श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ब्रहमा बिसनु महेस इक मूरति आपे करता कारी ॥१२॥

पद्अर्थ: महेस = शिव। इक मूरति = एक परमात्मा का ही रूप।12।

अर्थ: (हे अवधू! उस मनुष्य को यह समझ आ जाती है कि) ईश्वर स्वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है, ब्रहमा-विष्णु और शिव उस एक परमात्मा (की एक-एक ताकत) के स्वरूप (माने गए) हैं।12।

काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी ॥१३॥

पद्अर्थ: सोधि = शुद्ध करके। आतम ततु = आतम का मूल परमात्मा।13।

अर्थ: (हे अवधू! वह मनुष्य) हरेक आत्मा के मालिक परमात्मा (की याद) को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है और (जंगलों और पहाड़ों में भटकने की जगह) अपने शरीर को (विकारों से) पवित्र रख के इस संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।13।

गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी ॥१४॥

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर, हृदय में। रविआ = याद रखा, बार बार बसाया। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।14।

अर्थ: (हे अवधू! उस मनुष्य ने) गुरु की बताई हुई सेवा से ही सदा के लिए आत्मिक आनंद पा लिया है, उसके अंदर (पवित्र) आत्मिक गुण पैदा करने वाला गुरु का शब्द सदा टिका रहता है।14।

आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी ॥१५॥

पद्अर्थ: मारी = मार के।15।

अर्थ: (हे अवधू! जिस पर प्रभु कृपा करता है उसको) आत्मिक गुण पैदा करने वाला परमात्मा स्वयं ही (गुरमुखों की) संगति में मिलाता है, उसके अंदर से अहंकार और माया की तृष्णा समाप्त कर देता है।15।

त्रै गुण मेटे चउथै वरतै एहा भगति निरारी ॥१६॥

पद्अर्थ: चउथै = चौथे दर्जे में, उस आत्मिक अवस्था में जहाँ माया के तीन गुण छू नहीं सकते।16।

अर्थ: (वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से) माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है, उस उच्च आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ इन तीनों का जोर नहीं चलता, (जंगलों पहाड़ों में भटकने के बजाय उसको) यह भक्ति ही आकर्षित करती है।16।

गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एकु मुरारी ॥१७॥

पद्अर्थ: जोग सबदि = शब्द रूप जोग से। चीनै = पहचानता है।17।

अर्थ: (हे अवधू!) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ने के योग (-साधन) के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है और अपने हृदय में एक परमात्मा (की याद और प्रीत) को बसाए रखता है।17।

मनूआ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी ॥१८॥

अर्थ: (हे अवधू! गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन सदा) गुरु के शब्द में रंगा रहता है। (इस वास्ते उसका) मन (विकारों में डोलने की जगह प्रभु-प्रीति में) टिका रहता है। (मानव जीवन में) ये ही करने-योग्य काम उसको श्रेष्ठ लगता है।18।

बेदु बादु न पाखंडु अउधू गुरमुखि सबदि बीचारी ॥१९॥

पद्अर्थ: सबदे = शब्द ही, शब्द में ही। सारी = श्रेष्ठ। करणी = (करणीय) करने योग्य काम।19।

अर्थ: हे अवधू! वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को (पढ़ के उनकी) चर्चा को (वह मनुष्य) नहीं कबूलता (पसंद नहीं करता, आत्मिक जीवन के राह में इसको वह) पाखण्ड (समझता है)। वह तो गुरु की शरण पड़ के गुरु के शब्द की इनायत से ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है।19।

गुरमुखि जोगु कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी ॥२०॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु के सन्मुख है।20।

अर्थ: हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा करता है वह) गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, यही जोग (वह) कमाता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है, यही है उसका जत और सत (कायम रखने का तरीका)।20।

सबदि मरै मनु मारे अउधू जोग जुगति वीचारी ॥२१॥

पद्अर्थ: मरै = विकारों से मरता है, ऐसी आत्मिक अवस्था में पहुँचता है जहाँ विकार छू नहीं सकते। वीचारी = विचार ली है, समझ ली है।21।

अर्थ: हे अवधू! उस मनुष्य ने जोग की (परमात्मा के साथ जुड़ने की) ये जुगति समझी है कि वह गुरु के शब्द में जुड़ के (अहंकार-ममता आदि से) मुर्दा हो जाता है अपने मन को (विकारों से) काबू में रखता है।21।

माइआ मोहु भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी ॥२२॥

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर, बवंडर।22।

अर्थ: हे अवधू! माया का मोह बवण्डर है (जिस मनुष्य का परमात्मा उद्धार करता है वह) गुरु के शब्द में जुड़ के (इसमें से) पार लांघ जाता है और अपनी कुलों का भी उद्धार कर लेता है।22।

सबदि सूर जुग चारे अउधू बाणी भगति वीचारी ॥२३॥

पद्अर्थ: सूर = सूरमे। बाणी = वचन। भगति वीचारी = भक्ति की विचार वाले।23।

अर्थ: हे अवधू! जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ते हैं वे चारों युगों में ही सूरमे हैं, (भाव, किसी भी समय में कामादिक विकार उन पर जोर नहीं डाल सकते)। गुरु की वाणी की इनायत से वे परमात्मा की भक्ति को अपनी सोच-मण्डल में टिकाए रखते हैं।23।

एहु मनु माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी ॥२४॥

पद्अर्थ: निकसै = निकलता है। वीचारी = विचारवान हो के।24।

अर्थ: हे अवधू! मनुष्य का ये मन माया के मोह में फंस जाता है (पर इसमें से निकलने का ये तरीका नहीं कि मनुष्य जंगलों में या पहाड़ों की गुफाओं में जा छिपे, इसमें से) वही मनुष्य निकलता है जो गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा की महिमा को अपने सोच-मंडल में टिकाता है।24।

आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी ॥२५॥९॥

पद्अर्थ: मेलि = मेल में, संगति में।25।

अर्थ: सो, हे नानक! (प्रभु के दर पर अरदास कर- हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे माया के मोह में फसने से बचा ले)।

(माया के मोह से बचना जीवों के अपने वश की बात नहीं, अरदास सुन के) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है और अपनी संगति में मिलाता है।25।9।

रामकली महला ३ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सरमै दीआ मुंद्रा कंनी पाइ जोगी खिंथा करि तू दइआ ॥ आवणु जाणु बिभूति लाइ जोगी ता तीनि भवण जिणि लइआ ॥१॥

पद्अर्थ: सरम = मेहनत (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए मेहनत)। जोगी = हे जोगी! खिंथा = कफनी, गोदड़ी। करि = बना। आवणु जाणु = जनम मरन का चक्कर (जनम मरन के चक्कर का डर)। बिभूति = राख। तीनि भवण = तीन भवन, (आकाश, पाताल, मातृ लोक), सारा जगत, जगत का मोह। जिणि लइआ = जीत लिया।1।

अर्थ: हे जोगी! (इस काँच की मुंद्राओं की जगह) तू अपने कानों में (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए) मेहनत की मुंद्राएं डाल ले और दया को तू अपनी गोदड़ी बना। हे जोगी! जनम-मरन के चक्कर का डर याद रख - ये राख तू अपने शरीर पर मल। (जब तू ऐसा उद्यम करेगा, तो समझ लेना कि) तूने जगत का मोह जीत लिया।1।

ऐसी किंगुरी वजाइ जोगी ॥ जितु किंगुरी अनहदु वाजै हरि सिउ रहै लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किंगुरी = वीणा। जितु किंगुरी = जिस किंगुरी से, जिस वीणा के बजाने से। अनहदु = बिना बजाए बजता राग, एक रस हो रहा राग, ऊँचे आत्मिक जीवन का एक रस आनंद। वाजै = बजने लग जाता है। लिव = लगन।1। रहाउ।

अर्थ: हे जोगी! तू ऐसी वीणा बजाया कर, जिस वीणा के बजाने से (मनुष्य के अंदर) ऊँचे आत्मिक जीवन का एक-रस आनंद पैदा हो जाता है, और मनुष्य परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।

सतु संतोखु पतु करि झोली जोगी अम्रित नामु भुगति पाई ॥ धिआन का करि डंडा जोगी सिंङी सुरति वजाई ॥२॥

पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। पतु = पात्र, खप्पर। करि = बना। हे जोगी = हे जोगी! अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। भुगति = चूरमा, भोजन। सिंङी = छोटा सा सींग जो भण्डारा बाँटने के समय जोगी बजाता है।2।

अर्थ: हे जोगी! (दूसरों की) सेवा (किया कर, और अपने अंदर) संतोख (धारण कर, इन दोनों) को खप्पर और झोली बना। आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने हृदय में बसाए रखो) ये चूरमा (तू अपने खप्पर में) डाल। हे जोगी! प्रभु चरणों में चिक्त जोड़े रखने को तू (अपने हाथ का) डंडा बना; प्रभु में तवज्जो टिकाए रख- ये सिंगी बजाया कर।2।

मनु द्रिड़ु करि आसणि बैसु जोगी ता तेरी कलपणा जाई ॥ काइआ नगरी महि मंगणि चड़हि जोगी ता नामु पलै पाई ॥३॥

पद्अर्थ: द्रिढ़ु = दृढ़, पक्का। आसणि = आसन पर। बैसु = बैठ। कलपणा = मन की खिझ। काइआ = शरीर। मंगणि चढ़हि = मांगने के लिए चल पड़ें। पलै पाई = पल्ले पड़ता है, मिलता है।3।

अर्थ: हे जोगी! (प्रभु की याद में) अपने मन को पक्का कर- (इस) आसन पर बैठा कर, (इस अभ्यास से) तेरे मन की खिझ दूर हो जाएगी। (तू आटा मांगने के लिए नगर की ओर चल पड़ता है, इसकी जगह) अगर तू अपने शरीर नगर के अंदर ही (टिक के परमात्मा के दर से उसके नाम का दान) मांगना शुरू कर दे, तो, हे जोगी! तुझे (परमात्मा का) नाम प्राप्त हो जाएगा।3।

इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ ॥ इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ ॥४॥

पद्अर्थ: इतु = इससे। इतु किंगुरी = इस किंगुरी से (जो तू बजा रहा है)। विचहु = मन में से।4।

अर्थ: हे जोगी! (जो किंगरी तू बजा रहा है) इस किंगरी से प्रभु के चरणों में ध्यान नहीं जुड़ सकता, ना ही इस तरह सदा-स्थिर प्रभु का मिलाप हो सकता है। हे जोगी! (तेरी) इस किंगरी से मन में शांति नहीं पैदा हो सकती, ना ही मन में से अहंकार खत्म हो सकता है।4।

भउ भाउ दुइ पत लाइ जोगी इहु सरीरु करि डंडी ॥ गुरमुखि होवहि ता तंती वाजै इन बिधि त्रिसना खंडी ॥५॥

पद्अर्थ: भउ = डर। भाउ = प्यार। दुइ = दोनों। पत = तूंबे (जो किंगुरी की लंबी डंडी पर लगे होते हैं)। डंडी = किंगरी की डंडी। गुरमुख = गुरु के सन्मुख। तंती = तार, वीणा की तार। इन बिधि = इस तरीके से। खंडी = नाश हो जाता है।5।

नोट: ‘पत’ बारे देखें बंद 2; ‘पतु’ एकवचन है और ‘पत’ बहुवचन।

अर्थ: हे जोगी! तू अपने इस शरीर को (किंगरी की) डंडी बना और (इस शरीर-डंडी को) डर और प्यार के दो तूंबे जोड़ (भाव, अपने अंदर प्रभु का भय और प्यार पैदा कर)। हे जोगी! अगर तू हर वक्त गुरु के सन्मुख हुआ रहे तो (हृदय की प्रेम-) तार बज पड़ेगी, इस तरह (तेरे अंदर से) तृष्णा समाप्त हो जाएगी।5।

हुकमु बुझै सो जोगी कहीऐ एकस सिउ चितु लाए ॥ सहसा तूटै निरमलु होवै जोग जुगति इव पाए ॥६॥

पद्अर्थ: बुझै = समझ ले, के अनुसार चल पड़े। एकस सिउ = एक परमात्मा से ही। सहसा = सहम। निरमलु = पवित्र। जोग जुगती = जोग की जुगति, प्रभु मिलाप का ढंग। इव = इस तरह।6।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा के अनुसार चलता है और एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है वह मनुष्य (असल) जोगी कहलवाता है, (उसके अंदर से) सहम दूर हो जाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है, और, इस तरह वह मनुष्य परमात्मा के मिलाप का तरीका तलाश लेता है।6।

नदरी आवदा सभु किछु बिनसै हरि सेती चितु लाइ ॥ सतिगुर नालि तेरी भावनी लागै ता इह सोझी पाइ ॥७॥

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज, सब कुछ। बिनसै = नाशवान है। सेती = साथ। लाइ = जोड़े रख। भावनी = श्रद्धा, प्यार।7।

अर्थ: (हे जोगी! जगत में जो कुछ) आँखों से दिखाई दे रहा है (ये) सब कुछ नाशवान है (इसका मोह त्याग के) तू परमात्मा के साथ अपना चिक्त जोड़े रख। (पर, हे जोगी!) ये समझ तब ही पड़ेगी जब गुरु के साथ तेरी श्रद्धा बनेगी।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh