दूसरों की सेवा की तमन्ना है, ना आचरणिक पवित्रता है, ना ही कोई संयम है। साधु-संगत से दूर रह के तेरा मानव जनम व्यर्थ जा रहा है।2। लालचि लागै नामु बिसारिओ आवत जावत जनमु गइआ ॥ जा जमु धाइ केस गहि मारै सुरति नही मुखि काल गइआ ॥३॥ पद्अर्थ: लालचि = लालच में। आवत जावत = माया की खातिर दौड़ते भागते। गइआ = (व्यर्थ) गया। जा = जब। धाइ = दौड़ के, दौड़ते हुए आ के। गहि = पकड़ के। मुखि काल = काल के मुँह में।3। अर्थ: (हे जीव!) तू माया की लालच में लगा हुआ है, परमात्मा का नाम तूने भुला दिया है। माया की खातिर दौड़ते-भागते तेरा जीवन (व्यर्थ) चला जाता है। जब अचानक जम आ के तुझे केसों से पकड़ के पटका के मारेगा, काल के मुँह में पहुँचे हुए तुझको (स्मरण की) सूझ नहीं आ सकेगी।3। अहिनिसि निंदा ताति पराई हिरदै नामु न सरब दइआ ॥ बिनु गुर सबद न गति पति पावहि राम नाम बिनु नरकि गइआ ॥४॥ पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। ताति = ईरखा, जलन। सरब = सारे जीवों पर। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।4। अर्थ: दिन-रात तू पराई निंदा करता है, दूसरों के साथ ईरखा करता है। तेरे हृदय में ना परमात्मा का नाम है और ना ही सब जीवों के लिए दया-प्यार। गुरु के शब्द के बिना ना तू ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकेगा ना ही (लोक-परलोक की) इज्जत। परमात्मा के नाम से टूट के तू नर्क में ही पड़ा हुआ है।4। खिन महि वेस करहि नटूआ जिउ मोह पाप महि गलतु गइआ ॥ इत उत माइआ देखि पसारी मोह माइआ कै मगनु भइआ ॥५॥ पद्अर्थ: नटूआ = सवांगी, मदारी। जिउ = जैसे। गलतु = गलतान। इत उत = इधर उधर, हर तरफ।5। अर्थ: (हे जीव! माया की खातिर) तू छिन-पल में तू स्वांगी की तरह कई रूप धारण करता है। तू मोह में पापों में गलतान हुआ पड़ा है। हर तरफ़ माया का प्सारा देख के तू माया के मोह में मस्त हो रहा है।5। करहि बिकार विथार घनेरे सुरति सबद बिनु भरमि पइआ ॥ हउमै रोगु महा दुखु लागा गुरमति लेवहु रोगु गइआ ॥६॥ पद्अर्थ: विथार = विस्तार, पसारे। घनेरे = बहुत। भरमि = भटकना में। गुर मति = गुरु की शिक्षा।6। अर्थ: (हे पागल जीव!) तू विकारों की खातिर अनेक पसारे पसारता है गुरु के शब्द की लगन के बिना तू (विकारों की) भटकना में भटकता है। तुझे अहंकार का बड़ा रोग बड़ा दुख चिपका हुआ है। अगर तू चाहता है ये रोग दूर हो जाए तो गुरु की शिक्षा ले।6। सुख स्मपति कउ आवत देखै साकत मनि अभिमानु भइआ ॥ जिस का इहु तनु धनु सो फिरि लेवै अंतरि सहसा दूखु पइआ ॥७॥ पद्अर्थ: संपति = सम्पक्ति, धन। साकत मनि = साकत के मन में, माया ग्रसित जीव के मन में। फिरि = दोबारा। सहसा = सहम।7। अर्थ: माया-ग्रसित जीव जब सुखों को और धन को आता देखता है तो इसके मन में अहंकार पैदा होता है। पर जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर और धन है वह दोबारा वापस ले लेता है। माया-ग्रसित जीव को सदा यही सहम खाए जाता है।7। अंति कालि किछु साथि न चालै जो दीसै सभु तिसहि मइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु सो प्रभु हरि नामु रिदै लै पारि पइआ ॥८॥ पद्अर्थ: अंति कालि = आखिरी समय, उस समय जब उम्र का अंतिम समय आ जाता है। तिसहि = उस परमात्मा की ही। मइआ = दया। लै = ले के।8। अर्थ: (हे जीव! ये शरीर, ये धन, ये सोना, ये स्त्री) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ उस परमात्मा की मेहर सदका ही मिला हुआ है, पर आखिरी वक्त में इनमें से भी (किसी के) साथ नहीं जा सकता। (दुनिया के ये पदार्थ देने वाला) वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, सब में व्यापक है, बेअंत है। जो मनुष्य उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है, वह (संसार-समुंदर की मोह की लहरों में से) पार लांघ जाता है।8। मूए कउ रोवहि किसहि सुणावहि भै सागर असरालि पइआ ॥ देखि कुट्मबु माइआ ग्रिह मंदरु साकतु जंजालि परालि पइआ ॥९॥ पद्अर्थ: किसहि = किसको? असरालि = डरावना। सागर असरालि = डरावने सागर में। देखि = देख के। जंजालि = जंजाल में। परालि = पराली (जैसा) निकम्मा।9। अर्थ: (हे साकत जीव! मरना तो सबने है, फिर तू अपने किसी) मरे हुए सन्बंधी को रोता है और (रो-रो के) किस को सुनाता है? (परमात्मा की याद से टूट के) तू बड़े भयानक (डरावने) संसार-समुंदर में गोते खा रहा है। माया-ग्रसित जीव अपने परिवार को, धन को, सुंदर घरों को देख-देख के निकम्मे जंजाल में फसा हुआ है।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |