श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ काहू बिहावै रंग रस रूप ॥ काहू बिहावै माइ बाप पूत ॥ काहू बिहावै राज मिलख वापारा ॥ संत बिहावै हरि नाम अधारा ॥१॥

पद्अर्थ: काहू = किसी (मनुष्य) को। बिहावै = (उम्र) बीतती है। माई = माँ। मिलख = जमीन की मल्कियत। संत बिहावै = संत की (उम्र) बीतती है। आधारा = आसरा।1।

अर्थ: (चाहे परमात्मा ही हरेक जीव का मालिक है फिर भी) किसी मनुष्य की उम्र रंग-तमाशों, दुनियां के सुंदर रूपों और पदार्थों के रसों-स्वादों में बीत रही है; किसी की उम्र माता-पिता-पुत्र आदि परिवार के मोह में गुजर रही है; किसी मनुष्य की उम्र राज भोग में, जमीन की मल्कियत, व्यापार आदि करने में गुजर रही है। (हे भाई! सिर्फ) संत की उम्र परमात्मा के नाम के आसरे बीतती गुजरती है।1।

रचना साचु बनी ॥ सभ का एकु धनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साचु = सदा कायम रहने वाला प्र्रभू। रचना = सृष्टि। बनी = पैदा की हुई। धनी = मालिक। सभ का = हरेक जीव का।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। ये सारी सृष्टि उसी की पैदा की हुई है। एक वही हरेक जीव का मालिक है।1। रहाउ।

काहू बिहावै बेद अरु बादि ॥ काहू बिहावै रसना सादि ॥ काहू बिहावै लपटि संगि नारी ॥ संत रचे केवल नाम मुरारी ॥२॥

पद्अर्थ: अरु = और। बादि = चर्चा में, बहस में (एकवचन)। रसना सादि = जीभ के स्वाद में। लपटि के = चिपक के। संगि = साथ। नारी = स्त्री। रचे = मस्त रहते हैं। केवल = सिर्फ। मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा।2।

अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र वेद आदि धर्म-पुस्तकें पढ़ने और (धार्मिक) चर्चा में गुजर रही है; किसी मनुष्य की जिंदगी जीभ के स्वाद में बीत रही है; किसी की उम्र स्त्री के साथ काम-पूर्ति में गुजर जाती है। हे भाई! संत ही सिर्फ परमात्मा के नाम में मस्त रहते हैं।2।

काहू बिहावै खेलत जूआ ॥ काहू बिहावै अमली हूआ ॥ काहू बिहावै पर दरब चुोराए ॥ हरि जन बिहावै नाम धिआए ॥३॥

पद्अर्थ: खेलत = खेलते हुए। अमली = अफीम आदि नशे का आदी। पर दरब = पराया धन।3।

नोट: ‘चुोराऐ’ में अक्षर ‘च’ के साथ दो मात्राऐ ‘ु’ व ‘ो’ लगी हैं। शब्द ‘चोर’ से बनता है ‘चोराए’। पर यहाँ पढ़ना है ‘चुराए’।

अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र जूआ खेलते हुए गुजर जाती है; कोई मनुष्य अफीम आदि नशे का आदी हो जाता है उसकी उम्र नशों में ही बीतती है; किसी की उम्र पराया धन चुराते हुए व्यतीत होती है; पर प्रभु के भक्तों की उम्र प्रभु का नाम स्मरण करते हुए गुजरती है।3।

काहू बिहावै जोग तप पूजा ॥ काहू रोग सोग भरमीजा ॥ काहू पवन धार जात बिहाए ॥ संत बिहावै कीरतनु गाए ॥४॥

पद्अर्थ: जोग = योग साधन। भरमीजा = भटकना में। सोग = फिक्र, शोक। पवन धार = प्राणों को धारने में, श्वासों के अभ्यास में, प्राणायाम करते हुए। जात बिहाए = बिहाय जात, बीत जाती है।4।

अर्थ: हे भाई! किसी मनुष्य की उम्र योग-साधना करते हुए, किसी की धूणियाँ तपाते हुए, किसी की देव-पूजा करते हुए गुजरती है; किसी व्यक्ति की उम्र रोगों में, ग़मों में, अनेक भटकनों में बीतती है; किसी मनुष्य की सारी उम्र प्राणायाम करते हुए गुजर जाती है; पर संत की उम्र गुजरती है परमात्मा की महिमा के गीत गाते हुए।4।

काहू बिहावै दिनु रैनि चालत ॥ काहू बिहावै सो पिड़ु मालत ॥ काहू बिहावै बाल पड़ावत ॥ संत बिहावै हरि जसु गावत ॥५॥

पद्अर्थ: रैनि = रात। चलत = चलते हुए। सो पिढ़ु = वह एक ही ठिकाना। मालत = कब्जा करके रखा। सो पिढ़ु मालत = एक ही ठिकाने पर बैठने से। बाल पढ़ावत = बच्चे पढ़ाते हुए। जसु = महिमा।5।

अर्थ: हे भाई! किसी की उम्र बीतती है दिन-रात चलते हुए, पर किसी की गुजर जाती है एक जगह पर ठिकाना बनाए बैठे हुए; किसी मनुष्य की उम्र बच्चे पढ़ाते हुए गुजर जाती है; संत की उम्र बीतती है परमात्मा की महिमा के गीत गाते हुए।5।

काहू बिहावै नट नाटिक निरते ॥ काहू बिहावै जीआइह हिरते ॥ काहू बिहावै राज महि डरते ॥ संत बिहावै हरि जसु करते ॥६॥

पद्अर्थ: निरते = नृत्य, नाच। जीआ हिरते = जीवों को चुराते हुए, लोगों का माल छीनते हुए, डाके मारते हुए। राज महि = राज आदि के कामों में। डरते = डरते हुए, थर थर काँपते हुए।6।

अर्थ: किसी मनुष्य की जिंदगी नटों वाले नाटक व नृत्य करते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की ये उम्र डाके मारते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की जिंदगी राज दरबार में (रह के) थर-थर काँपते हुए गुजरती है; संत की उम्र प्रभु की महिमा करते हुए बीतती है।6।

काहू बिहावै मता मसूरति ॥ काहू बिहावै सेवा जरूरति ॥ काहू बिहावै सोधत जीवत ॥ संत बिहावै हरि रसु पीवत ॥७॥

पद्अर्थ: मता = सलाह। मसूरति = मश्वरा। जरूरति = आवश्यक्ता। सेवा = नौकरी। सोधत = खोज करते हुए। जीवत = जब तक जीते हैं, सारी उम्र। पीवत = पीते हुए।7।

अर्थ: (दुनियावी मुश्किलों के कारण) किसी की उम्र गिनते-गिनते बीत जाती है; (जिंदगी की) जरूरतें पूरी करने के लिए किसी की जिंदगी नौकरी करते हुए गुजर जाती है; किसी मनुष्य की सारी उम्र खोज करते हुए बीतती है; संत की उम्र बीतती है परमात्मा का नाम-अमृत पीते हुए।7।

जितु को लाइआ तित ही लगाना ॥ ना को मूड़ु नही को सिआना ॥ करि किरपा जिसु देवै नाउ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाउ ॥८॥३॥

पद्अर्थ: जितु = जिस (काम) में। को = कोई जीव। तित ही = उस (काम) में ही। को = कोई मनुष्य। मूढ़ = मूर्ख। करि = कर के। जिसु = जिस (जीव) को। ता कै = उस पर से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।8।

नोट: ‘तित ही’ में से ‘तिति’ की ‘ति’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: पर, हे भाई! ना कोई जीव मूर्ख है, ना ही कोई समझदार। जिस काम में परमात्मा ने जिसको लगाया है उसमें ही वह लगा हुआ है। हे नानक (कह:) प्रभु मेहर करके जिस मनुष्य को अपना नाम बख्शता है, मैं उससे सदके जाता हूँ।8।3।

रामकली महला ५ ॥ दावा अगनि रहे हरि बूट ॥ मात गरभ संकट ते छूट ॥ जा का नामु सिमरत भउ जाइ ॥ तैसे संत जना राखै हरि राइ ॥१॥

पद्अर्थ: दावा अगनि = जंगल की आग। रहे = टिकी रहती है। हरि बूट = हरी बूटी में। संकट = दुख। ते = से। छूट = बचाव, खलासी। जा का = जिस (परमात्मा) का। भउ = (हरेक किस्म का) डर। हरि राइ = (हर राय) प्रभु पातशाह। राखै = रक्षा करता है।1।

अर्थ: हे भाई! जंगल की आग हरे पौधे में टिकी रहती है (उसको नहीं जलाती। बाकी जंगल को राख कर देती है); बच्चा माँ के पेट में दुखों से बचा रहता है; इसी तरह वह प्रभु-पातशाह जिसका नाम स्मरण करने से हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है, अपने संत जनों की रक्षा करता है।1।

ऐसे राखनहार दइआल ॥ जत कत देखउ तुम प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राखनहार = हे रक्षा कर सकने वाले! ऐसे दइआल = तू ऐसा दया का घर है। जत कत = जहाँ कहाँ। देखउ = मैं देखता हूं।1। रहाउ।

अर्थ: हे सबकी रक्षा करने के समर्थ प्रभु! तू बड़ा ही दया का घर है। मैं जिधर देखता हूँ, तू ही सबकी पालना करता ह।1। रहाउ।

जलु पीवत जिउ तिखा मिटंत ॥ धन बिगसै ग्रिहि आवत कंत ॥ लोभी का धनु प्राण अधारु ॥ तिउ हरि जन हरि हरि नाम पिआरु ॥२॥

पद्अर्थ: जिउ = जैसे। तिखा = प्यास। धन = स्त्री। बिगसै = खुश होती है। ग्रिहि = घर में। कंत = पति। प्राण आधारु = जिंदगी का सहारा।2।

अर्थ: हे भाई! जैसे पानी पीने से प्यास मिट जाती है, जैसे पति के घर आने पर स्त्री खुश हो जाती है, जैसे धन-पदार्थ लोभी मनुष्य की जिंदगी का सहारा बने रहते हैं, वैसे ही प्रभु के भक्तों का प्रभु के नाम से प्यार होता है।2।

किरसानी जिउ राखै रखवाला ॥ मात पिता दइआ जिउ बाला ॥ प्रीतमु देखि प्रीतमु मिलि जाइ ॥ तिउ हरि जन राखै कंठि लाइ ॥३॥

पद्अर्थ: किरसानी = खेती। दइआ = प्यार। बाला = बच्चा। प्रीतम = मित्र। देखि = देख के। मिलि = मिल के। कंठि = गले से।3।

अर्थ: हे भाई! जैसे रखवाला खेती की रखवाली करता है, जैसे माता-पिता अपने बच्चे से प्यार करते हैं, जैसे कोई मित्र अपने मित्र को देख के (उसको) मिल के जाता है, वैसे ही परमात्मा अपने भक्तों को अपने गले से लगा के रखता है।3।

जिउ अंधुले पेखत होइ अनंद ॥ गूंगा बकत गावै बहु छंद ॥ पिंगुल परबत परते पारि ॥ हरि कै नामि सगल उधारि ॥४॥

पद्अर्थ: अंधुले = अंधे को। पेखत = देखते हुए, देख सकने की सामर्थ्य मिलने पर। बकत = बोलने से। परते = गुजरते हुए। नामि = नाम में सगल = सारी सृष्टि। उधारि = उद्धार की जाती हैं, पार लंघाई जाती हैं।4।

अर्थ: हे भाई! जैसे यदि किसी अंधे व्यक्ति को देखने की शक्ति मिल जाए तो वह खुश होता है, अगर गूँगा बोलने लग जाए (तो वह खुश होता है, और) कई गीत गाने लग जाता है, कोई लंगड़ा पहाड़ों को पार लांघ सकने पर प्रसन्न होता है, इसी तरह परमात्मा के नाम की इनायत से (जो) दुनिया का उद्धार होता है (इससे वह बहुत खुश होता है)।4।

जिउ पावक संगि सीत को नास ॥ ऐसे प्राछत संतसंगि बिनास ॥ जिउ साबुनि कापर ऊजल होत ॥ नाम जपत सभु भ्रमु भउ खोत ॥५॥

पद्अर्थ: पावक = आग। पावक संगि = आग के साथ। को = का। प्राछत = पाप। संत संगि = संतों की संगति में। साबुन = साबन से। कापर = कपड़े। ऊजल = साफ सुथरे। जपत = जपते हुए। सभु = सारा। भ्रमु = भ्रम, भटकना। खोत = खोया जाता है।5।

अर्थ: हे भाई! जैसे आग से ठंड का नाश हो जाता है, वैसे संतों की संगति करने से पापों का नाश हो जाता है। हे भाई! जैसे साबुन से कपड़े साफ-सुथरे हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मा का नाम जपने से हरेक वहिम हरेक डर दूर हो जाता है।5।

जिउ चकवी सूरज की आस ॥ जिउ चात्रिक बूंद की पिआस ॥ जिउ कुरंक नाद करन समाने ॥ तिउ हरि नाम हरि जन मनहि सुखाने ॥६॥

पद्अर्थ: आस = इन्तजार। चात्रिक = पपीहा। कुरंक = हिरन। कुरंक करन = हिरन के कान। नाद = आवाज, घंडेहेड़े (खाल से मढ़े हुए घड़े) की आवाज में। समाने = लीन। मनहि = मन में। सुखाने = मीठा लगता है।6।

अर्थ: हे भाई! जैसे चकवी (चकवे को मिलने के लिए) सूरज (के चढ़ने) का इन्तजार करती रहती है, जैसे (प्यास बुझाने के लिए) पपीहे को बरखा की बूँदों की लालसा होती है, जैसे हिरन के कान घंडेहेड़े की आवाज में मस्त रहते हैं, वैसे ही संत जनों के मन को परमात्मा का नाम प्यारा लगता है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh