श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 907 जा आए ता तिनहि पठाए चाले तिनै बुलाइ लइआ ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ बखसणहारै बखसि लइआ ॥१०॥ पद्अर्थ: तिनहि = उस (परमात्मा) ने ही। पठाहे = भेजे। तिनै = उसी (हरि) ने ही।10। अर्थ: हम जीव जब संसार में आते हैं तो उस परमात्मा ने ही हमको भेजा होता है, यहाँ से जाते हैं तब भी उसी ने बुलावा भेजा होता है। जो कुछ वह प्रभु करना चाहता है वह कर रहा है। (हम जीव उसकी रजा को भूल जाते हैं, पर) वह बख्शनहार है वह माफ कर देता है।10। जिनि एहु चाखिआ राम रसाइणु तिन की संगति खोजु भइआ ॥ रिधि सिधि बुधि गिआनु गुरू ते पाइआ मुकति पदारथु सरणि पइआ ॥११॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (जिस जीव) ने। रसाइणु = रस+आयन, रसों का घर, सारे आनंद देने वाला। खोजु = भेद की समझ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। ते = से। मुकति पदारथ = (नाम की) संपत्ति जो विकारों से और माया के मोह से मुक्ति दिलवाता है।11। अर्थ: (हे जीव!) परमात्मा का नाम सारे रस देने वाला है, जिस-जिस बंदे ने ये नाम-रस चख लिया है उनकी संगति में रहने से इस भेद की समझ आता है। गुरु की शरण पड़ कर गुरु से ही परमात्मा का नाम-पदार्थ मिलता है, इस नाम में ही सब करामाती ताकतें हैं, ऊँची बुद्धि है, सही जीवन-राह की सूझ है, और इस नाम से ही माया के मोह से निजात मिलती है।11। दुखु सुखु गुरमुखि सम करि जाणा हरख सोग ते बिरकतु भइआ ॥ आपु मारि गुरमुखि हरि पाए नानक सहजि समाइ लइआ ॥१२॥७॥ पद्अर्थ: सम = बराबर, एक जैसा। सोग = चिन्ता, अफसोस। बिरकतु = विरक्त, निर्लिप। आपु = स्वै भाव को। मारि = मार के। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में।12। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह (घटित होने वाले) दुख-सुख को एक जैसा ही जानता है, वह खुशी-ग़मी से निर्लिप रहता है। हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य स्वैभाव मार के परमात्मा से मिल जाता है और अडोल आत्मिक अवस्था में रहता है।12।7। रामकली दखणी महला १ ॥ जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ साच सबदि रसि लीणा ॥१॥ पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। सबदि = शब्द से, महिमा की वाणी से। साच रसि = सदा स्थिर प्रभु के नाम रस में। लीणा = लीन, मस्त।1। अर्थ: (मेरा गुरु) परमात्मा की महिमा की वाणी के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम-रस में लीन रहता है मेरे गुरु ने मुझे ये यकीन करवा दिया है कि काम-वासना से बचे रहना, ऊँचा आचरण, इन्द्रियों को विकारों से रोकना, और सदा-स्थिर प्रभु का स्मरण- यही है सही जीवन।1। मेरा गुरु दइआलु सदा रंगि लीणा ॥ अहिनिसि रहै एक लिव लागी साचे देखि पतीणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दइआलु = दया का श्रोत। रंगि = रंग में, प्रेम में। अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख देख के।1। रहाउ। अर्थ: मेरा गुरु दया का घर है, वह सदा प्रेम रंग में रंगा रहता है। (मेरे गुरु की) तवज्जो दिन-रात एक परमात्मा (के चरणों) में लगी रहती है, (मेरा गुरु) सदा-स्थिर परमात्मा का (हर जगह) दीदार करके (उस दीदार में) मस्त रहता है।1। रहाउ। रहै गगन पुरि द्रिसटि समैसरि अनहत सबदि रंगीणा ॥२॥ पद्अर्थ: गगन = आकाश, चिक्त आकाश, दसवाँ द्वार,ऊँची आत्मिक अवस्था। गगनपुरि = आकाश मण्डल में, उच्च आत्मिक अवस्था में। समै = सम, एक जैसी। सरि = बराबर। समै सरि = एक जैसी। अनहत सबदि = उस शब्द (की धुन) में जो एक रस हो रहा है। अनहत = बिना बजाए बजने वाला, एक रस।2। अर्थ: (मेरे गुरु) सदा ऊँची अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है, (मेरे गुरु की) (प्यार भरी) निगाह (सब ओर) एक जैसी ही है। (मेरा गुरु) उस शब्द में रंगा हुआ है जिसकी धुनि उसके अंदर एक-रस हो रही है।2। सतु बंधि कुपीन भरिपुरि लीणा जिहवा रंगि रसीणा ॥३॥ पद्अर्थ: सतु = ऊँचा आचरन। बंधि = बाँध के। कुपीन = लंगोटी। भरिपुरि = सर्व व्यापक प्रभु में। रसीणा = रसी हुई है।3। अर्थ: ऊँचा आचरण (-रूप) लंगोट बाँध के (मेरा गुरु) सर्व-व्यापक परमात्मा (की याद) में लीन रहता है, उसकी जीभ (प्रभु के) प्रेम में रसी रहती है।3। मिलै गुर साचे जिनि रचु राचे किरतु वीचारि पतीणा ॥४॥ पद्अर्थ: मिलै गुर साचे = सच्चे गुरु को मिला हुआ है। जिनि = जिस (परमातमा) ने। रचु राचे = जगत रचना रची है। किरतु वीचारि = हरि की मेहनत-कमाई को विचार के।4। अर्थ: कभी गलती ना खाने वाले (मेरे) गुरु को वह परमात्मा सदा मिला रहता है जिस ने जगत-रचना रची है, उसकी जगत-कार्य को देख-देख के (मेरा गुरु उसकी सर्व-सामर्थ्य में) निश्चय रखता है।4। एक महि सरब सरब महि एका एह सतिगुरि देखि दिखाई ॥५॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। देखि = (खुद) देख के।5। अर्थ: सृष्टि के सारे ही जीव एक परमात्मा में हैं (भाव, एक प्रभु ही सबकी जिंदगी का आधार है), सारे जीवों में एक परमात्मा व्यापक है; यह करिश्मा (मेरे) गुरु ने (खुद) देख के (मुझे) दिखा दिया है।5। जिनि कीए खंड मंडल ब्रहमंडा सो प्रभु लखनु न जाई ॥६॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। लखनु न जाई = बयान नहीं किया जा सकता।6। अर्थ: (मेरे गुरु ने ही मुझे बताया है कि) जिस प्रभु ने सारे खंड-ब्रहमंड बनाए हैं उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6। दीपक ते दीपकु परगासिआ त्रिभवण जोति दिखाई ॥७॥ पद्अर्थ: दीपक ते = दीए से। त्रिभवण = तीन भवनों में।7। अर्थ: (गुरु ने अपनी रौशन ज्योति के) दीए से (मेरे अंदर) दीया जला दिया है और मुझे वह (ईश्वरीय) ज्योति दिखा दी है, जो तीन भवनों में मौजूद है।7। सचै तखति सच महली बैठे निरभउ ताड़ी लाई ॥८॥ पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। निरभउ ताड़ी = निडरता की ताड़ी।8। अर्थ: (मेरा गुरु एक ऐसा नाथों का नाथ भी है जो) सदा अटल रहने वाले अडोलता के तख्त पर बैठा हुआ है जो सदा-स्थिर रहने वाले महल में बिराजमान है, (वहाँ आसन जमाए) बैठे (मेरे गुरु-जोगी) ने निडरता की समाधि लगाई हुई है।8। मोहि गइआ बैरागी जोगी घटि घटि किंगुरी वाई ॥९॥ पद्अर्थ: मोहि गइआ = (हमें) मोह लिया है। किंगुरी वाई = किंगुरी बजा दी है, जिंदगी की लहर चला दी है।9। अर्थ: माया से निर्लिप मेरे जोगी गुरु ने (सारे संसार को) मोह लिया है, उसने हरेक के अंदर (आत्मिक जीवन की लहर) किंगुरी बजा दी है।9। नानक सरणि प्रभू की छूटे सतिगुर सचु सखाई ॥१०॥८॥ नोट: ये अष्टपदी दक्षिण में गाई जाने वाली रामकली में है। पद्अर्थ: सखाई = साखी, मित्र। सतिगुर सखाई = गुरु का मित्र।10। अर्थ: हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (मेरे) गुरु का मित्र है, गुरु के द्वारा प्रभु की शरण पड़ कर जीव (माया के मोह से) बच जाते हैं।10।8। रामकली महला १ ॥ अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारी ॥१॥ पद्अर्थ: अउहठि = हृदय में। अउहठ = (अवघट्ट) हृदय। हसत = (स्थ) टिका हुआ। अउहठि हसत = (अवघट्टस्थ) हृदय में टिका हुआ। मढ़ी = शरीर। छाइआ = बनाया। धरणि = धरती। कल = क्षमता। धारी = धारने वाला, आसरा देने वाला।1। अर्थ: धरती आकाश को अपनी सत्ता से टिका के रखने वाला परमात्मा (जिस जीव को माया-मोह आदि से बचाता है उसके) हृदय में टिक के उसके शरीर को अपने रहने के लिए घर बना लेता है (भाव, उसके अंदर अपना आप प्रकट करता है)।1। गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: केती = बेअंत दुनिया। उधारी = (परमात्मा ने अहंकार ममता आदि से) बचाई।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख कर के गुरु के शब्द में जोड़ के परमात्मा बेअंत दुनिया को (अहंकार ममता कामादिक से) बचाता (चला आ रहा) है।1। रहाउ। ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी ॥२॥ पद्अर्थ: सोखै = सुखा देता है। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले संसार में।2। अर्थ: हे प्रभु! (गुरु के माध्यम से जिस मनुष्य का तू उद्धार करता है) वह अपनत्व को (अपने अंदर से) मार के अहंकार को भी खत्म कर लेता है, और उसको इस त्रिभवनी जगत में तेरी ही ज्योति नजर आती है।2। मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुर सबदि वीचारी ॥३॥ पद्अर्थ: मनसा = मन का (मायावी) फुरना। मारि = मार के। मनै महि = मन ही में। सबदि = शब्द से। वीचारी = विचारवान।3। अर्थ: (हे प्रभु! जिस जीव को तू तैराता है) वह गुरु के शब्द से ऊँचे विचारों का मालिक हो के अपने मन के मायावी फुरनों को खत्म करके (तेरी याद को) अपने मन में टिकाता है।3। सिंङी सुरति अनाहदि वाजै घटि घटि जोति तुमारी ॥४॥ पद्अर्थ: सिंङी = सिंगी की शकल की छोटी सी तूती जो जोगी लोग सदा अपने पास रखते हैं। अनाहदि = (अन आहत) नाश रहित परमात्मा में। घटि घटि = हरेक घटि में।4। अर्थ: (हे प्रभु! जिस पर तेरी मेहर होती है वह है असल जोगी, उसकी) तवज्जो तेरे नाश-रहत स्वरूप में टिकती है (ये मानो, उसके अंदर जोगियों वाली) सिंगी बजती है, उसको हरेक शरीर में तेरी ही ज्योति दिखाई देती है (वह किसी को त्याग के जंगलों-पहाड़ों में नहीं भटकता)।4। परपंच बेणु तही मनु राखिआ ब्रहम अगनि परजारी ॥५॥ पद्अर्थ: परपंच = जगत रचना। बेणु = वीणा। परपंच बेदु = वह परमात्मा जिस में जगत रचना की वाणी सदा बज रही है। तह = (शब्द ‘तह’ बताता है कि शब्द ‘परपंचबेणु’ के साथ शब्द ‘जह’ प्रयोग करना है) वहाँ, उस परमात्मा में। ब्रहम अगनि = ईश्वरीय तेज, ओज, परमात्मा की प्रकाया रूप आग। परजारी = अच्छी तरह जलाई हुई।5। अर्थ: (गुरु के शब्द में टिका हुआ मनुष्य असल जोगी है,) वह अपने मन को उस परमात्मा में जोड़े रखता है जिसमें जगत-रचना की वीणा बज रही है, वह अपने अंदर ईश्वरीय ज्योति अच्छी तरह जला लेता है।5। पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी ॥६॥ पद्अर्थ: पंच ततु = पाँच तत्वों से बना हुआ शरीर। पंच ततु मिलि = पंच तत्वी शरीर प्राप्त करके। अहि = दिन। निसि = रात। दीपकु = दीया।6। अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य को परमात्मा गुरु की शरण में लाकर आत्म-उद्धार के रास्ते पर डालता है) वह मनुष्य इस पंच-तत्वीय मानव शरीर को हासिल करके (जंगलों-पहाड़ों में जा के इसको राख में नहीं मिलाता, वह तो) बेअंत परमात्मा की पवित्र ज्योति का दीपक दिन-रात (अपने अंदर जगाए रखता है)।6। रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी वाजै सबदु निरारी ॥७॥ पद्अर्थ: रवि = सूरज, ईड़ा नाड़ी। ससि = चंद्रमा, पिंगला नाड़ी, बाई सुर। लउका = तूंबा (किंगुरी का)। निरारी = निराली, अनोखा, आश्चर्य।7। अर्थ: (हे अवधू!) प्रभु की कृपा का पात्र बना हुआ मनुष्य अपने इस शरीर को किंगुरी बनाता है, सांस-सांस नाम-जपने को इस शरीर-किंगुरी की तूंबी बनाता है, उसके अंदर गुरु का शब्द अनोखे आकर्षण के साथ बजता है (भाव, गुरु का शब्द उसके अंदर रसमयी प्रेम-राग पैदा करता है)।7। सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगमु अपारी ॥८॥ पद्अर्थ: सिव नगरी = शिव की नगरी में, कल्याण स्वरूप परमात्मा के देश में। अउधू = हे जोगी! अगंमु = पहुंच से परे प्रभु।8। अर्थ: हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा करता है, वह) उस आत्मिक अवस्था रूपी नगरी में अडोल-चिक्त हो के जुड़ता है जहाँ कल्याण-स्वरूप-प्रभु का ही प्रभाव है, जहाँ उसके अंदर अलख, अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा प्रगट हो पड़ता है (वह ऊँची आत्मिक अवस्था ही गुरसिख जोगी की शिव-नगरी है)।8। काइआ नगरी इहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी ॥९॥ पद्अर्थ: राजा = कामादिक को वश में करने के समर्थ। पंच = पाँच ज्ञान-इंद्रिय। वीचारी = विचारवान (हो के)।9। अर्थ: (हे अवधू! प्रभु की कृपा प्राप्त मनुष्य का यह) शरीर (मानो, बसता हुआ) शहर बन जाता है जिसमें पाँचों ज्ञान-इंद्रिय विचारवान हो के (ऊँची आत्मिक सूझ-बूझ वाली हो के) बसती है (भाव, विकारों के पीछे नहीं भटकती फिरतीं, कृपा के पात्र मनुष्य का) यह मन (शरीर-नगरी में) राजा बन जाता है (कामादिकों को वश में कर लेता है)।9। सबदि रवै आसणि घरि राजा अदलु करे गुणकारी ॥१०॥ पद्अर्थ: रवै = स्मरण करता है। आसणि = (अडोलता के) आसन पर। घरि = घर में, हृदय में, अंतर आत्मे (टिक के)। गुणकारी = (दूसरों को) गुण देने वाला, परोपकारी। अदलु = न्याय।10। अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य का, परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा उद्धार करता है उसका मन कामादिक पर) बलवान हो के (आत्मिक अडोलता के) आसन पर बैठता है अपने अंदर ही टिका रहता है, गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा का स्मरण करता रहता है, न्याय करता है (भाव, सारी इन्द्रियों को अपनी-अपनी सीमा में बाँध के रखता है), और परोपकारी हो जाता है।10। कालु बिकालु कहे कहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी ॥११॥ पद्अर्थ: बिकालु = जनम। कालु बिकालु = जनम मरण। कहि = क्या? मारी = मार के। बपुरे = बिचारे।11। अर्थ: (हे अवधू! जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर होती है वह धूणियाँ तपा-तपा के नहीं जलता, वह तो संसारिक जीवन) जीते हुए ही (अहंकार-ममता-कामादिक की ओर से) मर जाता है, वह अपने मन को (इनकी ओर से) मार देता है, (इस अवस्था में पहुँचे हुए का) बिचारे जनम-मरण कुछ बिगाड़ नहीं सकते।11। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |