श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किनही कहिआ मै कुलहि वडिआई ॥ किनही कहिआ बाह बहु भाई ॥ कोई कहै मै धनहि पसारा ॥ मोहि दीन हरि हरि आधारा ॥४॥

पद्अर्थ: कुलहि = कुल की, अच्छे खनदान की। बाह बहु भाई = बहुत सारे भाई हैं, बहुत बाँहें हैं। धनहि = धन का। पसारा = खिलारा, आधारा, आसरा।4।

अर्थ: (हे भाई!) किसी ने कहा कि मैं ऊँचे खानदान की इज्जत वाला हूँ, किसी ने कहा है कि मेरे बहुत सारे भाई हैं, मेरे बहुत सारे साथी हैं। कोई कहता है मैंने बहुत धन कमाया हुआ है। पर मुझ गरीब को सिर्फ परमात्मा का आसरा है।4।

किनही घूघर निरति कराई ॥ किनहू वरत नेम माला पाई ॥ किनही तिलकु गोपी चंदन लाइआ ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि धिआइआ ॥५॥

पद्अर्थ: घूघर निरति = घुंघरू पहन के नाच। गोपी चंदन = द्वारका के तालाब की पीली मिट्टी का।5।

अर्थ: (हे भाई!) किसी ने घुंघरू बाँध के (देवताओं के आगे) नाच शुरू किए हुए हैं, किसी ने (गले में) माला डाली हुई है और व्रत रखने के नियम धारे हुए हैं। किसी मनुष्य ने (माथे पर) गोपी चंदन का टीका लगाया हुआ है। पर मैं गरीब तो सिर्फ परमात्मा का नाम ही स्मरण करता हूँ।5।

किनही सिध बहु चेटक लाए ॥ किनही भेख बहु थाट बनाए ॥ किनही तंत मंत बहु खेवा ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सेवा ॥६॥

पद्अर्थ: सिध = योग साधनों में पुगे हुए जोगी। चेटक = रिद्धियों-सिद्धियों के तमाशे। थाट = बनावट। खेवा = चलाए हैं (जैसे मल्लाह बेड़ी चलाता है)। सेवा = भक्ति।6।

अर्थ: (हे भाई!) किसी मनुष्य ने सिधों वाले नाटक-चेटक दिखाने शुरू किए हुए हैं, किसी मनुष्य ने साधुओं वाले कई भेस बनाए हुए हैं, किसी मनुष्य ने अनेक प्रकार की तंत्रों-मंत्रों की दुकान चलाई हुई है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा की भक्ति ही करता हूँ।6।

कोई चतुरु कहावै पंडित ॥ को खटु करम सहित सिउ मंडित ॥ कोई करै आचार सुकरणी ॥ मोहि दीन हरि हरि हरि सरणी ॥७॥

पद्अर्थ: चतुरु = समझदार। खटु = छह। खटु करम = शास्त्रों के बताए हुए छह कर्म (दान देना और लेना, यज्ञ करने और करवाने, विद्या पढ़नी और पढ़ानी)। सहित = साथ। सिउ = साथ, समेत। मंडित = सजा हुआ। आचार = शास्त्रों में बताए हुए कर्म धर्म। सु करणी = श्रेष्ठ करनी।7।

अर्थ: (हे भाई!) कोई मनुष्य (अपने आप को) समझदार पंडित कहलवाता है, कोई मनुष्य (अपने आप को) शास्त्रों से सजाए हुए छह कर्मों से सजाए रखता है, कोई मनुष्य शास्त्रों के कर्म-कांड को श्रेष्ठ करणी समझ के करता रहता है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा की शरण पड़ा रहता हूँ।7।

सगले करम धरम जुग सोधे ॥ बिनु नावै इहु मनु न प्रबोधे ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइआ ॥ बूझी त्रिसना महा सीतलाइआ ॥८॥१॥

पद्अर्थ: सगले = सारे। सोधे = परखे हैं। प्रबोधे = जागता। जउ = जब। साध संगु = गुरमुखों का मेल। बूझी = बुझ गई। सीतलाइआ = शांत, ठंडा।8।

अर्थ: (हे भाई! हमने) सारे जुगों सारे कर्म-धर्म परख के देख लिए हैं, परमात्मा के नाम के बिना (माया के मोह की नींद में सोया हुआ) यह मन जागता नहीं। हे नानक! कह: (हे भाई!) जब (किसी मनुष्य ने) साधु-संगत प्राप्त कर ली, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा बुझ गई, उसका मन ठंडा-ठार हो गया।8।1।

रामकली महला ५ ॥ इसु पानी ते जिनि तू घरिआ ॥ माटी का ले देहुरा करिआ ॥ उकति जोति लै सुरति परीखिआ ॥ मात गरभ महि जिनि तू राखिआ ॥१॥

पद्अर्थ: पानी ते = पिता की बूँद से। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तू = तुझे। घरिआ = घड़ा, बनाया। ले = ले के। देहुरा = देह, शरीर। उकति = युक्ति, बुद्धि। लै = ले के। सुरति परीखिआ = पहचानने की ताकत। गरभ = पेट। तू = तुझे।1।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने पिता की बूँद से तुझे बनाया, तेरा यह मिट्टी का पुतला घड़ दिया; जिस प्रभु ने बुद्धि, जीवात्मा और परखने के लिए ताकत तेरे अंदर डाल के तुझे माँ के पेट में (सही सलामत) रखा (उसको हमेशा याद रख)।1।

राखनहारु सम्हारि जना ॥ सगले छोडि बीचार मना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सम्हारि = संभाल, याद रख। जना = हे जन! सगले = सारे। मना = हे मन!।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा रक्षा कर सकने वाले परमात्मा को ययाद करा कर। हे मेरे मन! (प्रभु की याद के बिना) और सारे विचार (जो विचार प्रभु की याद को भुलाते हैं, वह) छोड़ दे।1। रहाउ।

जिनि दीए तुधु बाप महतारी ॥ जिनि दीए भ्रात पुत हारी ॥ जिनि दीए तुधु बनिता अरु मीता ॥ तिसु ठाकुर कउ रखि लेहु चीता ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। महतारी = माँ। भ्रात = भाई। हारी = हाली, कामवाले, नौकर। तुधु = तुझे। बनिता = स्त्री। अरु = और। चीता = चिक्त में।2।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने तुझे माता-पिता दिए, जिस प्रभु ने तुझे भाई पुत्र और नौकर दिए, जिस प्रभु ने तुझे सत्री और सज्जन-मित्र दिए, उस मालिक प्रभु को सदा अपने चिक्त में टिकाए रख।2।

जिनि दीआ तुधु पवनु अमोला ॥ जिनि दीआ तुधु नीरु निरमोला ॥ जिनि दीआ तुधु पावकु बलना ॥ तिसु ठाकुर की रहु मन सरना ॥३॥

पद्अर्थ: पवनु = हवा। अमोला = निर्मोलक, कीमती। नीरु = पानी। पावकु = आग। बलना = ईधन। मन = हे मन!।3।

अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु ने तुझे किसी भी मूल्य पर ना मिल सकने वाली (अनमोल) हवा दी, जिस प्रभु ने तुझे निर्मोलक पानी दिया, जिस प्रभु ने तुझे आग दी, ईधन दिया। हे मन! तू उस मालिक-प्रभु की शरण पड़ा रह।3।

छतीह अम्रित जिनि भोजन दीए ॥ अंतरि थान ठहरावन कउ कीए ॥ बसुधा दीओ बरतनि बलना ॥ तिसु ठाकुर के चिति रखु चरना ॥४॥

पद्अर्थ: छतीह अंम्रित = छत्तीस किस्मों के स्वादिष्ट खाने (खट रस, मिठ रस, मेलि कै, छतीह भोजन होनि रसोई = भाई गुरदास)। अंतरि = पेट के अंदर। कउ = के लिए। बसुधा = धरती। बलना = सामान, वलेवा, बर्तना वलेवा। चिति = चिक्त में।4।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे अनेक किस्मों के स्वादिष्ट खाने दिए, इन खानों को हज़म करने के लिए तेरे अंदर मेहदा आदि अंग बनाए, तुझे धरती दी, तुझे और कार्य-व्यवहार दिया, उस मालिक-प्रभु के चरण अपने चिक्त में परोए रख।4।

पेखन कउ नेत्र सुनन कउ करना ॥ हसत कमावन बासन रसना ॥ चरन चलन कउ सिरु कीनो मेरा ॥ मन तिसु ठाकुर के पूजहु पैरा ॥५॥

पद्अर्थ: पेखन कउ = देखने के लिए। नेत्र = आँखें। करना = कान। हसत = हाथ। बासन = नाक। मेरा = मेरु, शिरोमणी। मन = हे मन!।5।

अर्थ: हे मेरे मन! उस मालिक प्रभु के पैर सदा पूजता रह (निम्रता धारण करके उस प्रभु का स्मरण करता रह, जिसने) तुझे (दुनिया के रंग-तमाशे) देखने के लिए आँखें दी हैं और सुनने के लिए कान दिए हैं, जिसने काम करने के लिए तुझे हाथ दिए हैं, और नाक व जीभ दी है, जिसने चलने के लिए तुझे पैर दिए हैं और सिर (सभी अंगों में) श्रेष्ठ बनाया है।5।

अपवित्र पवित्रु जिनि तू करिआ ॥ सगल जोनि महि तू सिरि धरिआ ॥ अब तू सीझु भावै नही सीझै ॥ कारजु सवरै मन प्रभु धिआईजै ॥६॥

पद्अर्थ: अपवित्र = गंदी जगह से। तू = तुझे। सगल = सारी। सिरि = सिर पर। सिरि धरिआ = शिरोमणी बनाया। सीझु = कामयाब हो। भावै = चाहे। कारजु = मानव जनम का उद्देश्य। सवरै = सँवरता है। मन = हे मन! धिआईजै = ध्याना चाहिए।6।

अर्थ: (हे भाई! उस परमात्मा को स्मरण किया कर) जिसने गंदगी से तुझे पवित्र बना दिया, जिसने तुझे सारी जूनियों में सरदार बना दिया। तेरी मर्जी है अब तू (उसका स्मरण करके जिंदगी में) कामयाब हो चाहे ना हो। पर हे मन! परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, (स्मरण करने से ही मानव जीवन का) उद्देश्य सफल होता है।6।

ईहा ऊहा एकै ओही ॥ जत कत देखीऐ तत तत तोही ॥ तिसु सेवत मनि आलसु करै ॥ जिसु विसरिऐ इक निमख न सरै ॥७॥

पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। ओही = वह परमात्मा ही। जत कत = जहाँ कहाँ। तोही = तेरे साथ। मनि = मन में। करै = (जीव) करता है। जिसु विसरिऐ = जिसको (विसरने से)। निमख = आँख झपकने जितना समय। न सरै = नहीं निभती।7।

अर्थ: हे भाई! इस लोक में और परलोक में एक वह परमात्मा ही (सहायक) है, जहाँ कहीं भी देखा जाए वहीं-वहीं (परमात्मा ही) तेरे साथ है। (पर देखिए मनुष्य के दुर्भाग्य!) उस परमात्मा को स्मरण करने से (मनुष्य) मन में आलस करता है, जिसके बिसरने से एक पल भर समय भी आसान नहीं गुजर सकता।7।

हम अपराधी निरगुनीआरे ॥ ना किछु सेवा ना करमारे ॥ गुरु बोहिथु वडभागी मिलिआ ॥ नानक दास संगि पाथर तरिआ ॥८॥२॥

पद्अर्थ: हम = हम (संसारी जीव)। करमारे = अच्छे काम। बोहिथु = जहाज। वडभागी = बड़े भाग्यों से। संगि = साथ, उस बोहिथ के साथ। पथर = पत्थर दिल लोग।8।

अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंस के) हम संसारी जीव पापी बन जाते हैं, हम ना कोई सेवा-भक्ति करते हैं, ना ही हमारे कर्म अच्छे होते हैं। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्यों को बहुत भाग्यों से गुरु-जहाज मिल गया, उस जहाज़ की संगति में वह पत्थर-दिल मनुष्य भी संसार से पार लांघ गए।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh