श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 910 काइआ नगरी सबदे खोजे नामु नवं निधि पाई ॥२२॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। नवंनिधि = नौ खजाने (कुबेर देवते)।22। अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के) शब्द के द्वारा अपने शरीर-नगर को खोजता है (अपने जीवन की पड़ताल करता रहता है, वह मनुष्य) परमात्मा का नाम-खजाना पा लेता है।22। मनसा मारि मनु सहजि समाणा बिनु रसना उसतति कराई ॥२३॥ पद्अर्थ: मनसा = मन का मायावी फुरना। मारि = मार के। सहिज = आत्मिक अडोलता में। रसना = जीभ।23। अर्थ: वह मनुष्य मन के मायावी विचारों (फुरनों) को मार के अपने मन को आत्मिक अडोलता में टिका लेता है; वह मनुष्य जीभ को पदार्थों के रसों की ओर से हटा के परमात्मा की महिमा में जोड़ता है।23। लोइण देखि रहे बिसमादी चितु अदिसटि लगाई ॥२४॥ पद्अर्थ: लोइण = आँखें। बिसमादी = हैरान (हो के), विस्माद अवस्था में पहुँच के। अदिसटि = अदृष्य प्रभु में।24। अर्थ: उस मनुष्य की आँखें (दुनियावी पदार्थों से हट के) आश्चर्य रूप परमात्मा को (हर जगह) देखती हैं, उसका चिक्त अदृश्य प्रभु में टिका रहता है।24। अदिसटु सदा रहै निरालमु जोती जोति मिलाई ॥२५॥ पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप।25। अर्थ: (हे संत जनो! उस मनुष्य की) ज्योति उस नूरो-नूर-प्रभु में मिली रहती है जो इन आँखों से नहीं दिखता, और सदा निर्लिप रहता है।25। हउ गुरु सालाही सदा आपणा जिनि साची बूझ बुझाई ॥२६॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। सालाही = मैं सलाहता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। साची बूझ = सदा स्थिर प्रभु की सूझ।26। अर्थ: हे संत जनो! मैं भी अपने उस गुरु की ही सदा महिमा गायन करता (बड़ाई करता) रहता हूँ जिसने (मुझे) सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सूझ बख्शी है।26। नानकु एक कहै बेनंती नावहु गति पति पाई ॥२७॥२॥११॥ पद्अर्थ: नावहु = प्रभु के नाम से ही। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।27। अर्थ: हे संतजनो! नानक एक यह विनती करता है (कि परमात्मा का नाम जपा करो) नाम से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है, नाम से ही (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है।27।2। रामकली महला ३ ॥ हरि की पूजा दुल्मभ है संतहु कहणा कछू न जाई ॥१॥ पद्अर्थ: दुलंभ = दुर्लभ, जो बड़ी मुश्किल से मिले। संतहु = हे संत जनो! कछू न = कुछ भी नहीं। कहणा जाई = कहा जा सकता है।1। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की पूजा-भक्ति बड़ी मुश्किल से मिलती है। प्रभु की पूजा कितनी दुर्लभ है; इस संबन्धी कुछ भी बताया नहीं जा सकता।1। संतहु गुरमुखि पूरा पाई ॥ नामो पूज कराई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है। पूरा = सारे गुणों से भरपूर प्रभु। नामो = नाम ही, नाम जपना ही। पूज = पूजा। कराई = (गुरु) करवाता है।1। रहाउ। अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सारे गुणों से भरपूर प्रभु को पा लेता है। नाम जपो, नाम ही जपो - गुरु ये पूजा कराता है।1। रहाउ। हरि बिनु सभु किछु मैला संतहु किआ हउ पूज चड़ाई ॥२॥ पद्अर्थ: किआ पूज = पूजा करने के लिए कौन सी चीज? हउ चढ़ाई = मैं भेटा करूँ।2। अर्थ: (हे संत जनो! दुनिया के लोग फूल-पत्रों आदि से देवताओं की पूजा करते हैं, पर) हे संत जनो! मैं (परमात्मा की पूजा करने के लिए) कौन सी चीज उसके आगे भेटा करूँ? उस प्रभु के नाम के बिना (नाम के मुकाबले में) और हरेक चीज मैली है।2। हरि साचे भावै सा पूजा होवै भाणा मनि वसाई ॥३॥ पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचे भावै = अगर सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए। सा = वही, रजा मीठी लगनी ही। मनि = मन में। वसाई = बसाता है।3। अर्थ: हे संत जनो! अगर किसी मनुष्य को सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए तो उसकी तरफ से यही परमात्मा की पूजा है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की) रजा को ही अपने मन में बसाता है (रजा को ही ठीक समझता है)।3। पूजा करै सभु लोकु संतहु मनमुखि थाइ न पाई ॥४॥ पद्अर्थ: सभु लोकु = सारा जगत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। थाइ = जगह में, जगह पर। थाइ न पाई = स्वीकार नहीं होती।4। अर्थ: हे संत जनो! सारा जगत (अपनी ओर से) पूजा करता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की की हुई कोई भी पूजा (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होती।4। सबदि मरै मनु निरमलु संतहु एह पूजा थाइ पाई ॥५॥ पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द से। मरै = (विकारों की प्रेरणा की ओर से) मरता है, अर्थात विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता। निरमलु = पवित्र।5। अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु के शब्द से विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता उसका मन पवित्र हो जाता है। उसकी यह पूजा प्रभु-दर पे स्वीकार हो जाती है।5। पवित पावन से जन साचे एक सबदि लिव लाई ॥६॥ पद्अर्थ: पवित = पवित्र। पावन = पवित्र। से = वह (बहुवचन)। साचे = सदा स्थिर प्रभु में लीन। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी।6। अर्थ: हे संत जनो! ऐसे लोग पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के साथ एक-मेक हो जाते हैं; गुरु के शब्द के द्वारा वह लोग एक परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखते हैं।6। बिनु नावै होर पूज न होवी भरमि भुली लोकाई ॥७॥ पद्अर्थ: न होवी = नहीं हो सकती। भरमि = भुलेखे में (पड़ कर)। भुली = गलत रास्ते पर पड़ी हुई है। लोकाई = दुनिया।7। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा का नाम जपे बिना परमात्मा की किसी और किस्म की पूजा नहीं हो सकती। (नाम से टूट के) भुलेखे में पड़ के दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी रहती है।7। गुरमुखि आपु पछाणै संतहु राम नामि लिव लाई ॥८॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाणै = परखता है, पड़तालता रहता है। नामि = नाम में।8। अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने जीवन को पड़तालता रहता है, और, परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।8। आपे निरमलु पूज कराए गुर सबदी थाइ पाई ॥९॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) खुद ही। निरमलु = पवित्र। गुर सबदी = गुरु के शब्द द्वारा। थाइ पाई = स्वीकार करता है।9। अर्थ: हे संत जनो! पवित्र प्रभु खुद ही (जीव को गुरु के शब्द में जोड़ के उससे अपनी) पूजा-भक्ति कराता है, और, गुरु के शब्द में उसकी लीनता के कारण उसकी की हुई पूजा स्वीकार करता है।9। पूजा करहि परु बिधि नही जाणहि दूजै भाइ मलु लाई ॥१०॥ पद्अर्थ: करहि = करते हैं। परु = परन्तु। बिधि = तरीका। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और के प्यार में। मलु = विकारों की मैल।10। नोट: ‘भाइ’ शब्द ‘भाउ’ से अधिकरण कारक, एकवचन। अर्थ: (हे संत जनो! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य प्रभु की) पूजा तो करते हैं, परन्तु (पूजा का) सही तरीका नहीं जानते। माया के प्यार में फंस के (मनमुख मनुष्य अपने मन को विकारों की) मैल चिपकाए रखते हैं।10। गुरमुखि होवै सु पूजा जाणै भाणा मनि वसाई ॥११॥ पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। मनि = मन में। भाणा = प्रभु की रजा। वसाई = बसाता है।11। अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह परमात्मा की भक्ति करनी जानता है (वह जानता है कि प्रभु की रजा में राजी रहना ही प्रभु की भक्ति है, इस वास्ते वह प्रभु की) रजा को अपने मन में बसाता है।11। भाणे ते सभि सुख पावै संतहु अंते नामु सखाई ॥१२॥ पद्अर्थ: ते = से। भाणे ते = भाणा (प्रभु की मर्जी) मानने से। सभि = सारे। अंते = आखिरी वक्त में। सखाई = मित्र।12। अर्थ: हे संत जनो! गुरमुख मनुष्य भाणा मानने (प्रभु की मर्जी मानने) से (ही इस लोक में) सारे सुख प्राप्त कर लेता है; आखिरी वक्त भी प्रभु का नाम ही उसका साथी बनता है।12। अपणा आपु न पछाणहि संतहु कूड़ि करहि वडिआई ॥१३॥ पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में (फसे हुए)। करहि = करते हैं।13। अर्थ: हे संत जनो! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) अपने जीवन को नहीं पड़तालते, माया के मोह में फंसे हुए वे मनुष्य अपने आप की ही शोभा करते रहते हैं।13। पाखंडि कीनै जमु नही छोडै लै जासी पति गवाई ॥१४॥ पद्अर्थ: पाखंडि = पाखण्ड के कारण। पाखंडि कीनै = पाखण्ड करने के कारण। लै जाई = ले जाएगा। पति = इज्जत। गवाई = गवा के।14। अर्थ: हे संत जनो! (धर्म का) पाखण्ड करने से मौत (के सहम से) निजात नहीं मिलती। जम (नाम-हीन लोगों को) यहाँ से उनकी इज्जत गवा के (परलोक) ले जाएगा।14। जिन अंतरि सबदु आपु पछाणहि गति मिति तिन ही पाई ॥१५॥ पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। अंतरि = अंदर। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। गति = हालत। मिति = पाप। गति मिति = परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है (ये समझ)।15। नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन। अर्थ: हे संत जनो! जिस लोगों के हृदय में गुरु का शब्द बस जाता है, वे अपने जीवन को पड़तालते रहते हैं, उन्होंने ही ये बात समझी है कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है।15। एहु मनूआ सुंन समाधि लगावै जोती जोति मिलाई ॥१६॥ पद्अर्थ: सुंन = शून्य, वह हालत जब माया के विचार ना उठें। जोति = जीवात्मा। जोती = प्रभु की ज्योति में।16। अर्थ: (हे संत जनो! जिनके अंदर गुरु-शब्द बसता है उनका) ये मन ऐसी एकाग्रता बनाता है जहाँ माया के फुरने नहीं उठते, उनकी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन है।16। सुणि सुणि गुरमुखि नामु वखाणहि सतसंगति मेलाई ॥१७॥ पद्अर्थ: सुणि = सुन के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले बंदे।17। अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु के सन्मुख रहने वाले वे लोग साधु-संगत में मिल बैठते हैं, (सत-संगियों से) प्रभु का नाम सुन-सुन के वे भी नाम उचारते रहते हैं।17। गुरमुखि गावै आपु गवावै दरि साचै सोभा पाई ॥१८॥ पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। गवावै = दूर करता है। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पे।18। अर्थ: (हे संत जनो!) गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु की महिमा के गीत गाता रहता है, अपने अंदर अहम्-अहंकार को दूर करता है, और, सदा-स्थिर प्रभु के दर पर शोभा पाता है।18। साची बाणी सचु वखाणै सचि नामि लिव लाई ॥१९॥ पद्अर्थ: साची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का नाम)। सचि नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। लिव = लगन, तवज्जो, ध्यान।19। अर्थ: (हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) सदा-स्थिर हरि की महिमा की वाणी उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभु का नाम उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़े रखता है।19। भै भंजनु अति पाप निखंजनु मेरा प्रभु अंति सखाई ॥२०॥ पद्अर्थ: भैभंजन = भै+भंजन, सारे डरों का नाश करने वाला प्रभु। अति पाप निखंजनु = बड़े बड़े पापों का नाश करने वाला प्रभु। सखाई = साथी। अंति = आखिर को।20। अर्थ: (हे संत जनो!) जीवों के सारे डर नाश करने वाला और घोर पाप दूर करने वाला परमात्मा आखिर (उनका) साथी बनता है (जो उसकी महिमा में जुड़े रहते हैं)।20। सभु किछु आपे आपि वरतै नानक नामि वडिआई ॥२१॥३॥१२॥ पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज। आपे = खुद ही। वरतै = मौजूद है। नामि = नाम में (जुड़ने से)।21। अर्थ: हे संत जनो! ये सब कुछ (जो दिखाई दे रहा है, इस में) प्रभु स्वयं ही स्वयं हर जगह मौजूद है। हे नानक! उसके नाम में जुड़ने से लोक-परलोक में सम्मान मिलता है।21।3।12। रामकली महला ३ ॥ हम कुचल कुचील अति अभिमानी मिलि सबदे मैलु उतारी ॥१॥ पद्अर्थ: हम = हम संसारी जीव। कुचल = कु चाल चलन वाले। कुचील = गंदे। मिलि = मिल के। सबदे = गुरु के शब्द में ही।1। अर्थ: हे संत जनो! हम संसारी जीव (आम तौर पर) बद्-चलन, गंदे आचरण वाले अहंकारी बने रहते हैं। (किसी भाग्यशाली ने) गुरु के शब्द में जुड़ के विकारों की मैल अपने मन से उतार दी होती है।1। संतहु गुरमुखि नामि निसतारी ॥ सचा नामु वसिआ घट अंतरि करतै आपि सवारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। नामि = परमात्मा के नाम से। निसतारी = पार उतारा हो जाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। घट अंतरि = हृदय में। करतै = कर्तार ने। सवारी = पैज रख ली।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम से (संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु का नाम बस जाता है, (समझ लो कि) ईश्वर ने स्वयं उसकी इज्जत रख ली।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |