श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 909

एहु जोगु न होवै जोगी जि कुट्मबु छोडि परभवणु करहि ॥ ग्रिह सरीर महि हरि हरि नामु गुर परसादी अपणा हरि प्रभु लहहि ॥८॥

पद्अर्थ: जोगी = हे जोगी! जि = जो, कि। छोडि = छोड़ के। परभवणु = देश रटन, जगह-जगह भटकते फिरना। करहि = तू करता है। ग्रिह सरीर महि = शरीर घर में। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। लहहि = तू पा लेगा।8।

अर्थ: हे जोगी! तू ये जो अपना परिवार छोड़ के देश-रटन करता फिरता है, इसको जोग नहीं कहते। इस शरीर-घर में ही परमात्मा का नाम (बस रहा है। हे जोगी! अपने अंदर ही) गुरु की कृपा के साथ तू अपने परमात्मा को पा सकेगा।8।

इहु जगतु मिटी का पुतला जोगी इसु महि रोगु वडा त्रिसना माइआ ॥ अनेक जतन भेख करे जोगी रोगु न जाइ गवाइआ ॥९॥

पद्अर्थ: इसु महि = इस (मिट्टी के पुतले) में। करै = करता है।9।

अर्थ: हे जोगी! ये संसार (मानो) मिट्टी का बुत है, इसमें माया की तृष्णा का बड़ा रोग लगा हुआ है। हे जोगी! अगर कोई मनुष्य (त्यागियों वाले) भेस आदि के अनेक यत्न करता रहे, तो भी ये रोग दूर नहीं किया जा सकता।9।

हरि का नामु अउखधु है जोगी जिस नो मंनि वसाए ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै जोग जुगति सो पाए ॥१०॥

पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। सोई = वही मनुष्य। जोग जुगति = जोग की युक्ति, प्रभु मिलाप का ढंग।10।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे जोगी! (इस रोग को दूर करने के लिए) परमात्मा का नाम (ही) दवाई है (पर यह दवाई वही मनुष्य इस्तेमाल करता है) जिस पर (मेहर करके उसके) मन में (ये दवाई) बसाता है। (इस भेद को) वही मनुष्य समझता है जो गुरु के सन्मुख रहता है, वही मनुष्य प्रभु-मिलाप का ढंग सीखता है।10।

जोगै का मारगु बिखमु है जोगी जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ अंतरि बाहरि एको वेखै विचहु भरमु चुकाए ॥११॥

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। बिखमु = मुश्किल। नदरि = कृपा की दृष्टि, मेहर की निगाह। अंतरि = अपने अंदर। बाहरि = सारे संसार में। विचहु = अपने मन में से। भरमु = भेद भाव, मेर तेर। चुकाए = दूर करता है।11।

अर्थ: हे जोगी! (जिस जोग का हम वर्णन कर रहे हैं उस) रोग का रास्ता मुश्किल है, ये रास्ता उस मनुष्य को मिलता है जिस पर (प्रभु) मेहर की निगाह करता है। वह मनुष्य अपने अंदर से मेर-तेर दूर कर लेता है, अपने अंदर और सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को ही देखता है।11।

विणु वजाई किंगुरी वाजै जोगी सा किंगुरी वजाइ ॥ कहै नानकु मुकति होवहि जोगी साचे रहहि समाइ ॥१२॥१॥१०॥

पद्अर्थ: वाजै = बजती है। सा किंगुरी = वह वीणा। कहै = कहता है। मुकति = विकारों से मुक्ति (वाला)। होवहि = तू हो जाएगा। साचे = सदा स्थिर प्रभु में। रहहि समाइ = तू लीन रहेगा।12।

अर्थ: हे जोगी! तू (अमृत नाम की) वह वीणा बजाया कर जो (अंतरात्मा में) बिना बजाए बजती है। नानक कहता है: हे जोगी! (अगर तू हरि-नाम जपने की वीणा बजाएगा, तो) तू विकारों से मुक्ति (का मालिक) हो जाएगा, और सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिका रहेगा।12।1।

रामकली महला ३ ॥ भगति खजाना गुरमुखि जाता सतिगुरि बूझि बुझाई ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले ने। जाता = पहचाना, कद्र पाई। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझि = (आप) समझ के। बुझाई = समझ दी (सिख को)।1।

अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाले ने ही परमात्मा की भक्ति के खजाने की कद्र को समझा है। गुरु ने (स्वयं ये कद्र) समझ (सिख को) बख्शी है।1।

संतहु गुरमुखि देइ वडिआई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: देइ = देता है। वडिआई = इज्जत मान।1। रहाउ।

अर्थ: हे संत जनो! (परमात्मा लोक-परलोक में) उस मनुष्य को इज्जत देता है जो सदा गुरु के सन्मुख रहता है।1। रहाउ।

सचि रहहु सदा सहजु सुखु उपजै कामु क्रोधु विचहु जाई ॥२॥

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। सहजु सुखु = आत्मिक अडोलता वाला सुख। विचहु = मन के अंदर से।2।

अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रह के ही) तुम सदा-स्थिर प्रभु में लीन रह सकते हो, (तुम्हारे अंदर) आत्मिक अडोलता वाला सुख पैदा हो सकता है और (तुम्हारे) अंदर से काम-क्रोध दूर हो सकता है।2।

आपु छोडि नाम लिव लागी ममता सबदि जलाई ॥३॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। नाम लिव = नाम की लगन। ममता = मैं मेरी का स्वभाव। सबदि = गुरु के शब्द से।3।

अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख मनुष्य ने ही) स्वै भाव छोड़ के (अपने अंदर परमात्मा के) नाम की लगन बनाई है और (अपने अंदर से) मैं-मेरी की आदत गुरु के शब्द द्वारा जला दी है।3।

जिस ते उपजै तिस ते बिनसै अंते नामु सखाई ॥४॥

पद्अर्थ: जिस ते, तिस ते = जिस परमात्मा से, उस प्रभु के हुक्म से। उपजै = पैदा होता है। सखाई = साथी।4।

नोट: ‘जिस ते, तिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिस’ और ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हटा दी गई है।

अर्थ: (हे संत जनो! गुरमुख को ही ये समझ आती है कि) जीव जिस परमात्मा से पैदा होता है उसी के हुक्म के अनुसार ही नाश हो जाता है, और आखिरी समय में सिर्फ प्रभु का नाम ही साथी बनता है।4।

सदा हजूरि दूरि नह देखहु रचना जिनि रचाई ॥५॥

पद्अर्थ: हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।5।

अर्थ: (हे संत जनो!) जिस परमात्मा ने ये जगत की खेल बनाई है उसको इसमें हर जगह हाजिर-नाजिर देखो, इसमें अलग दूर ना समझो।5।

सचा सबदु रवै घट अंतरि सचे सिउ लिव लाई ॥६॥

पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर। सचा सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द। रवै = मौजूद रहता है। घटि अंतरि = हृदय में। सिउ = साथ। लिव = लगन।6।

अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख हो के ही) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा का शब्द मनुष्य के हृदय में बस सकता है और सदा-स्थिर प्रभु के साथ लगन लग सकती है।6।

सतसंगति महि नामु निरमोलकु वडै भागि पाइआ जाई ॥७॥

पद्अर्थ: निरमोलकु = जिसके बराबर का कोई दुनियावी पदार्थ नहीं है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से।7।

अर्थ: (हे संत जनो! जो) हरि-नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता वह गुरु की साधु-संगत में बड़ी किस्मत से मिल जाता है।7।

भरमि न भूलहु सतिगुरु सेवहु मनु राखहु इक ठाई ॥८॥

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर), भुलेखे में। इक ठाई = एक ही जगह (प्रभु के चरणों में)।8।

अर्थ: (हे संत जनो!) भटक के गलत रास्ते पर ना पड़े रहो, गुरु के दर-घर में बने रहो, (अपने मन को प्रभु-चरणों में ही) एक ही जगह टिकाए रखो।8।

बिनु नावै सभ भूली फिरदी बिरथा जनमु गवाई ॥९॥

पद्अर्थ: भूली फिरदी = गलत जीवन-राह पर पड़ी हुई है। बिरथा = व्यर्थ।9।

अर्थ: (हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना सारी दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी हुई है, और अपना मानव जनम व्यर्थ गवा रही है।9।

जोगी जुगति गवाई हंढै पाखंडि जोगु न पाई ॥१०॥

पद्अर्थ: हंढै = भटकता फिरता है। पाखंडि = पाखण्ड (करने) से, (बाहरी भेस के) पाखंड से। जोगु = प्रभु मिलाप।10।

अर्थ: (हे संत जनो! धार्मिक भेस के) पाखण्ड से प्रभु का मिलाप हासिल नहीं होता; (जो जोगी निरा इस पाखण्ड में पड़ा हुआ है, उस) जोगी ने प्रभु-मिलाप की जुगती (हाथों से) गवा ली है, वह (व्यर्थ में) भटकता-फिरता है।10।

सिव नगरी महि आसणि बैसै गुर सबदी जोगु पाई ॥११॥

पद्अर्थ: सिव नगरी महि = परमात्मा के शहर में, साधु-संगत में। आसणि = आसन पर। बैसै = बैठता है। सबदी = शब्द से। जोगु = परमात्मा से मिलाप।11।

अर्थ: (हे संत जनो! जो जोगी गुरु के शब्द में जुड़ता है, उसने) गुरु-शब्द की इनायत से प्रभु मिलाप हासिल कर लिया है, वह जोगी साधु-संगत में टिका हुआ (मानो) आसन पर बैठा हुआ है।11।

धातुर बाजी सबदि निवारे नामु वसै मनि आई ॥१२॥

पद्अर्थ: धातुर बाजी = (माया की खातिर) दौड़ने भागने वाली खेल, भटकते फिरने की खेल। सबदि = गुरु के शब्द से। मनि = मन में।12।

अर्थ: (हे संत जनो! जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरु के शब्द द्वारा अपने मन की, माया के पीछे भटकने की खेल समाप्त कर लेता है।12।

एहु सरीरु सरवरु है संतहु इसनानु करे लिव लाई ॥१३॥

पद्अर्थ: सरवरु = सुंदर तालाब। लिव = लगन, प्रेम की लगन। लाई = लगा के।13।

अर्थ: (हे संत जनो!) यह मनुष्य का शरीर एक सुंदर तालाब है, जो मनुष्य प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है, (वह, मानो, इस तालाब में) स्नान कर रहा है।13।

नामि इसनानु करहि से जन निरमल सबदे मैलु गवाई ॥१४॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। करहि = जो लोग करते हैं। सबदे = शब्द के द्वारा ही।14।

अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य प्रभु के नाम में स्नान करते हैं वे पवित्र जीवन वाले हैं, उन्होंने गुरु के शब्द के द्वारा (अपने मन की विकारों वाली) मैल दूर कर ली है।14।

त्रै गुण अचेत नामु चेतहि नाही बिनु नावै बिनसि जाई ॥१५॥

पद्अर्थ: त्रै गुण = (माया के रजो, तमो, सतो) तीन गुण (के प्रभाव) के कारण। अचेत = गाफल, प्रभु की याद की ओर से बेपरवाह। बिनसि जाई = जीव आत्मिक मौत मर जाता है।15।

अर्थ: (हे संत जनो! प्रभु की माया बड़ी प्रबल है) माया के तीन गुणों के कारण (जीव प्रभु की याद से) बेपरवाह रहते हैं, (प्रभु का) नाम याद नहीं करते। (हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना हरेक जीव आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।15।

ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै मूरति त्रिगुणि भरमि भुलाई ॥१६॥

पद्अर्थ: महेसु = शिव। त्रै मूरति = तीन गुणों से मिली हुई, तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव में। भरमि = भ्रम में, भटकना में। भुलाई = गलत राह पर पड़ जाता है।16।

अर्थ: (हे संत जनो! कोई बड़े से बड़ा भी हो) ब्रहमा (हो), विष्णू (हो), शिव (हो) (परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव माया के) तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव तले रहता है। माया के तीन गुणों के प्रभाव के कारण (प्रभु-चरणों से टूटा हुआ हरेक जीव) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है।16।

गुर परसादी त्रिकुटी छूटै चउथै पदि लिव लाई ॥१७॥

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी = तीन टेढ़ी लकीरें जो मन की खीझ के वक्त मनुष्य के माथे पर पड़ जाती हैं) त्यौड़ी। पदि = दर्जे में। चउथै पदि = माया के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर चौथी आत्मिक अवस्थामें। लिव = तवज्जो, ध्यान।17।

अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु कृपा से (प्रभु-नाम से जिस मनुष्य की) त्योड़ी (भाव, मन की खीझ) दूर होती है, (वह माया के तीनों गुणों के प्रभाव से ऊपर रह के) चौथी आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभु-चरणों में तवज्जो जोड़ता है।17।

पंडित पड़हि पड़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई ॥१८॥

पद्अर्थ: पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। पढ़ि = (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ के। वादु = झगड़ा, (देवताओं आदि का परस्पर) लड़ाई झगड़ा। वखाणहि = बयान करते हैं, श्रोताओं को सुनाते हैं। बूझ = (आत्मिक जीवन की) सूझ। तिंना = उन (पण्डितों) ने।18।

अर्थ: (हे संत जनो!) पण्डित लोग (पुराण आदि पुस्तकें) पढ़ते हैं, इनको पढ़ के (श्रोताओं को देवताओं आदि के परस्पर) लड़ाई-झगड़े सुनाते हैं, (पर इस तरह) उनको (अपने आपको) ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती।18।

बिखिआ माते भरमि भुलाए उपदेसु कहहि किसु भाई ॥१९॥

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। माते = मस्त। किसु = और किसको? भाई = हे भाई!।19।

अर्थ: माया के मोह में फसे हुए (वे पण्डित लोग) भटकना के कारण (खुद) गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। फिर, हे भाई! वे और किस को शिक्षा देते हैं? (उनकी शिक्षा से किसी और को कोई लाभ नहीं हो सकता)।19।

भगत जना की ऊतम बाणी जुगि जुगि रही समाई ॥२०॥

पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में, हरेक समय में। रही समाई = (सबके दिलों में) रहती है, (सब पर) प्रभाव डालती है। भगत जना की वाणी = परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों के बोले हुए वचन।20।

अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की भक्ति करने वालों के बोल श्रेष्ठ हुआ करते हैं। वे बोल हरेक युग में (हरेक समय में ही सब पर) अपना असर डालते हैं।20।

बाणी लागै सो गति पाए सबदे सचि समाई ॥२१॥

पद्अर्थ: लागै = लगता है, तवज्जो जोड़ता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सबदे = शब्द से। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में।21।

अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु की) वाणी में तवज्जो जोड़ता है, वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है; गुरु के शब्द के द्वारा वह सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है।21।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh